वैयाकरणपूज्यानां प्रक्रिया पारदृश्वनाम् ।
सन्ति येऽर्था महागूढा व्याक्रियन्ते यथामति ।।
निखिल संस्कृत वाङ्मय व्याकृति परायण है। इस वाङ्मय में अनेक व्याकरण-शास्त्र और सम्प्रदाय आविर्भूत एवं तिरोभूत हुए, उनमें से आज कुछ उपलब्ध भी हैं, प्रयत्न और परिश्रम से कुछ उपलब्ध किये और कराये जा सकते हैं तथा कुछ समूलतः काल के गाल में चले गये हैं, जिनकी पुनर्लब्धि असम्भव है। उन व्याकरणशास्त्र सम्प्रदायों में महर्षि पाणिनि का अष्टाध्यायात्मक सम्प्रदाय शिखर स्थानीय है, जो आज भी प्रौढ़ अध्येताओं से सेवित है। भले ही उसका अध्ययनाध्यापन प्राक्तन रीति से हो अथवा नव्य प्रक्रिया प्रणाली से। अष्टाध्यायी के दो क्रम हैं। यद्यपि एक ही आचार्य इस शास्त्र के प्रवर्तक के रूप में स्मरण किये गये हैं। उनकी इष्टियों और परम्पराओं के अनुरूप आदिकाल और मध्यकाल में अध्ययन और अध्यापन का क्रम प्रचलित था, किन्तु आज वह क्रम सर्वसाधारण के आकर्षण का कारण नहीं है। फलतः मनीषियों ने एक अभिनव मार्ग की समुद्भावना की और वह बहुजनोपकारक प्रक्रियापंथ है। यही क्रम नव्य-व्याकरण की अन्वर्थ संज्ञा से अन्वित है।
पाणिनि के काल में संस्कृत लोकभाषा थी, कात्यायन के काल में विशिष्ट भाषा और पतञ्जलि के काल में शिष्ट भाषा। इस अवस्था में भाषा के प्रयोगों का विश्लेषण चल रहा था तथा उन्हें व्याकरण-शास्त्र में अन्तर्भूत करने के प्रयास चल रहे थे। भाषा की बदलती हुई रूपरेखा पाणिनि, कात्यायन और पतञ्जलि के ग्रन्थों में स्पष्टतया देखी जा सकती है।
पाणिनि ने भाषा के जिन प्रयोगों को व्याकरण में आत्मसात् किया, कात्यायन के काल में उन प्रयोगों में विकृति आ गई थी, जिसे उन्होंने दूर किया। यह पाणिनि का तिरस्कार नहीं, संशोधन मात्र था। कात्यायन तो पाणिनि के ऋणी ही हैं कि उनके द्वारा सुव्यवस्थित मार्ग पर चलते हुए उसे पुष्ट करने की चेष्टा उन्होंने की। यदि मार्ग ही नहीं होता तो पुष्ट किसे करते ? पतञ्जलि ने भी इस क्रिया में योगदान दिया। इन तीन मुनियों के ग्रन्थों में भाषा का व्याकरण एक निश्चित सिद्धान्त पर पहुंच गया, जिसके अनुसार भाषा की गाड़ी चल पड़ी और संस्कृत भाषा अभिजात भाषा (Classical Language) हो गई।
जिस युग में पाणिनि का आविर्भाव हुआ, उस युग में चूंकि संस्कृत भाषा सर्वजनीन थी। इसलिए भाषा ज्ञान की कोई भी रीति कठिन नहीं थी और इसीलिए पाणिनि की अष्टाध्यायी रीति का भी सहर्ष स्वागत हुआ। वैसे यह अष्टाध्यायी क्रम सामान्य या साधारण नहीं कहा जा सकता। इसे तो पाणिनि की सूक्ष्मेक्षिका बुद्धि से समुत्पन्न एक अद्भुत क्रमबद्ध और संयत शब्दशास्त्र सरणि कहा जाना चाहिए। लौकिक भाषा के साथ वैदिक भाषा की भी व्याकृति करके आचार्य ने सभी का मनोहरण कर लिया था, किन्तु जब यह भाषा जनसामान्य से बहुत दूर हो गई तो इसके स्थान पर विभिन्न उपभाषाकल्प सरल प्राकृत आदि का प्रयोग चल पड़ा और तब उस समय संस्कृत का उत्थान और पतन एक ही साथ हो गया, क्योंकि प्रायः विक्रम की प्रथम शताब्दी में सभी विद्वानों ने संस्कृत की उपेक्षा देखकर, उसकी संरक्षण हेतु अपने ग्रन्थों और उपदेशों को देव-भाषा संस्कृत के माध्यम से ही प्रवर्तित और गतिशील किया। शिष्ट-जन तो संस्कृत का अध्ययन कर रहे थे, जन सामान्य की भाषा से इसका प्रस्खलन हो ही गया। जो कुछ साधारण जन शिष्टों से प्रभावित होकर संस्कृत पढ़ना चाहते भी थे, वे संस्कृत ज्ञानार्थ किसी सरल सुबोध रीति को न पाकर पढ़ने से विरत हो जाया करते थे।
विविध शास्त्रों में कुशलता व बोध तथा उनके परिष्कार के लिए व्याकरण का ज्ञान साधन के रूप में ही अनिवार्य है, न कि साध्य के रूप में। अतः लोगों के लिए सरलता और आकर्षण से युक्त कोई नातिदीर्घ व्यावहारिक व्याकरण हो, ऐसा सोचकर लोकानुरूप जनता की आवश्यकता के अनुकूल शर्ववर्मा ने त्रिमुनि काल के बाद कातन्त्र व्याकरण की रचना की।
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