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भारतीय दर्शन में प्राप्यकारित्ववाद संज्ञान-प्रक्रिया में इन्द्रियों की प्रस्थिति एवं भूमिका: Prapyakaritvavada in Indian Philosophy Status and Role of Senses in the Cognition Process

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Specifications
Publisher: Vishwavidyalaya Prakashan, Sagar
Author Ambika Dutt Sharma
Language: Hindi and Sanskrit
Pages: 240
Cover: HARDCOVER
8.5x5.5 inch
Weight 400 gm
Edition: 2006
ISBN: 8188289167
HBV339
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Book Description
प्रस्तावना

"भारतीय दर्शन में प्राप्यकारित्ववाद" नामधेय इस कृति का आयोजन, सम्पादन एवं यथासम्भव लेखन के उपरान्त आज इसे विज्ञापित करते हुए मुझे अतीव हर्ष हो रहा है। यह विषय भी, वास्तव में, ऐसा है जिसे हम परम्परा प्राप्त अपनी अकादमिक अभिरूचि से अंतरंग पाते हैं। 'पराञ्चिखानि व्यतृणत्स्वयम्भू...' इस श्रुति में इन्द्रियों की महत्ता लोक-प्रवृत्ति और लोक-उपरति दोनों ही दृष्टियों से प्रतिपादित हुई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्द्रियों की प्रस्थिति एवं भूमिका को संज्ञानात्मक दृष्टि से उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। इस दृष्टि से भी संज्ञान-प्रक्रिया में इन्द्रियों के प्राप्याप्राप्य-प्रकाशकारित्व विषयक विचार को भारतीय प्रमाणशास्त्र का एक 'उपजीव्य प्रकरण' कहा जा सकता है। द्रष्टव्य है कि प्रत्यक्ष के लिए एक ओर जहाँ उसका इन्द्रियवेद्य होना आवश्यक है वहीं दूसरी ओर प्रत्यक्षपूर्वक ही सभी परोक्ष प्रमाणों का अवतरण हो पाता है। यहाँ तक कि पौरुषेय मूल के शब्द प्रमाण भी आप्तप्रत्यक्ष के परार्थ रूप ही कहे जा सकते हैं।

प्रायशः भारतीय दर्शन के प्रमुख सभी सम्प्रदायों के आकर ग्रन्थों में इस प्रकरण से सम्बन्धित मूलभूत विचार बीज रूप में यत्र-तत्र बिखरे हुए मिलते हैं। यदि किसी सन्दर्भ-विशेष में प्राप्यकारित्व अथवा अप्राप्यकारित्व का विचार प्रगत् रूप में उपलब्ध भी होता है तो उसे अकस्मात् और मध्यपाती चिन्तन ही समझना चाहिए । वास्तविकता यह है कि अपनी सम्पूर्ण निष्पत्तियों के साथ यह प्रकरण अवधारणीकृत नहीं होने के कारण प्रमाणमीमांसीय चर्चाओं में सम्प्रति अप्रचलित सा हो गया है। भारतीय दर्शन के अध्ययन में उसके मूल स्रोतों से दुरावगति के चलते ऐसे विचार और भी अनवधानता के ग्रास बनते जा रहे हैं। जबकि भारतीय दर्शन में समानान्तर रूप से विकसित वैकल्पिक दृष्टिकोणों को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक उन्हें सूत्र, भाष्य एवं वार्त्तिक तथा प्रकराणादि ग्रन्थों में संवर्धित होते हुए न देखा जाय । भारतीय परम्परा की यह एक अत्युच्च विशेषता है कि इसने सत्य को जानने के सहस्रों द्वारों को खुला रखा है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इस उदारता का, विकास के स्वारूढ़ प्रारूप में, वाहक बनें।

