'उत्तर-संस्कृति' उपभोक्ता-संस्कृति की अपर संज्ञा है। मनुष्य का मन माने, न माने पर सच यही है कि वह बाजार में खड़ा है। मानने, न मानने की स्थिति इसलिए है क्योंकि उसे बाजार में होने का भान नहीं है। संस्कृति के पण्यीकरण की प्रक्रिया ऐसी है कि वह जान नहीं पाता कि कब बाजार में आ गया, कब उसका पुराना मकान जल गया, कब उसने अपना घर फूंक दिया। वह सोच नहीं पाता कि स्वयं मस्तिष्करहित है और एक बाहरी-मस्तिष्क से संचालित है। यह संस्कृति रोज बन रही नयी दुनिया की संस्कृति है जिसमें वह प्रवाह का निरन्तर अनुभव करता है। उसके सामने दृश्य आते हैं, जाते हैं। यह उत्तर-संस्कृति एक वास्तविकता भी है और छल भी। उसमें ये दोनों गुण साथ-साथ हैं। जैसे भौतिकी में, क्वांटम एक ही क्षण में कण भी है और तरंग भी। सांस्कृतिक अध्ययनों की श्रृंखला में 'उत्तर-संस्कृति' का अध्याय नव्यतम है। संस्कृतिविदों ने इस अध्याय को एक जरूरी विमर्श का रूप दे दिया है। यह विमर्श आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता के क्रम में पढ़ा गया है और इसे उत्तर-आधुनिक परियोजना का प्रारूप माना गया है।
उत्तर-संस्कृति वस्तुओं की बहुआयामिता की संस्कृति है। इस बहुआयामिता में वह सब कुछ समेटती है, बहुत कुछ गड्डमगड्डु करती है। वह स्थापित मूल्यों को मिटाती है, अस्मिताओं को उकसाती है और आधुनिकता को चुनौती देती है। दलित, स्त्री और न्याय के केन्द्र इसी चुनौती के परिणाम माने जा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दलित-विमर्श वस्तुतः उत्तर-सांस्कृतिक विमर्श है जिसमें दलित-अस्मिता का प्रश्न अहम है। इससे दलित-केन्द्र की निर्मिति हुई है। वैसे तो यह विचित्र जान पड़ता है, किन्तु यथार्थ यही है कि उत्तर-संस्कृति आर्थिक-संरचना में उपभोक्तावादी है तो सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में अस्मितावादी। इसने आदिवासी-अस्मिताओं की फिक्र की है, क्षेत्रीयताओं को उभारा है और स्थानीयतावाद (स्थानीयता नहीं) को पनपने की जमीन तैयार की है। यह संस्कृति विखंडनवादी है।
हिन्दी में दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श आज के केन्द्रीय-विमर्श हैं। दलित-विमर्श की आधार भूमिका अम्बेदकर-विचार से निर्मित है। प्रस्तुत पुस्तक में हमने अम्बेदकर-विचार को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। हिन्दी का दलित-साहित्य इसी विचार का पल्लवन है। इसका उद्भव और विकास सन् 1960 से आज तक के चालीस-पैंतालीस वर्षों में हुआ है। अपने विकास के अन्तिम वर्षों में इसका स्वर प्रखर होकर उभरा है और सुना गया है। इसकी वजह यह है कि दलित-केन्द्र के सापेक्ष संस्कृतियों का इसने जैसा पुनर्पाठ तैयार किया है उससे हलचल मच गयी है। द्विज-संस्कृति का हिंसक और क्रूर पक्ष उभरकर सामने आया है। सांस्कृतिक कहे जाने वाले मूल्यों की पुनर्व्याख्याओं ने सिद्ध कर दिया है कि ये मूल्य शोषण के औजार थे और द्विजों को शूद्रों पर शासन का अधिकार देते थे। दलित-विमर्श और दलित-साहित्य दोनों बातों का इस पुस्तक में परिचय दिया गया है। परिचय देते हुए हमने कोशिश की है कि यह प्रामाणिक हो और दोनों को स्पष्ट रूप से समझा जा सके।
दलित-स्त्री एक स्वतंत्र प्रश्न है। दलित-विमर्शकारों में इस प्रश्न को लेकर घमासान मचा हुआ है। डॉ० धर्मवीर एण्ड कम्पनी बनाम अन्य दलित चिन्तकों की बहस में स्त्री-स्वतंत्रता एक मुद्दा है। दलित-स्त्री के दोहरे संघर्ष को रेखांकित करते हुए हमने दलित महिला-लेखन का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। यहाँ दलित-केन्द्र के साथ स्त्री-केन्द्र भी उपस्थित है। स्त्री-स्वर हाशिये का स्वर है। इस स्वर को केन्द्र में रखने पर दलित समाज का मर्दवादी चेहरा सामने उभरा है और यह समाज भी दूसरे समाजों की तरह दिखाई पड़ने लगा है। कबीर का दलितवादी अध्ययन करके चर्चा में आये डॉ० धर्मवीर आज स्वातंत्र्य के विरोध में खड़े हैं और इसके लिए उनके पास पूरे तर्क हैं। हमने दलित-स्त्री के पूरे संघर्ष की एक तस्वीर खींचने की कोशिश की है और साहित्य-जगत की भी सच्चाइयों को सामने रखा है।
यह पुस्तक उत्तर-संस्कृति और दलित विमर्श के संदर्भ में निराला को पढ़ने की चेष्टा का प्रतिफल है। इसमें निराला की व्यापक दलित चेतना और उनकी सामाजिक संवेदना को अध्ययन का आधार बनाया गया है। यह तय है कि निराला ने अपने समय को खूब पढ़ा था। उनका साहित्य अनेक काव्य-प्रवृत्तियों का स्स्राोत है और जो काव्य-प्रवृत्तियाँ आगे आने वाले समय में दिखाई पड़ेंगी उनका बीज भी यहाँ मौजूद मिलेगा। निराला की दृष्टि वर्ण, धर्म, विज्ञान, समाज सब पर गयी। उन्होंने वर्ण-संरचना और धर्म के स्वरूप पर विचार किया। विज्ञान के विज्ञ आधुनिक कोड़े को वे वियतनाम की पीठ पर पड़ते हुए गिन रहे थे। नागासाकी का संहार इस कोड़े की ही देन था। इसके बावजूद उन्होंने विज्ञान का विरोध नहीं किया। उन्होंने प्रौद्योगिकी के पूँजीवादी चरित्र की ओर इशारा किया और उसकी संहारक भूमिका के विरोध करने की बात की। वे वैचारिक स्तर पर निरन्तर विकास करते गये और अन्त में प्रगतिशीलता को विश्व-सर्वहारा के पक्ष में जरूरी माना। उनका दलित-चिन्तन इसी दृष्टि का फल है। उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि में नवजागरण और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन की बड़ी भूमिका है।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist