संस्कृत देवभाषा में गीतात्मक काव्य का सर्वोपरि स्थान होता है, जिसमें कवि के द्वारा रागात्मक, अनुभूति एवं कल्पना द्वारा वर्ण्य विषय एवं वस्तु को भावात्मक बनाया जाता है; परन्तु गीतिकाव्य में भावात्मकता या रसात्मकता का विशेष महत्त्व नहीं होता है। इसमें केवल एक ही भाव का केन्द्रस्थ होना नितान्त आवश्यक होता है, जो उसके द्वारा अभिवृद्ध, समृद्ध तथा परिपुष्ट किया जाता है। स्वगम्य अनुभूति को परगम्य अनुभूति के रूप में परिणत करने हेतु जिसे कवि के द्वारा मधुर भावापत्र रससान्द्रोक्ति के द्वारा व्यक्त किया जाता है, उसे ही 'गीति' कहा जाता है।
कभी भी कवि गीतिकाव्य के विषय में अपने से बाहर नहीं जाता, बल्कि अपने हृदय के अन्तराल में अवस्थित अपनी अनुभूति के द्वारा आत्मसात् किये गये विषय की इतनी सुन्दर तथा मोहक शब्दों में अभिव्यक्त करता है, जो स्वतः उसकी अपनी चीज होती हैं। इस गीतिकाव्य के दो भेद होते हैं-
१. मुक्तक काव्य-यह सन्दर्भादि बाह्य सामग्री से निर्मुक्त स्वतः रसपेशल होता है। भर्तृहरि का अमरुकशतक मुक्तक की श्रेणी में ही आता है।
२. प्रबन्ध काव्य- 'मुक्तेषु हि प्रबन्धेष्विव रसबन्धनाभिनिवेशिनः कवयो दृश्यन्ते।' इस श्रेणी में महाकवि कालिदास-कृत मेघदूत आता है।
भर्तृहरि का व्यक्तित्व
संस्कृत साहित्य की महिमा एवं कीर्तियों को दिग्दिगन्त में प्रसारित करने वाले रस-सिद्ध कवीश्वरों के मध्य अपनी अमर कृतियों के द्वारा भर्तृहरि का नाम बड़े ही आदर एवं सम्मान के साथ लिया जाता है। भर्तृहरिकृत नीति, श्रृंगार तथा वैराग्यशतक के कारण उन्हें संस्कृत साहित्य में विलक्षण कवि होने का गौरव प्राप्त है। इनकी कविता जितनी प्रसिद्ध है, उतनी ही अज्ञात तथा अन्धकारमय इनका व्यक्तित्व है। किंवदन्ती के आधार पर इनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। इसी कारण विद्वानों में मतभेद है-
१. अर्वाचीन कोषानुसार- ये गन्धर्व जाति के थे। इनके पिता का नाम वीरसेन था, जिनकी चार सन्ततियाँ थी- भर्तृहरि, विक्रमादित्य, सुभटवीर्य- ये तीन पुत्र तथा मेनावती पुत्री। यही मेनावती इतिहासप्रसिद्ध श्री गोपीचन्द की माता थी।
२. एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार इनकी पत्नी का नाम अनंगसेना था, जिसने अपनी दुश्चरित्रता के कारण भर्तृहरि को विरक्त बना दिया था, इस सन्दर्भ में निम्न श्लोक ध्यातव्य है-
यां चिन्तयामि सततं मपि सा विरक्ता साऽप्यन्यदिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते तु परितुष्यति कचिदन्या धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ।।
३. अन्य किंवदन्ती के अनुसार- इनकी माता का नाम सुशीला देवी था, जो जम्बूद्वीप के राजा की एकमात्र इकलौती पुत्री थीं। भर्तृहरि ने अपनी राजधानी उज्जयिनी में बनाया था। बाद में विक्रमादित्य को राज्यभार सौंपकर उन्होंने सुभटवीर्य को उसका प्रधान सेनापति बना दिया था।
४. अन्य किंवदन्ती के अनुसार इनकी पत्नी का नाम पद्माक्षी था, जो मगध-नरेश सिंहसेन की पुत्री थी।
उपर्युक्त किंवदन्तियों के आधार पर स्पष्ट होता है कि इनका जन्म राजवंश में हुआ था और ये असाधारण प्रतिभावान् थे। किंवदन्ती के अनुसार रानी पिंगला की चरित्रहीनता के कारण इन्होंने राज्य का त्याग करके वैराग्य धारण कर लिया था। यह कटु सत्य है कि हृदय में उत्कट वैराग्य उत्पन्न होने के कारण ही इनके द्वारा राजसी सुख एवं वैभव का सर्वथा त्याग करके जगलों में जाकर तपस्वियों के सदृश जीवन व्यतीत किया गया। इनके शतकों से ऐसा ज्ञात होता है कि स्त्री के दुर्गुणों के कारण ही इनकी आस्था पर ङ्ग्रेस लगी। उसकी चारित्रिक पवित्रता इनकी रचना में कहीं भी लक्षित नहीं होती है। इन्होंने कहीं भी अपने शतक में नारी के प्रति सहानुभूति को व्यक्त नहीं किया है।
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