डगलस एडम्स ने पी.जी. वुडहाउस के बारे में लिखा है कि 'वे अँग्रेजी भाषा के महानतम संगीतकार हैं।' भाषा की एक लय होती है, उसका एक ताल व संगीत होता है जो बिरले लेखक ही पैदा कर पाते हैं। यदि हिन्दी भाषा के महानतम संगीत का अनुभव करना हो तो आप रवीन्द्रनाथ त्यागी की हास्य-व्यंग्य रचनाओं में से गुजर जाएँ। विट, निर्मल हास्य, शिष्टतापूर्ण अशिष्टता, अद्भुत व्यंजनाएँ, बेजोड़ फैण्टेसी, सत्य कहने का अदम्य साहस, भाषा का अद्भुत खेल, ना कुछ से जाने क्या-क्या कुछ नया पैदा करने की बाजीगरी, विषय वैविध्य का अटूट सिलसिला, हास्य-व्यंग्य में काव्य का अलौकिक सौन्दर्य और इन सबके ऊपर एक निष्पक्ष व निर्मम विश्लेषण की क्षमता रखनेवाली खाँटी ईमानदार मानवीय जीवन-दृष्टि-शायद यह सब-कुछ तथा और भी अनेक शास्त्रीय किस्म की लेखन-बारीकियाँ, रवीन्द्रनाथ त्यागी को हिन्दी भाषा का ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं का इस सदी का सर्वाधिक समर्थ हास्य-व्यंग्य लेखक बनाती हैं। उनके कवि होने के कारण व उनके विस्तृत अध्ययन के फलस्वरूप उनके लेखन में जो एक विशिष्ट 'बाँकपन' आता है, वह उनका विशिष्ट आकर्षण है। हिन्दी व्यंग्य-लेखन की भविष्य की पीढ़ियाँ शायद यह विश्वास ही न कर पाएँ कि हिन्दी के इस महान् व्यंग्यकार को उसके अपने जीवन-काल में मात्र एक 'नफ़ीस हास्यकार' कहकर ही उपेक्षित किया जाता रहा।
जन्म : 9 मई, 1930 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले में स्थित नहटौर नामक कस्बे में।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए.। देश की सिविल सर्विसेस की परीक्षा में सफलता प्राप्त कर इण्डियन डिफेन्स एकाउण्ट्स के लिए नियुक्त। नौकरी के सात वर्ष केन्द्रीय सचिवालय में। रक्षा मन्त्रालय में उपसचिव, 'नेशनल इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेण्ट ऐण्ड एकाउण्ट्स' के निदेशक तथा वायुसेना, थलसेना की उत्तरी कमान के कन्ट्रोलर ऑफ डिफेन्स एकाउण्ट्स रहे। सन् 1989 में सरकारी सेवा से निवृत्त।
लेखन : चौबीस व्यंग्य-संग्रह के अतिरिक्त सात कविता-संग्रह, एक उपन्यास, बालकथाओं के चार संग्रह व चुनी हुई रचनाओं के आठ संग्रह प्रकाशित । 'उर्दू हिन्दी हास्य-व्यंग्य' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन। 'रवीन्द्रनाथ त्यागी प्रतिनिधि रचनाएँ। बृहद ग्रन्थ डॉ. कमल किशोर गोयनका द्वारा सम्पादित । 'वसन्त से पतझर तक' के अलावा सौ-सौ चुनी हुई विशिष्ट व्यंग्य रचनाओं के दो बृहद् संकलन- 'पूरब खिले पलाश' और 'कबूतर, कौए और तोते' भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित। कुछेक रचनाएँ देश की विभिन्न भाषाओं में अनूदित ।
हिन्दी में व्यंग्य को स्वतन्त्र प्रतिष्ठा मिले अभी बहुत दिन नहीं हुए बाकायदा चलन और लोकप्रियता तो शायद उसे अभी पिछले दो-तीन दशक में ही मिली है, जबकि पत्रिकाओं में एक जरूरी कालम के लिए उसे एक स्वतन्त्र कथा-विधा की हैसियत दी गयी है। व्यंग्य किसी भी भाषा की जिन्दादिली और जीवन्तता का प्रतीक है। मगर हिन्दी में लोग उसके पहले हमेशा 'हास्य' का उपसर्ग लगाने के आदी रहे हैं और 'हास्य' भी हिन्दी में सच्चा और उन्मुक्त नहीं है; दुर्लभ है। हँसी-मजाक के नाम पर या तो उसमें फूहड़ 'बफूनरी' होती है या 'टाँगखींचवाद' अथवा 'टोपीउछालवाद'। यह हास्य नहीं, हास्यास्पद होता है। बहरहाल, व्यंग्य को उचित दर्जा न मिलने का कारण एक ओर तो यह धारणा है कि वह एक नकारात्मक योजना