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अन्तर्कथाओं के आईने में उपन्यास- Novel in the Mirror of Inter-Stories

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Specifications
Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi
Author Rahul Singh
Language: Hindi
Pages: 151
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 280 gm
Edition: 2018
ISBN: 9788193655566
HBS462
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Book Description
पुस्तक परिचय
राहुल सिंह ने पिछले एक दशक में कथालोचना के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई है। हिन्दी उपन्यासों पर केन्द्रित उनकी यह आलोचनात्मक कृति 1936 ई. से लेकर 2014 ई. तक के अन्तराल से एक चयन प्रस्तुत करती है। इसमें एक ओर तो अकादमिक क्षेत्र में पढ़ाये जानेवाले 'गोदान', 'तमस' और 'डूब' जैसे उपन्यास हैं तो वहीं दूसरी ओर 'मिशन झारखंड', 'समर शेष है', 'काटना शमी का वृक्ष', 'निर्वासन', 'कैसी आगि लगाई', 'बरखा रचाई', 'आदिग्राम उपाख्यान', 'काटना शमी का वृक्ष पद्म पंखुरी की धार से', 'निर्वासन' और संजीव की 'फाँस' को छोड़कर उनके लगभग उपन्यासों को रेखांकित करता एक विशद् आलेख शामिल है, जिसके केन्द्र में 'रह गई दिशाएँ इसी पार' है। उपन्यासों में विन्यस्त कथात्मकता की परतों को खोलने के लिए उसकी अन्तर्कथाओं को उपन्यासकार द्वारा उपलब्ध कराये गये अन्तःसूत्रों की तरह वे अपनी आलोचना में बरतते हैं। इस कारण वे पाठ के भीतर से उपन्यास के लिए प्रतिमान ढूँढनेवाले एक श्रमसाध्य आलोचक की छवि प्रस्तुत करते हैं। हर लेख आलोचना की भाषा पर की गई उनकी मेहनत का पता देती है। कथात्मकता की कसौटी पर वे उपन्यासों से इतर एक आत्मकथा 'मुर्दहिया', एक डायरी 'अग्निपर्व शान्तिनिकेतन' और एक आलोचनात्मक कृति 'उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता' पर भी कुछ जरूरी बातें प्रस्तावित करते हैं। इस लिहाज से देखें तो अपनी समकालीन कथात्मकता की पड़ताल करती एक जरूरी किताब है, जिसे जरूर देखा जाना चाहिए।

लेखक परिचय
13 जनवरी 1981 को राँची के नजदीक हटिया नामक कस्बे में जन्म। शुरुआती शिक्षा वहीं से। सन्त जेवियर कॉलेज, राँची से स्नातक। राँची विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग से एम.ए.। तत्पश्चात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से एम.फिल. और पी-एच.डी.। मार्च 2008 से देवघर (झारखंड) के ए.एस. कॉलेज में अध्यापनरत। एक दशक से हिन्दी आलोचना में सक्रिय । अब तक 'पहल', 'तद्भव', 'नया ज्ञानोदय', 'बहुवचन', 'प्रगतिशील वसुधा', 'रचना समय', 'पाखी', 'साखी', 'समीक्षा', 'परिकथा', 'उ‌द्भावना', 'संवेद', 'लमही', 'शब्दयोग', 'वर्तमान साहित्य', 'समकालीन सरोकार' आदि पत्रिकाओं में सत्तर से ज्यादा लेख प्रकाशित हो चुके हैं। हाल के वर्षों में विश्व सिनेमा और हिन्दी सिनेमा पर भी बहुत अलग क़िस्म का ध्यान खींचनेवाला काम किया है। आधुनिकता की अवधारणा, समकालीन हिन्दी कहानी, विश्व सिनेमा व हिन्दी सिनेमा तथा कलाओं के अन्तर्सम्बन्ध, पर कुछ किताबें प्रकाशन के लिए तैयार कुछ प्रक्रिया में।

भूमिका
मेरे आलोचनात्मक लेखन की शुरूआत जिस घटना से हुई थी, उसके मूल में एक उपन्यास की अहम भूमिका थी। उसे घटित हुए दस साल हो गये और उपन्यासों व कहानियों पर लिखते हुए भी। तो मेरे कथालोचन की उम्र कुल जमा दस साल है। इस दरम्यान कहानी, कला, फ़िल्म और अवधारणा के मोर्चे पर भी काफी काम किया। पर एक शक्ल अख्तियार करने की स्थिति में कथालोचन वाला काम ही रहा। इन बिखरे लेखों को एक जगह संकलित करने के मकसद से ही इस किताब की पीठिका निर्मित हुई है। उपन्यास विषयक मेरा पहला लेख 'मिशन कामयाब लेकिन समर शेष है' था। उसके बाद अलग-अलग मौक़ों और जरुरतों के लिहाज से गाहे-बगाहे उपन्यासों पर लिखने का सिलसिला एक नियमित अन्तराल पर जारी रहा। इस किताब में शामिल शुरू के आठ लेख तो उपन्यासों पर केन्द्रित हैं। पर नवाँ लेख संजीव के किसी एक उपन्यास पर केन्द्रित ना होकर उनके लगभग उपन्यासों को अपने जद में लेता है। केवल उनके नवीनतम उपन्यास 'फाँस' की चर्चा इसमें नहीं है। लेकिन 'रह गयीं दिशाएँ इसी पार' तक के उनके औपन्यासिक यात्रा को लगभग समग्रता में यहाँ देखने की कोशिश की गयी है। इसके बाद तीन लेख प्रत्यक्ष रुप से उपन्यास से सम्बद्ध ना होते हुए भी कुछ अन्य कारणों से यहाँ शामिल कर लिये गये हैं। तुलसीराम की 'मुर्दहिया' जो दलित आत्मकथा के तौर पर पर्याप्त प्रशंसित पुरस्कृत हो चुकी है, उसको इस किताब में शामिल करने का आग्रह 'आत्म' के साथ सम्बद्ध 'कथा'। 'आत्मकथा' और 'उपन्यास' के मध्य सेतु की तरह काम करनेवाला बुनियादी तत्त्व कथा का तन्तु ही ठहरता है|

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