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प्रेमचन्द की भ्रष्टाचार परक कहानियाँ- Premchand Ki Bhrashtachar Parak Kahaniyan

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Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author Mayaprakash Pandey
Language: Hindi
Pages: 192
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 320 gm
Edition: 2012
ISBN: 9788188571482
HBM365
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Book Description

सम्पादकीय

'भ्रष्टः आचारः यः सः भ्रष्टाचारः।' अर्थात् जो आचार, व्यवहार नीतिच्युत हो गया है, उसे हम भ्रष्टाचार कहते हैं। और 'भ्रष्टः आचारः यस्य सः भ्रष्टाचारी।' अर्थात् जिस व्यक्ति का आचार, व्यवहार नीति-नियम के अनुसार नहीं होता है, वह व्यक्ति भ्रष्टाचारी कहलाता है।

भ्रष्टाचार आज हमारे समाज की, देश की प्रमुख समस्या बन गया है। भ्रष्टाचार रूपी ब्रह्मराक्षस धीरे-धीरे हमारे समाज को, देश को निगलता चला जा रहा है। वह इसे दीमक की तरह खोखला कर रहा है। देश की अधिकांश जनता इसका भोग बन रही है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज किसी भी दफ्तर का कोई भी काम बिना कुछ लेन-देन के सम्पन्न नहीं हो रहा है और यदि ईमानदारी से किसी काम को करवाने जाते हैं तो कितने धक्के खाने पड़ते हैं और कितना समय नष्ट होता है इसका अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता। आज छोटे-से छोटे मुहकमे से लेकर बड़े से बड़े तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है। इसका आकार मच्छर से लेकर हाथी और उससे भी बड़ा है। एक चपरासी 50 रुपये में मान जाता है तो बड़ा अधिकारी लाखों में बातें करता है। भ्रष्टाचार आज अपनी हदें पार करता नजर आ रहा है।

भ्रष्टाचार को बढ़ावा हमारे समाज से ही मिलता है। आज लोगों के पास समय नहीं है, उन्हें जल्दी से अपना काम करवाना है, दो दिन की छु‌ट्टी बिगाड़ने के बजाय यदि कुछ घूस देकर एक दिन में काम हो जाता है तो वे उसे करना चाहते हैं और कर रहे हैं, यह उनकी विवशता है। घूस लेने वाले की आदत बिगड़ती जाती है और वह बिना कुछ लिये किसी का काम नहीं करना चाहता। जिसके पास देने को कुछ नहीं है वे बेचारे दर-दर की ठोकरे खाते रहते हैं। भ्रष्टाचार को नाबूद करने की बेचारी सरकार की अपनी विवशता है, क्योंकि कहीं न कहीं वह भी उसी की एक कड़ी है। हर पाँच साल में चुनाव आता है जिसमें करोणों का औपचारिक या अनौपचारिक रूप से खर्च होता है। चुनाव के लिए सरकार का सीमित बजट होता है, तो उसके पास इतना पैसा कहाँ से आता है? जो लोग या संगठन जिन लोगों या पार्टियों को आर्थिक सहयोग प्रदान करते हैं, समय आने पर वे उसे वसूल भी करना चाहते हैं। यह वसूली सीधे-सीधे तो हो नहीं सकती, इसके लिए कहीं न कहीं, कोई न कोई गड़बड़ करनी पड़ती है। यह गड़बड़ ही भ्रष्टाचार को जन्म देती है।

सरकार 'नरो वा कुंजरो वा' की स्थिति में अपने आपको बचाने के लिए सीधे सरल ढंग से भ्रष्टाचार विरोधी ढीला-ढाला कानून बनाकर मुक्त हो जाना चाहती है, जिससे न सांप मरता है और न ही लाठी टूटती है। कानून बहुत प्रभावशाली हो, किन्तु उसका पालन करने वाला ही ढीला हो तो उस प्रभावशाली कानून का क्या करना। कानून बनने से पहले उसमें से बचने के उपाय ढूंढ लिये जाते हैं। इसलिए कानूनी दायरे में बहुत कम लोग आ पाते हैं। अक्सर यह भी देखा जाता है कि 5 लाख लेने वाला व्यक्ति खुलेआम घूमता है और 500 रुपये लेने वाला पकड़ा जाता है और सजा काटता है, यह कैसी विडम्बना है।

यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज देश की छवि को ये घोटालेबाज ही बिगाड़ रहे है। हमारे देश में घोटाले की एक श्रृंखला बनती जा रही है और उस श्रृंखला की हर आनेवाली कड़ी बड़ी ही होती जा रही है। चारा घोटाला, तहलका काण्ड, से लेकर टू. जी. स्पैक्ट्रम से होते हुए कामन वेल्थ घोटाले से गुजरते हुए, घोड़ा काण्ड की सवारी करते हुए बहुत दूर तक जाया जा सकता है। मेरी 'नेता' कविता की चंद पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं

"जड़ता के बसीभूत हो,

करता रहा घोटाला।

हार नहीं मानी मैंने,

चलता रहा हवाला ।.....

पकड़ नहीं पाये मुझको,

देश के तुरर्मखाओं (सी.बी.आई.) ने।

किया बन्द जेलों में मुझको,

बाल न बांका कर पाये।

इतना ही नहीं आगे तो वे भ्रष्टाचार की हद ही पार कर जाते हैं, यथा- "खून चूस इस मिट्टी का,

भरता रहा हूँ पेट।

काट पेट लोगों ने अपना,

देते रहे हैं भेंट।"

देश के विकास के नाम पर सरकार विश्व बैंक से करोड़ों, अरबों रुपये कर्ज लेती है और उसमें से कितने रुपये विकास के काम में खर्च होते हैं बताने की आवश्यकता नहीं है, हम सभी जानते हैं। सरकार यदि थोड़ा-सा कड़ा रुख अख्तियार करे और तमाम घोटालेवाजों को पकड़ कर उनसे पैसे निकलवाये और विदेशों में जमा भारतीय धन को भारत में वापस लाये तो शायद जहाँ तक मैं समझता हूँ देश के विकास के लिए उसे विश्वबैंक से कर्ज नहीं लेना पड़ेगा और देश का सही मायने में विकास होगा, साथ ही देश आत्मनिर्भर बन सकेगा।

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