रमणीय उपमाओं के लिए प्रसिद्ध एवं कविकुलगुरु की उपाधि से विभूषित महाकवि कालिदास न केवल संस्कृत-साहित्य में अपितु विश्व-साहित्य में अप्रतिम हैं। महाकवि के महाकाव्य और नाटक नवीनता, सरसता, मौलिकता एवं हृदयग्राहिता के कारण साहित्यजगत् में अपना अनन्यतम स्थान रखते हैं। यह महाकवि का वैशिष्ट्य ही है कि इनकी रचनाएँ जहाँ एक ओर मानव मन की अतल गहराईयों का स्पर्श करती हैं, वहीं दूसरी ओर इनकी विलक्षण कल्पना शक्ति का भी प्रत्यक्षीकरण कराती हैं। महाकवि की सात रचनायें हैं। लघुत्रयी के अन्तर्गत परिगणित रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् तथा मेघदूतम्, स्फुट काव्य के रूप में प्रसिद्ध ऋतुसंहारम् एवं संस्कृत के नाटकों में विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त नाटक-त्रय अभिज्ञानशाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम्, मालविकाग्निमित्रम् हैं। महाकवि ने रामायण, महाभारत, पुराणादि के विभिन्न विषयों को आधार बनाते हुए उसमें अपनी कल्पना-प्रसूत नानाविध भावनाओं को भी अभिव्यक्ति प्रदान की है। कालिदास की रचनाओं के विविध पक्षों पर समीक्षात्मक अध्ययन किया गया है तथापि कतिपय पक्ष अभी भी शेष हैं, जो समीक्षा एवं अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, इनमें एक अन्यतम पक्ष है-कविसमय।
संस्कृत-साहित्य के कतिपय स्थल, जहाँ विशेष चमत्कारोत्पादन की दृष्टि से ऐसे कल्पना-तत्त्वों का समावेश किया जाता है, जो लौकिकजगत् में असत्य होते हुए भी कवि-कल्पना-प्रसूत सृष्टि में कवियों द्वारा बहुशः प्रयुक्त हुआ करते हैं, इन्हें ही कवि-प्रसिद्धि अथवा कविसमय के अभिधान से साहित्य जगत् में प्रतिष्ठा प्राप्त है। यथा नायक-नायिका के विरह-वर्णन को उद्दीप्त करने की दृष्टि से चक्रवाक-मिथुन के रात्रि-वियोग का वर्णन और उनके संयोग के प्रदर्शनार्थ चक्रवाक युगल के प्रातः संयोग का वर्णन करना, चन्दन-वृक्ष की श्रेष्ठोत्पादकता के लिये उसे सर्पवेष्टित बताना, चातक (पपीहे) का मेघ-प्रेम, वर्षाकाल में हंसों का मानसरोवर प्रस्थान, मूर्त एवं अमूर्त रूप में कामदेव का वर्णन, कामदेव के धनुष-बाण का पुष्पमय होना, अमूर्त क्रोध एवं अनुराग को रक्त कहना तथा अमूर्त यश एवं हास की शुक्लता का वर्णन इत्यादि। वस्तुतः लौकिक-जगत् ही कवि की सृष्टि का मुख्य उपजीव्य होता है। इस लौकिक जगत् की ही अनेकानेक घटनाओं को रमणीय बनाने हेतु कविगण उसमें कल्पनातत्त्वों का समावेश करते हैं। काव्य को हृदयङ्गम बनाने वाले तत्त्वों में कल्पनातत्त्वों का महत्त्व सर्वजनविदित ही है। उपर्युक्त कवि-प्रसिद्धियों का प्रयोग प्रायः - सभी श्रेष्ठ सुकवियों के द्वारा किया गया है। इसी कारण कवि की लेखनी से निस्सृत काव्य-जगत् को चराचर जगत् की रचना करने वाले चतुर्मुख ब्रह्मा की सृष्टि से श्रेष्ठ कहा गया है। वह नानाविध सौन्दर्याधायक तत्त्वों को धारण करने वाली, नियतिकृतनियमरहिता, नवरसरुचिरा एवं आनन्दैकमयी होती है।
संस्कृत-वाड्मय के प्रमुख ग्रन्थों, रूपकों, महाकाव्यों, कथाओं, गीतिकाव्यों इत्यादि का विवेचन किया जाय तो यह बात स्वतः ही स्पष्ट हो जाती है कि प्रायः सभी महाकवियों ने न्यूनाधिक रूप से इन कवि-प्रसिद्धियों का प्रयोग किया है। इस दृष्टि से कवि-प्रसिद्धि के रमणीय स्थलों के संचयन हेतु मैंने कविकुलगुरु कालिदास विरचित रघुवंशम्, कुमारसम्भवम् एवं मेघदूतम्, ऋतुसंहारम् तथा इनके नाटकत्रय अभिज्ञानशाकुन्तलम्, विक्रमोर्वशीयम् एवं मालविकाग्निमित्रम् के अध्ययन का निश्चय किया।
यह भगवती की असीम अनुकम्पा ही है कि मुझे महाकवि कालिदास की कृतियों पर इस नवीन एवं मौलिक विषयवस्तु पर पुस्तक लिखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर परीक्षा संस्कृत (साहित्य) विषय से उत्तीर्ण करने के पश्चात् मैं शोधकार्य में प्रवृत्त हुई। शोध सामग्री का अवलोकन करते समय ही मेरी दृष्टि कालिदास की कृतियों पर गयी, जिन कृतियों में कवि-प्रसिद्धि जैसे नवीन एवं रोचक विषय का चयन करके इसे पुस्तक का आकार देने हेतु मेरा मस्तिष्क उद्वेलित हो उठा। यूँ तो संस्कृत-साहित्य की ओर मेरा आकर्षण पहले से ही था परन्तु कवि-प्रसिद्धि जैसे नूतन विचार को अध्ययन का विषय बनाकर अनुसंधान करने की प्रेरणा मुझे मेरी शोध-निर्देशिका प्रो. मनुलता शर्मा जी (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) से प्राप्त हुई। इन्हीं के सौहार्दपूर्ण निर्देशन ने मुझे विषय का अवगाहन करने हेतु एक अनुसंधित्सु की भाँति अन्तर्दृष्टि प्रदान की, जिसके फलस्वरूप मैं इस पुस्तक को मूर्त रूप देने में समर्थ हुई। अत एव मैं यहाँ सर्वप्रथम भगवान् विश्वनाथ के चरणारविन्दों में प्रणमन समर्पित करने के पश्चात् प्रातःस्मरणीया प्रो. मनुलता शर्मा जी के प्रति नतेन शिरसा आभार व्यक्त करना चाहूँगी। यहाँ प्रो. युगल किशोर मिश्र, प्रो. श्री किशोर मिश्र एवं प्रो. गोपबन्धु मिश्र गुरुजनों का आशीर्वाद मेरे इस कार्य में मेरा सम्बल बना। पारिवारिक सदस्यों में पिता प्रो. गिरिजेश कुमार दीक्षित जी ने अपनी सूक्ष्म व्याकरणिक दृष्टि से ग्रन्थ को पुनीत किया। माता श्रीमती भानु दीक्षित के चरण कमलों में अपना प्रणाम समर्पित करती हूँ।
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