श्री अमितगति सूरि विरचित इस पञ्चसंग्रह ग्रन्थ में कर्मसिद्धान्त का वर्णन है। गोम्मटसार में जो वर्णन है वही इसमें है। केवल वर्णन की शैली भिन्न है और सरल भी है, किन्तु गणित-भाग इसमें बहुत ही कम है। भाषा इसकी संस्कृत है और हिन्दी में हमने व्याख्या कर दी है। इस प्रकार पाठकों को यह ग्रन्थ बहुत ही सरल और उपयोगी बन गया है। इसलिए गोम्मटसार को देखते, बहुत से जो बड़े-बड़े बुद्धिमान् लोग भी घबराते हैं; वे इस ग्रन्थ से आनन्दित होंगे। गोम्मटसार का सारा रहस्य भी इस ग्रन्थ में आ गया है। पढ़नेवाले इससे बहुत जल्दी लाभ उठा सकते हैं, कर्म विषय के जानकार बन सकते हैं। इस पुस्तक को पाठ्य-पुस्तकों में भी रखा जाय तो बहुत अच्छा हो। जैसे जो पाठक राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक ग्रन्थों को पढ़ना चाहें उनको प्रथम सर्वार्थसिद्धि पढ़ना जरूरी है, उसी प्रकार गोम्मटसार से पहले पञ्चसंग्रह का पढ़ना अधिक उपयोगी होगा। इस पुस्तक का प्रचार विद्यार्थियों में भी होने की जरूरत है। और अब तो हिन्दी अर्थ हो जाने से यह ग्रन्थ सर्वसाधारण के लिए भी स्वाध्याय हेतु उपयोगी हो गया है। जैनधर्म में कर्म का विषय बहुत ही महत्त्व का तथा दूसरों की तुलना में अश्रुतपूर्व ठहरता है, इसलिए इसका पठन-पाठन होना बहत जरूरी है।
इसकी हिन्दी व्याख्या करते समय एक हस्तलिखित पांडुलिपि ऐ.प. सरस्वती भवन, मुम्बई से मँगाई थी उसी को मुख्य रखकर संशोधन किया गया है। माणिकचन्द दि. जैन ग्रन्थमाला में जो पञ्चसंग्रह छपा है, वह बहुत अशुद्ध छपा है। कहीं-कहीं पर तो उसमें पूरे पूरे श्लोक तक छूट गये हैं। जैसे, असावुत्कृष्टयोगेन गुणे सूक्ष्मकषायके ।
बन्धो जघन्ययोगस्य जघन्योस्त्यष्टकर्मणाम् ॥
चतुर्थ परिच्छेद के श्लोक 351-352 के बीच की ये पंक्तियाँ छूट गयी हैं। इसी प्रकार पञ्चम परिच्छेद का निम्न श्लोक (449) माणिकचन्द ग्रन्थमाला की पुस्तक में छूट गया है-
देशषष्ठी क्रमात् षष्टि तां निरेकां तु सप्तमः ।
पञ्चाशतमपूर्वाख्यः क्रमादष्टषडन्विताम् ॥
इसी प्रकार पंचम परिच्छेद में 471-72 की ये दो पंक्तियाँ छूट गयी हैं-
अङ्गोपाङ्गत्रयं षट्के संस्थानानां शुभद्वयम्।
अष्टौ स्पर्शा रसाः पञ्च वर्णाः पञ्च स्थिरद्वयम् ।।
ऐसी अशुद्धियों के सिवाय शब्द सम्बन्ध की भी बहुत सी अशुद्धियाँ रह गयी हैं जिससे अर्थबोध होने में बड़ा क्लेश होता है। जहाँ तक हमसे हो सका है, वे अशुद्धियाँ हमने इस प्रकाशन में नहीं रहने दी हैं।
मूल ग्रन्थ पद्यरूप है। बहुत से श्लोकों के नीचे कुछ गद्य रहता है उसमें पद्मसम्बन्धी ही कुछ खुलासा रहता है और कहीं-कहीं पर जो पद्म में संख्या बताई जाती है, उसे गद्यकार अंकों में लिखकर फिर से बता देते हैं। यह सारा गद्यभाग मूलकार का नहीं है ऐसी हमारी समझ है।
हमारे पास जो हस्तलिखित प्रति है वह संवत् 1807 की लिखी हुई है और उसमें प्रमाण 2750 लिखा है।
