किसी भी राग में सात सुर होते हैं। लेकिन साहित्य के आकाश में किसी धूमकेतु की तरह जाता हुआ एक बादल जब भाषाओं के सात सुरों के बाद आठवाँ आलाप लेने लगा तो जाहिर है कि लोगों की नींद टूटने लगी।
हिंदी, अंग्रेती, गुजराती, मराठी, कन्नड़, मलयालम, उर्दू और डोगरी के पाठक समवेत स्वर में बादल राग गाने लगे और तब इस राग ने लोरी-सी मिठास के बावजूद मेरी भी नींद उड़ा दी।
स्वनामधन्य साहित्यकार और प्रख्यात अनुवादक, कवि, कहानीकार डॉ. दामोदर खड़से से मैंने कहा कि "आपके आधुनिकता विमर्श से कसे हुए इस विशिष्ट उपन्यास 'बादल राग' पर मैं भी एक समीक्षात्मक नजर डालना चाहता हूँ। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस, अपनी चिर-परिचित शैली में खामोशी के साथ कुछ मुस्करा दिए।
उनकी इस मौन स्वीकृति के बाद मेरी पड़ताल को मानो पंख लग गए और मैं ये देखकर चकित हुआ कि इस उपन्यास को न केवल खूब पढ़ा जा रहा है बल्कि कई भाषाओं में प्रकाशित इसके अनूदित संस्करणों पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ भी किसी बौछार की भाँति लगातार आती जा रही हैं। मैंने इन सब आलेखों को एक साथ आपके लिए संजो दिया।
इस संदर्भ में मैं केवल यही कहूँगा कि विमर्श वाचाल नहीं होते। जमीन के नीचे बहते पानी की तरह चीजें भीतर-ही-भीतर बदलती रहती हैं और मंतव्य पूरे हो जाते हैं। शायद इसी को विमर्श कहते हैं। मानस बदल जाते हैं, ग्रंथियाँ सुलझ जाती हैं और कहीं आवाज तक नहीं होती।
यहाँ बैंड-बाजा, बारात का कोई दस्तूर परवान नहीं चढ़ता।
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