मानवीय संज्ञान-प्रक्रिया में प्रत्यक्ष का महत्त्व सर्वातिशायी है। एक ओर यह लोकव्यवस्था एवं लोकप्रतीति से जुड़ा रहता है तो दूसरी ओर मनुष्य की तात्त्विक अभिप्साओं का ज्ञानमीमांसीय सन्दर्भ बनता है। यदि प्रत्यक्ष को इस प्रकार से 'अधो-ऊर्ध्वाधर' छोरों वाला न माना जाय तो मनुष्य के मूल्यात्मक अभिनिवेश की कोई ज्ञानमीमांसा नहीं हो सकती। इसीलिए भारतीय प्रमाणमीमांसीय चिन्तन में प्रत्यक्ष को उपजीव्य होने का गौरव प्रदान किया गया है। परन्तु प्रत्यक्ष के प्रति इन्द्रियों की प्राप्यप्रकाशकारी एवं अप्राप्यप्रकाशकारी भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण और निर्धारणात्मक है कि इसे प्रत्यक्ष की उपजीव्यता का भी उपजीव्य कहा जा सकता है। यद्यपि भारतीय दर्शनों की तंत्रकेन्द्रित प्रमाणमीमांसा में किन्हीं कारणों से प्राप्यकारित्ववाद के सभी गुण-सूत्रों का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आधुनिक अवधारण में भी इसे भूला ही दिया जाये। द्रष्टव्य है कि प्रो. विमलकृष्ण मतिलाल की कृति 'परसेप्शन' जो भारतीय प्रमाणशास्त्र को वैश्वीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने वाला तुलनात्मक प्रमाणमीमांसा का एक उत्कृष्ट प्रबन्ध है, उसमें प्राप्यकारित्व, अप्राप्यकारित्व जैसे शब्द उल्लेखित होने से भी वंचित रहे हैं। ऐसे ही शंकर मठ, बंगलोर के शंकराचार्य द्वारा १९८५ ई. में "सेन्स परसेप्शन : सायन्स एण्ड शास्त्राज" विषय पर एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई थी जिसमें पारम्परिक आचार्यों सहित कुछेक मनोविज्ञान एवं भौतिक विज्ञान के वरिष्ठ अध्येताओं ने भी भाग लिया था। शारदा ट्रस्ट, श्री शारदापीठम्, शृंगेरी से प्रकाशित उस संगोष्ठी की पुस्तकाकार प्रोसिडिंग में भी लेश्यतोऽपि इन्द्रियों की प्राप्याप्राप्यप्रकाशकारिता की चर्चा नहीं हुई है जबकि इसके लिए वह एक सुन्दर अवसर था ।

भारतीय दर्शन के नाम पर हो रहे आधुनिक अध्ययनों एवं चर्चाओं में ऐसे बहुतेरे मूलभूत विचारों की अनदेखी को देखकर किसे क्षोभ नहीं होगा। यह बात अलग है कि इस प्रकार का क्षोभ किसके द्वारा, किस रूप में और कैसे रचनात्मक परिणति को प्राप्त होता है। हम इस प्रकरण को यथासम्भव संयोजित कर पाये, इसका सम्पूर्ण श्रेय पूज्यपाद स्वामी योगिन्द्रानन्द जी को जाता है, जिनके सान्निध्य में मुझे ऐसे विषयों में उपनीत होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अन्यथा इस कार्ययोजना में हम अपने सम्मानित सहयोगियों के वैदुष्य का न तो सदुपयोग कर पाते और न हि प्रस्तुत सामग्री को इस रूप में सम्पादित कर पाना सम्भव हो पाता । वास्तव में सबसे बड़ी कठिनाई थी विवेचनागत आक्षिप्त पुनरावृत्तियों को न्यूनतम करते हुए विचार को उसके पक्ष-विपक्ष सहित उचित दिशा में अग्रसारित करना। आलेखों के शीर्षक निर्धारण से लेकर व्याख्यागत अपेक्षित परिमार्जन करते हुए हमने सम्पूर्ण सामग्री को एक प्रकरणात्मक प्रबन्ध के रूप में विकसित करने का भरसक प्रयास किया है।

इसमें त्रुटियों की सम्भावना को एकबारगी नकारा तो नहीं जा सकता लेकिन सुधार की सम्भावनायें भी कभी समाप्त नहीं होती।

मेरे द्वारा इस कार्ययोजना की अवचेतन शुरुआत तब से मानी जा सकती है जब अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के ४९ वें अधिवेशन (श्रीनगर, गढ़वाल-२००३) में 'इन्द्रियप्राप्यकारित्वाप्राप्यकारित्ववाद' विषय पर एक सिम्पोजियम का आयोजन किया गया था। उस सिम्पोजियम में प्रकृत विचार के विलोपन जैसी स्थिति को देखकर मुझे अन्दर से बड़ी प्रेरणा हुई और तभी से हम इस कार्य में आत्मचेतन रूप से प्रवृत्त हुए। डॉ. रजनीश शुक्ल एवं डॉ. आनन्द मिश्र, जो अब तक के मेरे अकादमिक जीवन के अनन्य सहयोगी रहे हैं, दोनों ने इस कार्य की सम्पूर्ति में उपष्टम्भक की भूमिका निभाई है।

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