यह अतीव हर्ष व प्रसत्रता का विषय है कि इतिहास दर्शन का 12वां संस्करण आपके हाथों में है। वस्तुतः कोई भी श्रमसाध्य कृति कामिल (पूर्ण) नहीं होती। उसमें संशोधन-संवर्द्धन की असीम संभावना बनी रहती है। सन् 1985 ई. में जब इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था, इसमें महज 130 पृष्ठ थे। इतिहास दर्शन विषयक तथ्यों का सारगर्भित संक्षिप्त विवरण तो अवश्य था, किन्तु संतोषजनक व्याख्यात्मक विवेचन का सर्वदा अभाव था। प्रस्तुत संस्करण में न केवल इस दोष को दूर किया गया है, अपितु कुछ नए अध्याय भी शामिल किए गए हैं।
इतिहास दर्शन दो भागों में विभाजित है। प्रथम खंड में इतिहास दर्शन और दूसरे खंड में राजनीतिक चिंतन है। इतिहास दर्शन में कुल 9 अध्याय हैं। प्रथम प्रकरण में 'इतिहास के आयाम' के अंतर्गत इतिहास की परिभाषा, क्षेत्र, प्रकृति, उपयोगिता, इतिहासवाद, कारणत्व सिद्धांत, पूर्वाग्रह इत्यादि विषयों का विवेचन विश्लेषण है। द्वितीय अध्याय में 'शोध प्रणाली तथा इतिहास लेखन की विधियों का विवेचन है। अध्येता व इतिहासकार से यह अपेक्षा की गयी है कि वे इन रूढ़ विधियों का अनुपालन अवश्य करें। उन्हें इनसे विचलन की इजाजत नहीं है। जैसे, मनुस्मृति में शूद्रों को वेद पढ़ने की इजाजत नहीं है। तृतीय अध्याय 'पश्चिम में इतिहास लेखन का विकास' है। इसमें इतिहास लेखन के उद्भव व विकास को रेखांकित किया गया है। चतुर्व अध्याय में 'प्राचीन भारत में इतिहास लेखन' पर प्रकाश डाला गया है।
पंचम अध्याय 'मध्यकालीन भारत में इतिहास लेखन' में अल्बेरुनी से लेकर अबुल फजल तक के प्रमुख मध्यकालीन भारतीय इतिहासकारों की कृतियों का उल्लेख है। षष्ठम अध्याय 'इतिहास लेखन के इतिहास' का विवेचन है। इसमें मुख्य रूप से चीन, अरब, अमरीका, रूस आदि देशों के प्रमुख इतिहासकारों का इतिहास लेखन के प्रति अवदानों का विवेचन है। सप्तम अध्याय 'प्रमुख इतिहासकार' है जिसमें पश्चिमी पूर्वी प्रमुख इतिहासकारों की कृतियों का मूल्यांकन किया गया है। अष्टम् अध्याय 'इतिहास दर्शन' है। इसमें इतिहास दर्शन का अर्थ, उद्भव और विकास के इतिहास को रेखांकित किया गया है। नवम अध्याय 'ऐतिहासिक संस्मरण' है। इसमें यत्र-तत्र महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों को माला की तरह पिरोया गया है। साथ ही, लेखक के बेबाक, बेलौस व बेखौफ विचाराभिव्यक्तियाँ भी हैं।
पुस्तक के दूसरे खंड में राजनीतिक चिंतन है। इसमें विश्व के प्रमुख राजनीतिक चिंतकों के चितन-दर्शन का विवेचन-विश्लेषण किया गया है। प्रख्यात् यूनानी दार्शनिक प्लेटो को लोकतंत्र से घोर घृणा थी तथा उसने एक 'दार्शनिक राजा' का सुझाव दिया था। इसी तरह प्रख्यात यूनानी राजनीतिक दार्शनिक अरस्तू ने क्रांति के कारणों का जो विवेचन-विश्लेषण किया, यह आज भी प्रासंगिक है। भारतीय मनीषी कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राज्य के सप्तांगसिद्धांत, मंडल सिद्धांत, वर्ण व्यवस्था, राज्य के अधिकार व कर्तव्य का जो चित्रण किया है, यह बेमिसाल है। राज्य के धर्मनिरपेक्ष व कल्याणकारी स्वरूप का ऐसा चित्रण अन्यत्र नहीं मिलता। मैकियावेली ने राजनीति में 'छल-बल' के प्रयोग को निहायत जरूरी बतलाया। उसके अनुसार 'इश्क व सियासत में सब कुछ जायज है।' आज भी उसके दर्शन की प्रासंगिकता है तथा राजनेता निस्संकोच सभी तरह के हथकंडे अपनाकर अपना लक्ष्य हासिल करते हैं। साधन और साध्य साथ-साथ चलते हैं। धर्म व नैतिकता अर्थहीन तथा जीवन मूल्यों की बात करना बेईमानी माना जाता है। हॉब्स, लॉक और रूसो ने सामाजिक संविदा का सिद्धांत प्रतिपादित कर राज्य की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला। बेदम और मिल ने उपयोगितावाद का दर्शन दिया। हीगेल ने राज्य को ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति कहा। कार्ल मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के संदर्भ में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को महिमामंडित किया। नरेन्द्र देव, लोहिया, जवाहरलाल और जय प्रकाश के राजनीतिक चिंतन समाजवाद के इर्द-गिर्द भटकते रहे। उनके चिंतन में अंतर्विरोध और अस्पष्टता है, क्योंकि वे मार्क्स लेनिन के मूल विचारों से सहमत हैं किंतु रक्त-रजित क्रांति से डरते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि ""सत्ता बंदूक की नली से नहीं बंद मतदान पेटी से निकलती है।"" वे महात्मा गांधी को अपना 'गुरु' मानते हैं तथा सत्याग्रह पर विश्वास करते हैं।
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