योग विद्या पर प्रकाश डालने से पहले इस विद्या के विषय में जानना आवश्यक है। क्योंकि जैसे तुलसी ने रामायण में कहा है "बिन जाने न होय प्रतीति बिन प्रतीति होय न प्रीति।" अर्थात् बिना किसी के बारे में जाने उससे प्रेम दृढ़ नहीं होता।
पूर्ण योग विद्या पूर्ण परमेश्वर से प्रकाशित वेद से निकली। वेद ज्ञान को कहते हैं। वेद पुस्तक नहीं है, न ही किसी ने लिखी है। यह ईश्वरीय ज्ञान सृष्टि के आदि में चार ऋषियों को परमेश्वर की कृपा से हृदय में प्रकट हुआ था। तत्पश्चात् यह ज्ञान कन्ठाय (मुंह जबानी) गुरु परम्परागत याद किया गया, बाद में द्वापर युग में व्यास मुनि ने वेदों के इस अनन्त ज्ञान को भोजपत्र पर लिपिबद्ध किया। यजुर्वेद के मन्त्र में कहा है-
उस परमात्मा से ऋग्वेद, यजु, साम तथा अथर्ववेद निकले। परमेश्वर पूर्ण है, सत्य है, उससे ही यह पूर्ण योग विद्या का ज्ञान निकला। अतः जब हम किसी भी सत्य विद्या की बात करेंगे तो यह सुनिश्चित है कि वह विद्या वेदों से निकली। जैसे परमेश्वर अनादि है, वैसे ही योग विद्या भी अनादि है। वेद के शब्द यौगिक हैं, अलौकिक हैं। इसीलिए वेद के मन्त्रों को शब्द बहह्म भी कहा जाता है। यह शब्द रूढ़ या सांसारिक नहीं है। वेद योग से व योग वेद से जुड़ा है। विद् धातु से वेद शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ ज्ञान है।
जड़ चेतन का ज्ञान ही ज्ञान है। जड़ प्रकृति से बना शरीर है एवं सर्व जगत है। चेतन जीव एवं ब्रह्म है। योग विद्या द्वारा इन्हीं का ज्ञान होता है। अतः ज्ञान वेद है, वेद योग है, योग ही ज्ञान है। यह अलग - अलग नहीं किये जा सकते। जैसे सूर्य के प्रकाश द्वारा हम आंखों से पदार्थ वस्तु इत्यादि देखते हैं, वैसे ही योग विद्या पाकर योगाभ्यास (योग के आठ अंग हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि)। (मघवन्) हे जीव तू (सोमम्) योग सिद्धि की (पाहि) रक्षा कर (उरुष्य) योगाभ्यास द्वारा (रायः) योग रूपी धन और (इषः) इच्छाओं को (आ यज्ञस्व) सिद्ध कर। इस मन्त्र में परमेश्वर उपदेश करता है कि योग के जिज्ञासु यम आदि योग विद्या से अविद्या को दूर करें और (रायः) योग की सिद्धियों को प्राप्त करें। अतः योग विद्या वेद अनूकूल ही प्राप्त करनी चाहिए।
हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता (याज्ञ० स्मृ०) हिरण्यगर्भः (जिसकी सामर्थ्य में सब कुछ है) याज्ञवल्क ऋषि ने कहा है कि परमेश्वर (योगस्य) योग विद्या का (वक्ता) दाता है, वक्ता है। महाभारत में भी व्यास मुनि ने ऐसा ही कहा है। यजुर्वेद में ही एक शब्द (आपा अन्तर्यामे) आया है।
अर्थात् अन्दर के यम आदि योग साधन से (मादयस्व) दूसरों को भी हर्षित करो। यहां लेख बड़ा न हो जाए तो ज्यादा प्रमाण नहीं दे रहे, लेकिन प्रत्येक वेद में योग विद्या का ज्ञान दिया गया है। गीता, उपनिषद, रामायण, शास्त्रों एवं अन्य ग्रन्थों में भी योग विद्या वर्णित है।
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