है और पराजय का सूचक है अतः गौण है और दूसरी ओर यह कि व्यंग्यकार एक दुःखी प्राणी है और व्यंग्य के पीछे लेखक की व्यक्तिगत ग्रन्थियाँ काम करती हैं। याने [नन्ददुलारे वाजपेयी हों या देवीशंकर अवस्थी] व्यंग्य को रचनात्मक साहित्य की विधा मानने से ही इनकार किया गया। सच तो यह है कि आज की स्थितियों में व्यंग्य सबसे पुरअसर और सार्थक विधा होती जा रही है। वह जितना प्रचलित है उतना ही कठिन भी है। हिन्दी में जो व्यंग्य लिखे गये या लिखे जा रहे हैं उनमें से अधिकांश 'बैठे-ठाले' या 'ताल-बेताल' के पाठकों के लिए लिखे गये चुटकुले हैं या सस्ते मनोरंजन की सामग्री। व्यंग्यकार के अस्त्र-आइरनी, सर्काज़्म, इनवेक्टिव, विट और ह्यूमर में से उसके पास केवल ह्यूमर है और वह भी हल्के स्तर का। इसीलिए वह टुच्चा और जनाना किस्म का है। सच्चे व्यंग्य की विराटता और पौरुष उसमें नहीं है। सच्चे और सार्थक व्यंग्य की यह खासियत होती है कि वह मूल्यों की आपा-धापी और सक्रान्ति का चित्र ही नहीं देता, नये मूल्यों की तलाश की छटपटाहट भी उसमें होती है। यत्किचित् ऐसा व्यंग्य परसाई में जरूर मिलता है। ऐसा व्यंग्य अनिवार्यतः साहित्य की सामाजिक प्रतीति में विश्वास करता है, उसमें युग की, उसके आदमियों, उनकी आदतों, फैशनों, रुचियों, मतों और धारणाओं की एक साफ और प्रामाणिक तस्वीर उभरती है। व्यंग्यकार समाज का निन्दक और छिद्रान्वेषी ही नहीं, परिशोधक भी है। शायद इसीलिए एडीसन ने कहा या कि वह व्यंग्य जो कि सिर्फ चोट करना जानता है, अँधेरे में छूटे तीर की तरह है। सच्चे व्यंग्य का रुख व्यक्तिगत आक्षेपों से उठकर वर्ग और समूह की और होता है। वह गहरे नैतिक दायित्व और अपेक्षाकृत अधिक सशक्त और व्यापक सामाजिक बोध का लेखन है। उसके आक्षेपों और इसीलिए प्रभाव का क्षेत्र अधिक व्यापक और विस्तृत होता है और उसका प्रतिवाद अधिक गहन और तीखा, क्योंकि वह मानवीय अस्तित्व के आधारभूत सवालों से सीधे टकराता है और अमानवीय और विसंगत स्थितियों का जायजा ले-देकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता, वरन् उनके कारणों और निहित शक्तियों को भी उभारता है। इसीलिए व्यंग्य अधिक प्रतिवद्ध और पक्षघर किस्म का लेखन है।
जिन लोगों ने व्यंग्य को एक स्वतन्त्र प्रतिष्ठा देने-दिलाने की दिशा में काम किया है, उनमें रवीन्द्रनाथ त्यागी का अपना अलग रंग है। इस विधा में उनका नाम न केवल स्थायी महत्त्व का हो जाता है, वह अपने वैशिष्ट्य से पृथक् भी है। एक ओर तो वह हरिशंकर परसाई के तीक्ष्ण व प्रखर व्यंग्य से अलग है, [और इसीलिए उसमें उस विराट सामाजिक बोध की विरलता है जो परसाई की खास विशेषता है- इसका कारण शायद यह है कि त्यागीजी उस हद तक राजनीतिक पक्षघर और प्रतिवद्ध लेखक भी नहीं हैं] तो दूसरी ओर वह शरद जोशी आदि अन्य व्यंग्यकारों से अधिक गहन और व्यापक आशयों से भास्वर हैं। अमृतराय ने उनकी नब्ज पर अँगुली रखी है- "एक गुदगुदी, एक चुटकी, एक पुरलुत्फ कैफियत जो बातों की रंगबिरंगी तितलियों के पीछे भागने में मिलती है।" त्यागीजी की खास बात उनकी उन्मुक्तता और लालित्य है। हिन्दी में इस तरह बिना किसी प्रकट और प्रत्यक्ष उद्देश्य के [निष्प्रयोजन और अहेतुक नहीं] लेखन की परम्परा बहुत विकसित नहीं है। शब्दों और विचारों से खिलवाड़-कौतुक [वर्डप्ले] के स्तर पर लेखन हिन्दी में विरल है। शायद इसका कारण हिन्दी की अकारण गम्भीरता है जो उसके पण्डितों ने उस पर जबरन लाद दी है और उसे जीवित और जिन्दादिल भाषा के बजाय वन्ध्या, नीरस और एक हद तक मृत बना दिया है।
