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राग मल्हार दर्शन- Raga Malhara Darsana (An Old and Rare Book)

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Includes any tariffs and taxes
Detailed Discussion of the Functional and Classical Aspects of Malhar and Its Types
Specifications
Publisher: Pratibha Prakashan
Author Geeta Banerjee
Language: Hindi
Pages: 280
Cover: HARDCOVER
9.5x7.5 inch
Weight 640 gm
Edition: 1999
ISBN: 8185268835
HBZ435
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Book Description

भूमिका

प्रत्येक कार्य की पृष्ठभूमि में कुछ न कुछ उद्देश्य अवश्य होता है। अर्थात् उद्देश्य किसी कार्य का कारण होता है। जबतक मनुष्य के सामने कोई उद्देश्य नहीं होता तब तक वह कार्य पथ पर अग्रसरित नहीं होता है। उद्देश्य का दूसरा नाम लक्ष्य है। उत्तम लक्ष्य नहीं है तो निशाना का कोई मूल्य नहीं है। अर्थात् कार्य की सार्थकता तभी है जब व्यक्ति के सामने उत्तम उद्देश्य तथा लक्ष्य हो। अन्यथा जिस प्रकार दिग्भ्रान्त हो जाने पर बुद्धिमान से बुद्धिमान को भी पूर्व के स्थान पर पश्चिम और उत्तर के स्थान पर दक्षिण दिशा का भ्रम होने लगता है इसी तरह उद्देश्य रहित मनुष्य अपने उद्देश्य की पूर्ति से वंचित रह जाता है। इस हेतु किसी कार्य को करने के पूर्व मनुष्य के मन में एक निश्चित उद्देश्य तक पहुंचने की धारणा अवश्य होनी चाहिए। क्योंकि इस प्रकार की सुदृढ धारणा ही मनुष्य के उर अन्तर को स्फूर्ति तथा बल-प्रदान करती है।

प्रस्तुत पुस्तक "राग मल्हार दर्शन" में प्रतिपादित विषय मल्हारों के प्रकार के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य यह है कि मल्हार के विभिन्न स्वरूप के सम्बन्ध में जो संगीत क्षेत्र में मतैक्य न होने के कारण विविध भ्रान्तियां हैं उन भ्रान्तियों को दूर कर मल्हारों के पुराने और नये प्रकार के शुद्ध स्वरूप को स्थापित करना। ऐसे मल्हार के विभिन्न प्रकार के लिये यह स्वाभाविक ही है कि एक प्रकार दूसरे प्रकार के अत्यन्त निकट हों।

उदाहरण के लिये गोड़ मल्हार और नट मल्हार को ही लीजिये ये दोनों राग एक दूसरे के इतने निकट हैं कि शुद्ध रूप से इन दोनों का प्रदर्शन या इनकी व्याख्या करना सर्वसाधारण के वश की बात नहीं है। इसी तरह मल्हार में जो राग मिश्रण किये गये हैं उनका कितने प्रमाण में कब और कैसे मिश्रण करना है तथा मूल राग अर्थात् मल्हार के प्रभाव को उत्कृष्ट बनाने में मिश्रण वाले राग का संतुलन बनाये रखना व समप्रकृति मल्हारों के प्रकार में लगने वाले स्वरों का अलपत्व-बहुत्व क्रिया के द्वारा उनके सूक्ष्म भेद को स्पष्ट करना तथा प्रचार में मल्हार के सम्बन्ध में अनेकों मत सामने रखकर अपना एक निश्चित मत कायम करना व प्रचार में मल्हार के विविध स्थाई अन्तरे का उल्लेख कर उनके शुद्ध स्वरूप को भावी पीढ़ी के समक्ष मल्हार के प्रकार का एक सुदृढ़ तथा व्यवस्थित स्वरूप सामने रखना ही लेखिका का लक्ष्य तथा उद्देश्य है।

