प्रस्तावना
चार दशकों के राजनयिक अनुभवों से गुजरने के उपरांत जब यह ज्ञात हुआ कि अब तक जिन मान्यताओं पर हम काम करते आए हैं, आज उन्हें सवालों के घेरे में खड़ा किया जा रहा है तो यह सत्य हमें विचलित कर गया। किंतु इसका अर्थ यह नहीं था कि हमारे सारे अनुभव अचानक अप्रासंगिक हो गए। इसके विपरीत ऐसा लगा था कि जिन लोगों ने पिछले कई दशकों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया है, वे भविष्य का पूर्वानुमान लगाने में अधिक सक्षम थे, हालाँकि तथ्यों के आधार पर सच तक पहुँच जाना आसान नहीं होता। यदि राजनीतिक शुद्धता का दबाव एक चुनौती है तो बढ़ती हुई रूढ़िगत मान्यताओं का बोझ भी कम नहीं। इसी के समकक्ष एक कठिनाई और है- वैश्विक संदर्भों की पर्याप्त समझ और साथ ही उसे देखने का एक विशुद्ध राष्ट्रवादी दृष्टिकोण। वैसे तो यह दुविधा स्वतंत्रता के बाद से ही लगातार बनी हुई है, किंतु राष्ट्रवाद के दौर ने इसकी गंभीरता और तेज कर दी है। ये वह कुछ मुद्दे हैं, जिन्होंने मुझे पिछले दो वर्षों से व्यस्त रखा है। कई मायने में यह स्वाभाविक था कि मैं उन विषयों पर कुछ लिखूँ, जिनके आसपास मेरा जीवन घूमता रहा है। एक अप्रकाशित पी-एच.डी. थीसिस और भारत-अमेरिका परमाणु संधि के आंतरिक इतिहास के समन्वित प्रभाव ने मेरे आत्मविश्वास को कुछ बल दिया। इस तरह वर्ष 2018 में विदेश सचिव के रूप में मेरे कार्यकाल के समाप्त होने के पश्चात् 'इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज, सिंगापुर' से फेलोशिप मिलते ही मैंने इसकी शुरुआत कर दी थी। तदुपरांत इसके रूप तथा विषय वस्तु में यदि कोई बदलाव आ भी रहे थे तो उसके मूल में तेजी से बदलते वैश्विक घटनाचक्रों का प्रभाव ही था। जीवन के किसी पड़ाव पर संस्मरण जैसा कुछ लिखने का व 30 तकसंभव हो अधिक से अधिक सार्थक तथा निष्पक्ष बताया जा सके। इन चार दशकों में विश्व को एक शिखर बिंदु से देखना सचमुच लाभदायक रहा। इस प्रकार, इसके जोखिमों तथा संभावनाओं को निष्पक्ष भाव से देखना संभव हो पाया। मास्को में मेरे राजनयिक जीवन के प्रारंभिक अनुभव ने 'पावर पॉलिटिक्स' के बहुमूल्य सूत्र समझाएं कुछ तो संभवतः अप्रायोजित थे। अमेरिका में मेरी चार कार्यावधियों के दौरान एक ऐसे राजतंत्र के प्रति रुचि जगी, जिसका आत्मविश्वास और लचीलापन अद्वितीय है। जापान का एक लंबा प्रवास, पूर्वी एशिया की सूक्ष्म विसंगतियों तथा हमारे उन पारस्परिक संबंधों के शोध में चीता, जिसकी संभावित क्षमताओं को हम अब तक पूरी तरह आँक नहीं पाए हैं। इसके साथ ही, सिंगापुर में बीता समय वैश्विक गतिविधियों के साथ तालमेल बैठाने के महत्व को समझाने वाला रहा। प्राग तथा बुडापेस्ट के कार्यकाल ने इतिहास की धाराओं के प्रति सजग तथा संवेदनशील रहने की प्रेरणा दी। एक रोचक एवं कठिन श्रीलंका दौरा बहुमूल्य राजनीतिक सैन्य अनुभव वाला रहा, परंतु अनुभव की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण कार्यकाल यदि कोई था तो वह चीन का कार्यकाल रहा, जब 2009 में उसमें आए ऐतिहासिक मोड़ से मैं जुड़ा। वहाँ एक राजदूत, तत्पश्चात् अमेरिका में राजदूत और विदेश सचिव के रूप में