शब्द और स्वर की समवेत परंपरा के अप्रतिम साक्ष्य :
अनादि काल से काव्य और संगीत में घनिष्ठ संबंध चला आ रहा है। वैदिक युग में शब्द स्वर-युक्त और स्वर शब्द-युक्त होते थे। काव्य और संगीत का यह अविच्छन्न संबंध हमारे देश में शताब्दियों तक चलता रहा। गुप्त काल इसका ऐश्वर्यकाल था। राजपूत काल में भी काव्य और संगीत की जुगलबंदी चलती रही। गीत, प्रबंध, पद, ध्रुवपद आदि का प्रचलन इसका प्रमाण है। वाग्गेयकार काव्य रचते थे और फिर उसे स्वयं ही रागों और तालों में निबद्ध करके गाते थे ।
काव्य और संगीत का यह अभिन्न संबंध ईसा की दसवीं शताब्दी तक बना रहा। उसके पश्चात् वह शनैः शनैः क्षीण होने लगा। जयदेव, विद्यापति, चंडीदास और तुलसीदास, सूरदास, मीरां आदि इस लुप्त होती परंपरा के अंतिम प्रतिनिधि हैं।
यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि वाग्गेयकारों की यह प्रशस्त परंपरा भक्तिकाल के पर्यवसान के साथ लुप्त कैसे हो गई? इसके लिए भी वे ही राजनैतिक परिस्थितियाँ जिम्मेदार हैं जो हिन्दी साहित्य के स्वर्णकाल की समाप्ति के लिए उत्तरदायी हैं। देश के पराधीन हो जाने और मुसलमानी शासन के स्थापित हो जाने से भारतीय संस्कृति, कला और साहित्य को जो आघात लगा, यह उसी का दुष्परिणाम है। मुसलमान शासकों को हमारा संगीत तो पसंद आया किन्तु गीत, प्रबंध, पद, ध्रुवपद आदि में जो भक्ति-भावना युक्त कविता थी, यह उन्हें रास नहीं आई । मुसलमान शासकों ने हमारे राग, ताल को तो स्वीकार किया किन्तु उनमें निबद्ध भक्तिभावना युक्त कविता को उन्होंने आग्रहपूर्वक निकाल बाहर किया। परिणाम स्वरूप काव्य और संगीत का दीर्घव्यापी पारस्परिक संबंध टूट गया। संगीत में काव्य-विहीन ख्याल, तथा तराना आदि का प्रचलन और काव्य में संगीत विहीन छंदों की क्षिप्रता इसी प्रवृत्ति का परिणाम है।
आधुनिक काल में भारतेन्दु युग में एकबार फिर इन दोनों कलाओं में पारस्परिक संबंध स्थापित करने का प्रयास किया गया। खड़ी बोली में गेय गीत लिखे जाने लगे । छायावादी काव्य में हम गेय गीतों को अपने चरमोत्कर्ष पर पाते हैं। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, अंचल, रामकुमार वर्मा आदि के द्वारा लिखे गए गीतों में काव्य और संगीत का बहुत ही सुन्दर और संतुलित समन्वय देखने को मिलता है। इनमें भी प्रसाद के गीत तो कथ्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टियों से हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
प्रसाद छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं, 'कामायनी' छायावाद का कीर्तिकलश है, किन्तु प्रसाद के गीत काव्य-प्रेमियों और संगीतज्ञों के कण्ठहार हैं। छायावादी कविता की जितनी विशेषताएँ हैं, सब उनके गीतों में विद्यमान हैं। अनुभूति की गहनता और अभिव्यक्ति की ऋजुता प्रसाद के गीतों में चरम बिन्दु पर पहुँची है।
प्रसाद संगीत के ज्ञाता थे, इसी लिए उसके गीत गेय हैं। उनके गीत काव्य के निकष पर ही नहीं संगीत के निकष पर भी पूरे उतरते हैं। इन गीतों में टेक, स्थायी और अंतरा है। ताल और छंद की यति, गति के साथ पदांत में तुक का भी समुचित निर्वाह हुआ है। इन सांगीतिक विशेषताओं ने प्रसाद के गीतों को गेय बनाया है। मुझे विश्वास है, पवनके पंखों पर चढ़कर ये गीत देश और काल का अतिक्रमण करके सार्वदेशिक और सर्वकालिक बनेंगे ।
प्रसादजी ने अपने नाटकों में संगीतात्मक, श्रुतिमधुर गीतों की रचना प्रचुर मात्रा में की है। नाटकों के अतिरिक्त उनके काव्य-संग्रहों में भी बड़े ही मर्ममधुर गीत हैं। उदाहरणार्थ 'तुमुल कोलाहल कलह में, में हृदय की बात रे मन', 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक धीरे-धीरे', 'तुम कनक किरन के अंतराल में लुक छिप कर चलते हो क्यों ?', 'हिमाद्रितुंग शुंग से, प्रचुच्द्ध शुद्ध भारती' और 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' तथा 'बीती विभावरी जागरी' जैसे गीत हिन्दी और भारतीय साहित्य के ही नहीं विश्व साहित्य के कीर्तिकलश हैं। इन गीतों में भाव, भाषा और लय की जो उत्कटता है और शब्द और स्वर की जो जुगलबंदी है, वह सराहते ही बनती है। प्रणय गीतों में ऐसी मार्मिकता एवं मृदुता और राष्ट्रप्रेम के गीतों में ऐसी ओजस्विता और उदात्तता है कि जो अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रसाद के साहित्य-महार्णव में से इन गीत-मौक्तिकों का संचय करके उन्हें एक सूत्र में गुंफित करने के लिए किसी साहसी मरजीवे और कुशल पारखी की आवश्यकता थी। इसे एक संयोग ही समझना चाहिए कि प्रसाद साहित्य के मर्मज्ञ श्री जयकिशनदास सादानी ने प्रसाद के गीतों के संकलन-संपादन का प्रस्ताव स्वीकार किया और निश्चित समय में उसे पूरा भी किया।
सादानी जी ने 'कामायनी' और 'आँसू' का अंग्रेजी में अनुवाद किया है
जो देश-विदेश में प्रशंसित है। इसके अतिरिक्त वे काव्य, संगीत, चित्र, मूर्ति आदि कलाओं के भी ज्ञाता हैं। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री सादानी जी ने अत्यंत लगन और परिश्रम से 'प्रसाद के गीतों' का संकलन एवं संपादन किया है। इस ग्रंथ की बोधवर्धक भूमिका सादानी जी की प्रसाद विषयक विशेषज्ञता एवं गीति काव्य विषयक मर्मज्ञता की परिचायक है। उन्होंने 'गीत' और 'गीति काव्य' के स्वरूप और प्रसाद के प्रदान को गंभीरता से रेखांकित किया है। इस कार्य के लिए मैं बंधुवर सादानी जी को धन्यवाद देता हूँ। मुझे विश्वास है, गुजरात साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित यह ग्रंथ साहित्य और संगीत प्रेमियों के लिए समान रूप से उपयोगी होगा ।
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