इसके प्रथम परिच्छेद में प्रारम्भ के ही श्लोक दूसरे में पाँच विषयों की सूचना की है, वह इस प्रकार है- (1) बन्धक, (2) बध्यमान, (3) बन्धेश, (4) बन्धकारण, और (5) बन्धभेद। इन्हीं पाँचों का आगे क्रम से ग्रन्थ में वर्णन है। बन्धक अर्थात् कर्म का बन्ध करनेवाला अशुद्ध संसारी जीव है। उसके गुणस्थान, मार्गणा, जीवसमास, पर्याप्ति आदि जो भेद हैं उन सबका इस प्रथम परिच्छेद में सविस्तार वर्णन है। इस परिच्छेद में कुल 354 श्लोक हैं।
दूसरे परिच्छेद में बध्यमान अर्थात् बन्ध के योग्य 148 प्रकृतियों का 48 श्लोकों में वर्णन है। तीसरे परिच्छेद में बन्ध उदय सत्ता का क्रम से कैसे कैसे उच्छेद होता है, इस बात का सविस्तार वर्णन किया गया है। 106 श्लोकों में यह परिच्छेद समाप्त हुआ है।
चतुर्थ परिच्छेद में 375 श्लोक हैं। इसे 'शतक' कहा गया है। इसमें उपयोग, योग, प्रत्यय आदि को जीवसमास-गुणस्थान-मार्गणा आदिकों के साथ में मिलाकर विस्तार से बताया है, अर्थात् बन्ध के सभी कारणों का यहाँ वर्णन है।
484 श्लोकों द्वारा वर्णित पंचम परिच्छेद को 'सप्तति' कहा है। इसमें समस्त कर्मों के बन्धोदयसत्त्व प्रत्येक तथा संयोगी भंग आदिकों का वर्णन है। इसमें मोह का तथा नामकर्म का बहुत ही विस्तार से वर्णन है।
छठे परिच्छेद बन्धस्वामित्व में 90 श्लोक हैं। इसमें बताया है कि अमुक अमुक गुणस्थानों में और अमुक मार्गणाओं में इतनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, इतनी का नहीं।
श्रीमान् धर्मात्मा शेठ नेमचन्द बालचन्द धाराशिव वालों के आग्रह पर इस पुस्तक की हिन्दी व्याख्या हमने की है और उन्हीं के द्वारा यह प्रकाशित हुई है। कितने ही वर्ष पहले, श्रीमती राजूबाई भ्र. वीरचन्द दोशी धाराशिव वालों की ओर से कुछ राशि पुस्तक प्रकाशन के लिए निकाली गयी थी, उससे सर्वार्थसिद्धि आदि कई ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। उन ग्रन्थों की बिक्री से रकम जो इकट्ठी हुई थी, उसी से यह 'पञ्चसंग्रह' प्रकाशित कराने का इरादा शेठ नेमचन्द बालचन्द का हुआ था परन्तु रकम थोड़ी थी इसलिए शेठजी ने अपनी तरफ से उसकी पूर्ति कर यह ग्रन्थ प्रकाशित करा दिया है। इस प्रकार ग्रन्थ की छपाई का सारा खर्च प्रकाशकों की तरफ से हुआ है। शेठजी ने और भी बहुत से ग्रन्थों को अपनी तरफ से आज तक प्रकाशित कराकर धर्मज्ञान के प्रचार में अपनी आस्था प्रकट की है, इस प्रवचनवात्सल्य के लिए हम शेठजी को धन्यवाद देते हैं।
हमने इसकी जो हिन्दी व्याख्या की है, वह दूसरी अनेक चित्तव्यग्रताओं के रहते की है, इसलिए इस व्याख्या में और ग्रन्थ के शोधन में जो त्रुटि रह गयी है, उन्हें विद्वान् प्रेमी शोध कर पढ़ें ऐसी प्रार्थना है।
स्व. पं. धन्नालालजी काशलीवाल और पं. गोपालदासजी बरैया की प्रेरणा से, कई वर्ष हुए, हमने जैनेन्द्र पर पूर्व भाग की वृहत् प्रक्रिया तैयार की थी उससे हमें स्वयं संस्कृत व्याकरण के ज्ञान का बहुत लाभ हुआ था। इसी प्रकार पञ्चसंग्रह की व्याख्या भी प्रकाशक की उत्सुकता से की परन्तु कर्मविषयक बहुत कुछ ज्ञानलाभ हमें इससे स्वयं हुआ है, इसलिए भी हम प्रकाशक के आभारी हैं।
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