त्यागीजी में वह जिन्दादिली और मस्ती या बेफिक्री है कि उनके लेखन को उन्मुक्त लेखन का दर्जा आसानी से दिया जा सकता है। उसमें एक सहज और स्वच्छन्द लेखन की भंगिमा हर जगह है और इसीलिए वह एक ओर जहाँ निष्कलुष हास्य की सृष्टि करता है वहीं दूसरी ओर किसी भी ग्रन्थि से मुक्त व्यंग्य की रचना भी। हास्य के विषय में कहीं पढ़ा-सुना था कि उम्दा हास्य वह है जो उसे भी हँसने पर मजबूर कर दे जिस पर कि हँसा जा रहा है। त्यागीजी का हास्य ऐसा ही है। न तो उनके हास्य में और न ही उनके व्यंग्य में कोई दुर्भावना है और न वह हीन-ग्रन्थि का शिकार है। स्वस्थ मन और प्रकृति से ही वह उपजा है। उनके हास्य की सृष्टि अकसर कहने के अन्दाज या फिर अतिरंजना से होती है और उनके अन्दाजे बयाँ के अस्त्र हैं उनकी 'शार्पविट' और उनकी वाग्विदग्धता।
अपनी उन्मुक्त उड़ान और मन की 'अनियन्त्रित दशा' के कारण रवीन्द्रनाय त्यागी का रचना-संसार काफी विविध और व्यापक है। घर-परिवार, यार-दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, नौकर-चाकर और रोजमर्रा की जिन्दगी के आम पात्रों और स्थितियों से लेकर एक व्यापक सामाजिक अकर्मण्यता, पारम्परिक रूढ़ियों की मोहाविष्टता, अफसरशाही, सार्वजनिक विघटन, महँगाई, घूस, भ्रष्टाचार, बेकारी, विधान-सभाओं की जूतापैजार, मन्त्री, नेता और प्रतिपक्ष की राजनीति की नीतिहीनता और अवसरवाद, अतिनैतिक अखबार, छात्र-आन्दोलनों की दिशाहीनता, अध्यापकों की संकीर्णता और शोधकार्यों की निस्सारता गरज यह कि स्वतन्त्रता के बाद के भारत की पूरी संक्रान्ति और हास्यास्पदता उसमें उभरती है और जीती जा रही जिन्दगी के विविध स्तरीय अन्तर्विरोध और असंगतियाँ उघड़ जाती हैं। त्यागीजी खुद कवि भी हैं और साहित्य की राजनीति के दर्शक, शायद भोक्ता भी हों। इसीलिए उनके व्यंग्यों में हिन्दी साहित्य का समकालीन परिदृश्य भी खुलता है; सम्पादकों, प्रकाशकों और साहित्यकारों की अवसरवादिता, साहित्य की राजनीति और आन्दोलनों से फैली अराजकता, आलोचक और व्याख्याकारों की स्वेच्छाचारिता, लेखकों की छपास, प्रचारप्रियता, स्वैराचार और चौर्यवृत्ति-गरज यह कि साहित्यिक दुनिया की उठा-पटक, छीन-झपट, ले-लपक, गुटबाजी और फिरकापरस्ती-सभी कुछ।
रवीन्द्रनाथ त्यागी के व्यंग्यों का वातावरण काफी दोस्ताना और याराना है। उनमें सच्चे निबन्ध की वे विशेषताएँ हैं जो उन्हें रम्यता प्रदान करती हैं। सर पर सवार होकर अपनी प्रतिभा का सिक्का जमाने के बजाय, त्यागीजी मन के करीब सरककर गुफ्तगू करने में ज्यादा भरोसा करते हैं और इसीलिए उनके लेखन में आत्मीयता और सह-अनुभूति अधिक है। उनके व्यंग्य की धार में वह तल्खी और तराशने का भाव भले न हो जो परसाईजी में है मगर उसमें कुछ ऐसी कैफियत है कि शिकार के मुँह से आवाज तक न निकले और चोट जो है वह भीतर ही भीतर बैठती चली जाए और दिनों तक कसकती रहे। इसका कारण यह भी है कि त्यागीजी ने न तो शुद्ध हास्य लिखा है न शुद्ध व्यंग्य और न शुद्ध ललित निबन्ध। तीनों की मिली-जुली विशेषताओं को लेकर उन्होंने अपने खास रंग को चटख और शोख बना लिया है। उनके लेखन के पढ़ने से जो आनन्द मिलता है, वह इधर के बहुत सारे लेखन से नहीं मिलता। जो लेखन एक 'डिलाइट', एक 'ज्वाय', एक 'एक्सटेसी' दे उसकी अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता।
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