कविता पूरी तरह, चरम अर्थों में, नैसर्गिक और सहजात होती है। कविता की पाटी कोई पढ़ा नहीं सकता। कोई पाठशाला इसकी शिक्षा नहीं दे सकती। किंडरगार्डन में भी, जहाँ नन्हे बच्चे कोई भाषा अपनी तुतलाहट के साथ जीभ, होंठ, गले के स्वर यंत्रों की नटगीरी में खोजते हैं और अपनी नन्ही देह की संपूर्ण व्याकुलता में किसी वस्तु को चीन्हने-पहचानने वाला शब्द या कुछ कह पाने वाले वाक्य की खोज और अनुसंधान में मुब्तिला रहते हैं। तब भी, वहाँ भी, हरेक भाषा अपने कवि को शैशव में ही, उसकी कलाई पकड़ कर अपनी कोमलता में उसे अपने भीतर के नगर बस्ती या संसार में खींच लेती है। कोई धार्मिक या राजनीतिक संस्थान कवि को न तो दीक्षा दे सकता है, न कोई डिग्री। कविता का मार्ग सूधा और साँचा है, जिसमें अपने अहम् को तजकर चलना होता है। कपटी-कवि या श्यूडो-पोएट्स इस पगडंडी पर चलने से झिझकते हैं। कविता का कोई कलमा नहीं होता, कोई जड़ी नहीं होती, कवि के कान को फूंका नहीं जा सकता, उसकी आँख पर किसी भी रंग और शेड का चश्मा नहीं चढ़ता। कवि सबसे सहज, सरल, प्राकृतिक और विवेक-प्रज्ञावान होता है, न्यूरोटिक या मानसिक रोगी नहीं कि कोई दार्शनिक प्लूटो उसे अपने यूटोपीया या रिपब्लिक से निकाल दे या कोई सर्वसत्तावादी राजतंत्र उसे किसी दंड-द्वीप, निर्जन-रेगिस्तान, बर्फीले बियाबान में भेज दे। कवि वध्य होता है, निर्बल, सत्ताहीन। बाकी सभी उससे अधिक ताक़तवर-पूँजीवर होते हैं। न दौलत कवि बना सकती है, न ताक़त। बेहतर कविता हमेशा वृहत्तर जीवन और अनुभवों की माँग करती है। कवि आत्ममुग्ध और आत्मग्रस्त नहीं होता। वह अपने जीवन के गुड़ की भेली में जीवन भर लगा-चिपका चींटी नहीं होता। वहीं-वहीं घूमता। कविता की परिव्याप्ति के लिए वृहद् जीवनानुभव चाहिए।
आज के दौर में जब हर मानवीय चेष्टा किसी न किसी पेशे या ऑक्यूपेशन से जोड़ी जा चुकी है, तो यह बिल्कुल संभव है कि देश-विदेश के कई विश्वविद्यालय कविता में ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन या पी.एचडी. की डिग्रियाँ दे रहे हों, बल्कि क्रिएटिव राइटिंग विभाग ऐसी डिग्री देता भी है। बहुतेरे निजी संस्थान या संगठन फेलोशिप ही बताते हैं।
ऐसे तमग़ों से कुछ समय तक तो दीक्षित-शिक्षित-प्रशिक्षित कवि को लाभ मिलता है, लेकिन यह भी सर्वकालिक या ऐतिहासिक सत्य है कि हमेशा कवि को समय ही सिद्ध करता है। साहित्येतिहास में झांकिए, कविता का इतिहास बँगालिये, आज तक हमारे समय में संग-साथ रहने वाले लगभग सारे के सारे कवि सांस्थानिक नहीं हैं। कवि न कोई सरगना होता है, न इवेंट मैनेजर।
कवि न तो सोशल-इंफ्ल्यूएंसर होता है, न टीवी का सेलिब-एंकर। न पॉडकास्टर, न यूट्यूबर, न व्हाट्सएपर। कवि फ़क़त कवि होता है। अकादेमिकता कवि नहीं बनाती। सैमुअल कोलरिज अच्छे खासे कवि हो सकते थे, दर्शनशास्त्र और धर्मशास्त्र ने उन्हें कविता से बेदखल किया। कवि और नवगीतकार नामवर सिंह 'पुनीत' को अकादेमिकता ने विख्यात आलोचक डॉक्टर नामवर सिंह में बदल डाला। डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी अच्छे कवि हो सकते थे, संस्मरणकार, चिंतक और आलोचक हो गए। देश-विदेश की भाषाओं में कविता की दुर्गम पगडंडी को बीच में छोड़ कर, कुछ और बन जाने के उदाहरण भरपूर हैं। इस सूची में बीसवीं सदी के रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर अभी मुश्किल से सात साल पहले कविता के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले बॉब डिलन तक शामिल हैं।