शिक्षा के क्षेत्र में पुस्तक लिखने की होड़ सी लगी हुई है। लेखक गण यह नहीं देखते कि मेरे इस लेखन कार्य से नई उपलब्धि हुई या नहीं तथा समाज या भावी पीढ़ी के जिज्ञासु इस कार्य से लाभान्वित होंगे या नहीं। तथा पुस्तक लेखन में निजी ज्ञान का उपयोग हुआ है या नहीं इत्यादि बातों पर ध्यान केन्द्रित कर पुस्तक लिखने की परम्परा समाप्त सी हो गई है। इसका मूल कारण यह है कि विद्या अध्ययन व शिक्षा के आदान-प्रदान का मुख्य उद्देश्य केवल धनोपार्जन तथा उदर पोषण हो गया है।

भगवान की असीम कृपा तथा गुरु के आशीर्वाद के फलस्वरूप मैंने इस पुस्तक के लेखन के कार्य में उपरोक्त अवगुणों से बचने का भरसक प्रयल किया है। यही कारण है कि प्रस्तुत विषय का अध्ययन कठिन होने पर भी अनेक उपलब्धियां उभर कर सामने आई है।

यथा-सर्वप्रथम तो समस्त मल्हारों के प्रकार के रागांग राग के सम्बन्ध में संगीत क्षेत्र में विस्तृत विवेचन का पूर्ण अभाव था। यहां तक कि कुछ लोग मियां तान सेन द्वारा रचित मियां मल्हार को ही रागांग राग कह डाले है। जोकि सर्वचा अप्रमाणिक है। इस सम्बन्ध में प्रस्तुत पुस्तक में पूर्ण प्रकाश डाला गया है। सुप्रसिद्ध प्राचीन ग्रन्थ संगीत रत्नाकर व अन्य अनेक संगीत ग्रन्थों का उद्धरण देकर रागांग राग "शुद्धमल्हार" का विस्तृत विवेचन कर यह सिद्ध व प्रमाणित किया गया है कि समस्त मल्हारों के प्रकार का रागांग राग शुद्ध स्वर युक्त गंधार निषाद वर्जित औड़व जाति का राग शुद्ध मल्हार ही है।

इसके अतिरिक्त संगीत के अनेक संस्कृत ग्रन्थों में शुद्ध मल्हार के लिये "सप वर्जित" कहा गया है। अर्थात् मल्हार में पड़ज व पंचम वर्जित है, ऐसा कहा गया है। इस भ्रान्ति का निराकरण भी शुद्ध मल्हार के वर्णन में भली भांति किया गया है।

इसके साथ ही मूर्धना व थाट-भेद के अनुसार भी मल्हार के स्वरूप में सामंजस्य स्थापित किया गया है। संगीत ग्रन्थों में परस्पर मतैक्य न होने के कारण राम स्वरूप सम्बन्धी अनेक समस्याओं का बड़े ही सावधानी व तर्क पूर्ण ढंग से समाधान किया गया है।

प्राचीन, मध्य कालीन और अर्वाचीन ग्रन्थों का यथासंभव अध्ययन करके राग मल्हार के शास्त्र नियमों को व्यवस्थित किया गया है तथा बाट सम्बन्धी निराकरण के नियमों का उद्धरण देकर व अपने निजी मत का उल्लेख करते हुए थाट सम्बन्धी मतभेदों को दूर किया गया है।

रागांग राग शुद्ध मल्हार के समप्रकृति राग दुर्गा (बिलावल थाट) और जलधर केदार का विस्तृत विवेचन करके तीनों रागों के परस्पर भेद को भलीभांति स्पष्ट किया गया है। प्रत्येक स्वर के लगाव व अलपत्व-बहुत्व के महत्व को समझाते हुए अन्त में शुद्ध मल्हार के ध्रुवपद अंग के स्थाई अन्तरे भी दिये गये हैं।

