॥ परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी।।
॥ यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ।।
स्वयं में स्वयं ही "पर और अपर" की लीला करनेवाली तथा "पर और अपर" से "सदैव एवं सर्वथा" परे परमेश्वरी पराम्बा ही "परम सत्ता एवं परम शक्ति" का ऐक्य हैं, जिनसे परे कुछ है ही नहीं। उन्हें ही जगदम्बा, आदिशक्ति, पराम्बा, परमाम्बा, मातृतमा, महामाया, दुर्गा, परात्परा, त्रिपुरसुन्दरी, शिवशक्त्यभेदरूपा, ब्रह्मा-विष्णु-शिवात्मिका, सरस्वती-लक्ष्मी-गौरी-स्वरूपात्मिका, महाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वती-स्वरूपात्मिका, परब्रह्मस्वरूपिणी, प्रकृति-पुरुषात्मिका आदि असंख्य नामों से समझने और पुकारने का प्रयास होता आया है। भोग और मोक्ष को सहज ही उपलब्ध करानेवाली वे जगन्मयी जगदम्बा ही अचिन्त्य लीला करती हुई सभी जीवों में अलग-अलग स्ववैशिष्ट्य के साथ व्यक्त हैं।
माँ दुर्गा की अहैतुकी कृपा के बल से, उनके प्रति मेरा शिशुभाव बाल्यावस्था से ही अनगढ़ गद्य-पद्यों के रूप में, यदा-कदा व्यक्त होता रहा है; जिन्हें मेरी रचनाओं के रूप में समझा जा सकता है। उन सभी पद्यात्मक भावाभिव्यक्तियों का संग्रह ही "पराम्बा-पीयूष" नामक इस पुस्तक में प्रस्तुत है। उन रचनाओं में जो भी "सत्य-शिव-सुन्दर" व्यक्त हुआ है, वह सब जगदम्बा का ही है तथा शेष-सर्वस्व मेरी ही विकृतियाँ हैं। कतिपय भोजपुरी रचनाओं के अतिरिक्त सभी रचनाएँ हिन्दी में हैं। पुस्तक में रचनाओं को उनके आविर्भाव-काल के क्रम में अथवा किसी विशेष क्रम में नहीं रखा गया है।
माँ दुर्गा के प्रति, उपर्युक्त शिशुभावों के उद्गीर्ण होते समय - (प्रायः) उनके और मेरे अतिरिक्त कोई तीसरा नहीं रहा। कभी-कभी तो केवल वे ही रहीं और कभी-कभी शिशुभाव ही मातृभाव हो गया। स्पष्ट है कि उपर्युक्त प्रायः रचनाएँ - मेरे और जगदम्बा की अन्तरंगी हैं। उन्हें प्रकाशित कराने के बारे में सोचने पर, मुझे अदम्य संकोच और अपराध-बोध की अनुभूति होती थी। किन्तु मेरे स्वर्गीय पिता जी की सोच थी कि उन रचनाओं के प्रकाशन से, जगदम्बा के उपासकों को भाव-साधना में सहायता मिलेगी। वे प्रायः इस दिशा में, मुझे प्रेरित करते रहते थे।
पराम्बा के कई उपासकों की भी, ऐसी ही सदिच्छा थी। किन्तु मैं इसके लिए, सहमत नहीं हो पाया। कई वर्षों के बाद, यथासमय परम अद्वैत पराम्बा की कृपा हुई। उपर्युक्त संकोच और अपराध-बोध तिरोहित हो गए। तत्पश्चात् मैं सभी रचनाओं को प्रकाशित कराने के लिए, सहर्ष तैयार हो गया।
मैं कवि नहीं हूँ। पराम्बा से असम्बन्धित कोई भी कविता - मैं कभी भी नहीं लिख सका। मेरा जीवन काव्य, संगीत, गायन, कला आदि की रसात्मकता से दूर रहा है। मैं हिन्दी भाषा का विद्वान नहीं हूँ। मुझे काव्य, छन्द, स्वर आदि की जानकारी भी नहीं है। किन्तु माँ पराम्बा से सम्बद्ध मेरे शिशुभावों का उद्गार-बचपन से ही कविता के रूप में होता रहा है। यहाँ उल्लेखनीय है कि बचपन के भावोद्वारों को भी, बिना किसी संशोधन या परिवर्द्धन के, मूल रूप में ही "पराम्बा-पीयूष" में प्रकाशित कराया गया है। उनमें कहीं-कहीं बालहठ और बालस्वभाव अधिक मुखरित हो गया है। आशा है कि सुविज्ञ पाठकगण भाषा-छन्द-स्वर आदि से दीन-हीन शिशुभावोद्गारों की बाह्य कुरूपता पर ध्यान नहीं देंगे तथा इस पुस्तक में हुई त्रुटियों के लिए क्षमा करेंगे।
मेरा विश्वास है कि माँ पराम्बा से जुड़े हुए या उनसे जुड़ने की अभिलाषा रखने वाले सभी पाठकगण, इस पुस्तक से लाभान्वित हो सकेंगे तथा माँ पराम्बा के उपासकों-भक्तों-भावसाधकों को तो यह पुस्तक अवश्य ही प्रिय होगी। पराम्बा भगवती माँ दुर्गा से प्रार्थना है कि "पराम्बा-पीयूष" के भावपुष्पों से पाठकों के शिशुभाव माँ पराम्बा के प्रति उद्दीप्त हों तथा उन भावों से आनन्दमयी माँ बार बार आनन्दित होती रहें।
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