कविता या कवि या कोई भी रचनाकार अपना अलग मठ या परंपरा नहीं बनाता। मठ, परंपरा, संगठन-समुदाय इत्यादि को बनाने वाले तो कोई और ही हुआ करते हैं। वे दरबारी, सरकारी, व्यापारी, मनुहारी, क्रांतिकारी या भ्रांतिकारी इत्यादि कुछ भी हो सकते हैं, बस कवि होने को छोड़ कर। वे फ़ेक श्यूडो पोएट्स मैन्यूफैक्चरिंग इंडस्ट्री होते हैं। लघु कुटीर उद्योग। उनके और उनके उत्पाद के टिकाऊपन की परिमापन-पटरी बहुत छोटी होती है। स्मॉल स्केल। किसी भी कवि या रचनाकार की कोई परिभाषित-निर्दिष्ट परंपरा नहीं होती। यह उपक्रम करनेवाले और ही होते हैं।
ये सोचना कितना सुखद है कि एक दिन मेरी सारी पंक्तियाँ इकट्ठी होकर मेरी गोद में एक किताब बनकर बैठी होंगी, जिन्हें मैं अपने हाथों से छू पाऊँगा, उनकी कोमल त्वचा सूंघ पाऊँगा और उन्हें किसी नवजात शिशु के जैसे चूम पाऊँगा। लेखक होना पिता होने जैसा अहसास भी करा सकता है ये मुझे अभी महसूस हो रहा है। जिस दिन ये किताब छपकर हाथों में आएगी वह दिन मेरी हथेलियों के लिए कितना बड़ा दिन होगा, इस सुखद-कल्पना से ही मन भरा हुआ है।
पनडुब्बियों की तरह उत्साह के समन्दर में डूबा मैं जब पलटकर देखता हूँ तो पाता हूँ कि बिना रुके बहुत दूर से चलकर आई हैं ये कविताएँ। इनकी आँखों में नींद है, पैरों में थकान है, कुछ पछतावे हैं, कंधों पर ज़िम्मेदारी है, और बहुत सारे सवाल हैं। किसी पंक्ति में छुपा काफ़ी पुराना गुस्सा है। इसके अलावा इनके सपनों में प्रेम है, धूप है, पानी है, लोरियाँ हैं, हिचकियाँ हैं, बोलियाँ हैं, तितलियाँ हैं और गुनगुनी-सी उंगलियाँ हैं।
इन कविताओं ने बहुत से कवियों की रचनाओं का नमक खाया है। बहुत सी पंक्तियों की उंगली पकड़ कर इन्होंने चलना सीखा है। कई पाठकों के लाड़ में इनका बचपन बीता है, कइयों ने इनके लिए सख्ती भी बरती है।
गाँव के दूसरे कोने से उठती लोकगीतों के स्वर में घुलकर ये सुरीली हुई हैं। कई शहरों में ये खेली कूदी हैं और उन शहरों के कई कमरों में ये संजीदा होती गई है। ऐसे ही २०१० में भोपाल के एक कमरे में बेहद सरल इंसान और पसंदीदा कवि हेमंत देवलेकर भैया के साथ रहने का मुझे मौक़ा मिला। जिनसे मैंने कविताओं के बारे में जानना शुरू किया। मशहूर शायर इरशाद खान सिकंदर दादा का शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने तमाम व्यस्तताओं के बाद भी कविताओं की त्रुटियाँ ठीक कीं। हमेशा प्रेरणा देने वाले पीयूष-दा ने किताब पढ़ी और प्यारा-सा ब्लर्ब लिखा। हिन्दी के महान कवि-कथाकार उदय प्रकाश जी ने किताब की विस्तृत भूमिका लिखी, जिनका होना ही हमारे समय के लिए बहुत बड़ी बात है। सरहद पार से मोहब्बत भेजने वाले प्यारे दोस्त तहजीब हाफ़ी ने, हमेशा प्रेरणा देने वाले पीयूष दा ने, और बड़े भाई व मार्गदर्शक सौरभ द्विवेदी जी ने किताब पढ़ी और ब्लर्ब के रूप में कुछ-कुछ लिख दिया जो मेरे लिए बहुत कुछ है। दीपक शंकर जोरवाल का शुक्रिया जिन्होंने इसे प्रकाशित करने का जिम्मा उठाया। और अंत मे बेहद लाडले नीरव का भी बहुत शुक्रिया जिसने लगभग एक साल लगकर बिखरी हुई कविताओं को सुंदरता से संकलित-संपादित किया जो अब आपके हवाले है।
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