एक समय ऐसा था, जब अधिकांश लोग, जाट जाति के उद्गम स्थल, आर्यों के साथ उनके सम्बन्ध, विश्व के इतिहास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका. बड़े-बड़े साम्राज्यों के ध्वन्स की उनकी क्षमता, नये-नये साम्राज्यों की स्थापना की उनकी शक्ति, भारतीय ही नहीं, संसर की सभ्यता एवं संस्कृति को उनकी ऐतिहासिक देन, भारत पर आक्रमण करने वाले दुर्दान्त आक्रान्ताओं को ठोकने की उनकी शक्ति और भारत को एक राष्ट्र का रूप देने की उनकी प्रतिभा से अपरिचित थे। इस अज्ञान को, एक ओर भारत के पौराणिक साहित्य ने बढ़ाया और दूसरी ओर मुस्लिम इतिहासकारों ने। अरबी अथवा फारसी में लिखे गए इतिहास को अक्षरशः सत्य मानकर भारतीय भाषाओं अथवा अंग्रेजी में लिखे गए इतिहास-ग्रंथों ने जाट जाति के विषय में अनेक भ्रामक तथ्य प्रस्तुत किए। जाट जाति, प्रारम्भ से ही रूढ़ि एवं परम्परा विरोधी तथा क्रान्तिकारी रही है। उनकी यह क्रान्तिकारी प्रवृत्ति पौराणिक साहित्यकारों को भी अखरी और मुस्लिम सामंत काल के दरबारी वाक्या-लेखकों को भी। फलतः प्रगतिशील देश सभ्यता एवं संस्कृति की उन्नायक जाति का महान् इतिहास अंधकार के गर्त में चला गया।
इस जाति के इतिहास को, केवल एक सीमा तक प्रकाश में लाने का श्रेय प्रो. के. आर. कानूनगी की पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ जाट्स' को है। इस दिशा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य ग्राम जघीना, जिला भरतपुर के ठा. देशराज ने 'जाटों का इतिहास' सन् 1934 में लिखकर किया। इसके बाद, कई अन्य पुस्तकें भी लिखी गई, पर वे इतिहास कम, कतिपय लोगों की प्रशतिस्यां अधिक हैं। डॉ. रामपाण्डे ने 'भरतपुर अपटू 1826' सन् 1970, श्री उपेन्द्रनाथ शर्मा ने 'जाटों का नवीन इतिहास' (दो भाग) सन् 1986, डॉ. गिरिशचन्द्र त्रिवेदी ने 'दि जाट्स देयर रोल इन मुगल एम्पायर' लिखकर जाट तथा भरतपुर के जाट राजाओं के इतिहास को, एक सीमा तक सही रूप में समझने का प्रयास किया। श्री गंगीसिंह (भरतपुर) ने जाटों के इतिहास पर और पूर्व विदेश राज्य-मन्त्री श्री नटवरसिंह ने महाराज सूरजमल पर प्रामाणिक पुस्तकें लिखकर अनेक भ्रान्तियों का निवारण किया है, किन्तु जाट जाति के ईसापूर्व महान् इतिहास को प्रस्तुत करने वाली पुस्तक श्री बी. एस. दहिया ने सन् 1980 में जाट्स द ऐंसऐण्ट रूलर (ए क्लान स्टेडी) नाम से लिखी।
श्री दहिया की यह पुस्तक अंग्रेजी में लिखी गई है, अतः इससे लाभउठाने वाले लोगों की संख्या बहुत थोड़ी हैं। इस अभाव की पूर्ति, सनातन धर्म कालिज, पलवल के प्रोफेसर डॉ. धर्मचन्द्र विद्यालंकार की यह पुस्तक 'जाटों का नया इतिहास', बहुत बड़ी सीमा तक करती है।
इस पुस्तक के पाठक जाट जाति की प्राचीन गरिमा, विश्व-संस्कृति को उसी देन, राष्ट्र के रूप में भारत की स्थापना के उसके प्रयास आदि को भली प्रकार समझ सकेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है।
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