प्रेमचंद बीसीं शताब्दी के प्रथम चरण के लेखक थे। हमारा समय इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण का है। लगभग 100 साल का अंतराल। प्रश्न यह उठना स्वाभाविक है कि इतने समय के बाद कलम के सिपाही प्रेमचंद कहाँ तक प्रासंगिक हो सकते हैं ? अगर, प्रेमचंद अप्रासंगिक है तो फिर तुलसी, कबीर, कालिदास अथवा शेक्सपियर, मिल्टन, ताल्सताय आदि अनेक महान लेखक भी अप्रासंगिक होने चाहिए। क्या आज प्रेमचंद प्रासंगिक हैं? सातवें दशक में कुछ युवा-साहित्यकारों ने यह प्रश्न उठाया था कि प्रेमचंद अब प्रासंगिक नहीं रहे, हमें इस पर गंभीरतापूर्वक नये सिरे से सोचना चाहिए। उस बैठक में अज्ञेय जी भी थे, उन्होंने सभी नये उत्साही साहित्यकारों को कहा था कि- 'जब तक हम प्रेमचंद जैसी बड़ी मानवीय संवेदना को नहीं लायेंगे, तब-तक प्रेमचंद हमारे बीच गुरु स्थान पर ही रहेंगे।
प्रेमचंद हमारे समय में इसलिए प्रासंगिक हैं कि प्रेमचंद की पीड़ा और उनका संघर्ष हमारा संघर्ष है, अपने इतिहास पर, अपनी परिस्थितियों पर जिस प्रकार वे द्वन्द्वात्मक प्रतिक्रिया करते रहे, वैसी प्रतिक्रिया हम भी कर रहे हैं या करना चाहते हैं। कोई भी लेखक किसी वस्तु या वाद से प्रेरित न होकर, विषय वस्तु को अपने जीवन से लेता है। वह कभी भी अप्रासंगिक नहीं होता। मैं यहाँ कबीर को फिर याद करना चाहता हूँ कि वे 600 साल बीत जाने पर भी वे प्रासंगिक है। कबीर ने जिन समस्याओं को उठाया था वे आज तो और अधिक विद्रूप और विकराल होती नज़र आती हैं। सर्वोदय एज्यूकेशन ट्रस्ट ने जब एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी को आयोजित करने की इच्छा जतायी तो मैंने हिन्दी के कालजयी रचनाकार प्रेमचन्द और गुजराती के मूर्धन्य साहित्यकार पन्नालाल पटेल का नाम दिया। अंत में दोनों कथाकार के कथा-साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन का विषय निश्चित हुआ। फलतः 8 जनवरी 2012 को गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा अनुदानित तथा सर्वोदय एज्यूकेशन ट्रस्ट, गोधरा द्वारा प्रेमचन्द और पन्नालाल पटेल के कथा-साहित्य पर राष्ट्रीय परिसंवाद एन.एस. पटेल आर्ट्स कॉलेज, आनन्द में आयोजित किया गया। मैंने इस एकदिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद में पढ़े गये कुछ अच्छे आलेखों का चयन किया है। यह चयन प्रोफेसर दयाशंकर जी के निर्देशन में किया गया है। और पुस्तक का शीर्षक 'प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में सामाजिक सरोकार' रखा गया है। कारण, प्रेमचंद के कथा-साहित्य पर अधिक आलेख आये थे, पन्नालाल पटेल के कथा-साहित्य पर कुछ गुजराती में लेख आये, और कुछ हिन्दी में। इस प्रकार हमने पुस्तक के चतुर्थ उपशीर्षक के अन्तर्गत दोनों साहित्यकार के तुलनात्मक लेखों को भी इस पुस्तक में स्थान दिया है। इस पुस्तक की भूमिका हिन्दी के विद्वान समीक्षक डॉ० दयाशंकर ने लिखी है। पुस्तक में प्रेमचन्द के कथा-साहित्य से सम्बन्धित सामाजिक सरोकार से संलग्न सभी पक्षों को लेखकों ने बखूबी उजागर किया है। उक्त पुस्तक में हिन्दी साहित्य के प्रखर मार्क्सवादी आलोचक शिवकुमार मिश्रजी का प्रेमचन्द सम्बन्धी आलेख आकर्षण का केन्द्रबिन्दु है। उनके साथ डॉ० पारुकान्त का प्रेमचन्द के साहित्य में दलित सरोकार शोधलेख भी पुस्तक की गरिमा में चार चाँद लगा देता है।
उनके साथ प्रोफेसर दयाशंकर त्रिपाठी, (हिन्दी विभाग स.प. यूनि.) प्रोफेसर शैलजा भारद्वाज (अध्यक्षा, हिन्दी विभाग, म.स., युनि. बड़ौदा), डॉ० जशवंत पंड्या (अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद) आदि के शोधलेख भी महत्वपूर्ण हैं। उन सभी विद्वानों के साथ-साथ डॉ० शन्नो पाण्डेय, डॉ० शिवप्रसाद शुक्ल, डॉ० जगन्नाथ पंडित के प्रेमचन्द के सामाजिक सरोकार सम्बन्धी शोधपूर्ण आलेखों ने पुस्तक की गरिमा को और बढ़ा दिया है। यह पुस्तक सम्पादित करते समय मुझे कई परेशानियाँ झेलनी पड़ी, फिर भी ऐसे कठिन समय में यह किताब आयी है जिससे मेरे श्रम की सार्थकता सिद्ध होती है। हम उन सभी विषय विशेषज्ञों एवं प्रतिभागियों के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने इस ज्ञानरूपी महायज्ञ में भाग लेकर हमें सहयोग दिया है। हम आभारी हैं- पुस्तक को आकार देने वाले चिंतन प्रकाशन, कानपुर के रामसिंह भाई के, जिन्होंने अल्प समय में अपना सब काम पूर्ण किया है, वे यश के धनी हैं। सुन्दर भूमिका के लिए डॉ० दयाशंकर जी का भी आभार मानना जरूरी है, उनका स्नेह हमेशा हमें प्राप्त होता है। शोधलेखों के मौलिकता की समग्र जिम्मेदारी स्वयं लेखकों की है। पाठकों/सहृदयों के सुझावों को विशेष अहमियत दी जायेगी। यह किताब आप लोगों को सौंपते समय मैं हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। और अन्त में सर्वोदय एज्यूकेशन ट्रस्ट, गोधरा का तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ, जिन्होंने फिर से विश्वास कर सम्पादकीयता का कार्य मुझे सौपा। मैं पुनः उनका आभार व्यक्त करता हूँ।
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