शुद्ध मल्हार की चर्चा के उपरान्त मल्हारों के प्रकार में प्राचीन, मध्यकालीन व अर्वाचीन मल्हारों का यथासंभव प्राप्त इतिहास के आधार पर इनका समय निश्चित कर भिन्न-भिन्न अध्यायों में इनका विस्तृत विवेचन किया गया है।

मेघ मल्हार के सम्बन्ध में लोगों में यह गलत धारणा है कि मेघ और मेघ मल्हार एक ही राग है। इस गलत धारणा को दूर कर उदाहरणों के द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि मेघ और मेघ मल्हार दो अलग-अलग राग हैं। इन दोनों रागों के राग नियम व स्वरूप भिन्न-भिन्न रूप से दिखाये गये हैं।

प्राचीन मल्हार के प्रकार में मेघ मल्हार व गौड़ मल्हार को रखा गया है। मेघ मल्हार की भांति गौड़ मल्हार के दोनों प्रकारों का वर्णन किया गया है।

मध्य कालीन मल्हार के प्रकार में रामपुर के श्री सादिक अली खां (छम्मन साहब) के लेख के अनुसार मियां मल्हार, रामदासी मल्हार, नट मल्हार, सूर मल्हार इत्यादि रागों का वर्णन विस्तार से किया गया है। तथा इनके अनेक स्थाई अन्तरे भी दिये गये हैं। तथा प्राचीन, मध्यकालीन, अर्वाचीन एवं स्वरचित मल्हारों के प्रकार को मिलाकर लगभग ३५ मल्हारों को विधिवत प्रस्तुत किया गया है।

संपूर्ण मल्हारों को बिलावल, खमाज और काफी थाटों में विभाजित कर इनकी तुलनात्मक विवेचना भी सूक्ष्म रूप से की गई है। अधिकतर मल्हारों में ध्रुवपद व धमार के साथ ख्याल तथा सादरे आदि की प्राप्य एवं अप्राप्य बन्दिशें दी गई है। चूंकि प्रचार में इतने मल्हारों के प्रकार का व्यवस्थित वर्णन तथा इनकी पुरानी व नई बन्दिशों के संकलन का पूर्ण अभाव है और प्रस्तुत पुस्तक 'राग मल्हार दर्शन' में इस अभाव की भली भांति पूर्ति की गई है इस हेतु पूर्ण आशा है कि संगीत के जिज्ञासु जन इस पुस्तक से अवश्य ही लाभान्वित होंगे।

इस पुस्तक के लेखन में श्रद्धेय पं. भातखण्डे जी के संगीत शास्त्र तथा क्रमिक पुस्तक मालिका संगीत ग्रन्थों से मुझे अधिक से अधिक सहायता मिली है। इनके संस्कृत ग्रन्थ अभिनव गीतमंजरी तथा लक्ष्य संगीत से भी यथा स्थान श्लोकों का उपयोग किया गया है।

हमारी इस पुस्तक में इनके ग्रन्थ तथा राग सम्बन्धी इनके मतों एवं विचारों का अधिक अनुकरण किया गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि मल्हार के सम्बन्ध में प्राचीन से लेकर आज तक इतने मल्हारों का विस्तृत विवेचन किसी अन्य ग्रन्थ में सुलभ नहीं है। ऐसे संगीत विद्वान एवं संगीतोद्धारक पं. भातखण्डे जी के चरणों में मैं कोटि-कोटि नमन करती हूं जिनके संगीत ज्ञान के सहारे में इस कार्य को सम्पन्न करने में समर्थ हो सकी हूं।

इनके अतिरिक्त जिन ग्रन्थों का हमने सहारा लिया है उनके नाम पुस्तक के अन्त में "सहायक संगीत ग्रन्थ" परिच्छेद में विधिवत दिया भी गया है इन सभी ग्रन्धकारों की मैं चिरऋणी रहूंगी जिनके ग्रन्थों के सहारे हमने अपने इस कठिन कार्य को पूरा किया है।

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