मैंने तत्कालीन वैश्विक परिवर्तनों को बहुत समीप से देखा, हालाँकि कई वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्यरत रहने के दौरान अपने स्वदेशी राजनीतिक नेतृत्व के साथ रहे मेरे तादात्म्य का अनुभव सर्वोपरि रहा- इसे शब्दों में व्यक्त करना कठिन है। रणनीतिक लक्ष्यों को परिभाषित करने का महत्व, सर्वोत्कृष्ट परिणामों की पहचान और राजनीति एवं नीति की पारस्परिक क्रियाओं का मूल्यांकन- इसकी श्रेष्ठ उपलब्धियाँ रहीं। विभिन्न घटनाक्रमों के समन्वय से, विगत दो वर्षों में यह पुस्तक लिखी जा सकी। 'थिंक टैंक', 'कॉन्फ्रेंस' अथवा 'बिजनेस फोरम' में दिए गए व्याख्यान इसके मूल अवयव हैं। व्यापक स्तर पर ये सभी प्रासंगिक हैं, किंतु आवश्यकतानुसार इनमें सामयिक संवर्धन किया गया है। 'अवध की सीख'- ऐसे कई अवसरों पर की गई मेरी टिप्पणियों का एक रचनात्मक रूप है। 'विचलन की कला'- 'ओस्लो एनर्जी फोरम', 'द रायसीना डायलॉग', 'द सर बानी यास फोरम' और 'सेंटर फॉर स्ट्रेटेजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज' में दिए गए मेरे व्याख्यानों का सार है। 'श्रीकृष्ण का विकल्प' -साईं फाउंडेशन, नई दिल्ली' में व्यक्त किए गए मेरे विचारों से संकलित किया गया है। दिल्ली की रूढ़िगत मान्यताएँ'- चतुर्थ रामनाथ गोयनका स्मारक व्याख्यान का एक
पुस्तक परिचय
विश्व व्यवस्था में जब भारत का उदय हो रहा है, तब न केवल इसे अपने हितों को स्पष्ट रूप से देखना चाहिए बल्कि उन्हें प्रभावी ढंग से दुनिया को बताना भी चाहिए। यह पुस्तक इस उद्देश्य को प्राप्त करने कीं दिशा में एक योगदान है, जो भारतीयों के बीच स्पष्ट बातचीत को बढ़ावा देता है और उस बातचीत को चुपके से सुनने से विश्व को रोकता भी नहीं है। भले ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों की बातें दूसरे देशों से संबंधित होती हैं, लेकिन इसके परिणामों का महत्त्व न तो इसकी अनभिज्ञता और न ही इसके प्रति उदासीनता से कम होता है। इसलिए इससे पहले कि घटनाएँ हमारे सामने आकर खड़ी हो जाएँ, बेहतर होगा कि हम उनका अनुमान पहले लगा लें और पहले ही उनका विश्लेषण कर लें।
लेखक परिचय
डॉ. सुब्रह्मण्यम जयशंकर वर्तमान में भारत के विदेश मंत्री हैं। एक पेशेवर राजनयिक के रूप में वर्ष 2015 से 2018 तक विदेश सचिव, वर्ष 2013 से 2015 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में राजदूत, वर्ष 2009 से 2013 तक चीन में राजदूत, वर्ष 2007 से 2009 तक सिंगापुर में उच्चायुक्त और वर्ष 2000 से 2004 तक चेक गणराज्य में भारतीय राजदूत के रूप में वे अपनी सेवाएँ दे चुके हैं। उनके अन्य राजनयिक दाथि में मॉस्को, कोलंबो, बुडापेस्ट, टोक्यो एवं वॉशि डी.सी. के अनुभव शामिल हैं। वे विदेश मंत्राल अमेरिकी प्रभाग के प्रमुख, पूर्वी यूरोप प्रभाग के देशक और भारत के राष्ट्रपति के प्रेस सचिव भी रहे हैं। अपने राजनयिक कॅरियर के उपरांत वे टाटा संस प्राइवेट लिमिटेड में प्रेसिडेंट (ग्लोबल कॉरपोरेट अफेयर्स) भी रहे। वर्ष 2019 में उन्हें 'पद्मश्री' सम्मान से भी अलंकृत किया जा चुका है।
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