भूमिका
सन् १९४९ से पहले राजस्थान नाम की किसी भौगोलिक या राजनीतिक इकाई का अस्तित्व नहीं था। पहले इस क्षेत्र के सामूहिक बोध के लिए कभी 'रजवाड़ा' (राजाओं का स्थान) या डिंगल भाषा के रायथान / रैथान जैसे शब्दों अथवा राजपूताना का उल्लेख होता था। अन्यथा अलग-अलग क्षेत्रों के लिए जिन परम्परागत पौराणिक नामों का विवरण मिलता है, उसके अनुसार बीकानेर एवं उसके निकटवर्ती क्षेत्र को जांगल देश, जालोर को 'श्रीमाल, नागौर को 'अहिच्छत्रपुर', अलवर के उत्तरी क्षेत्र को 'कुरु, दक्षिण और पश्चिमी क्षेत्र को मत्स्य, भरतपुर, धौलपुर, करौली क्षेत्र को 'शूरसेन' कहा जाता था। उदयपुर-चित्तौड़ क्षेत्र 'शिवि' जनपद का भाग और बाद में मेदपाट' (मेवाड़) के नाम से जाना गया। इसी प्रकार झालावाड़ एवं उसके आस-पास के भूभाग को 'मालव', सिरोही को 'अर्बुद' जोधपुर को 'मरु' या 'मरुवार' और बाद में 'मारवाड़, जैसलमेर को 'माँड़', डूंगरपुर-बांसवाड़ा को 'बागड़' तथा कोटा-बूंदी क्षेत्र को 'हाड़ोती' के नाम से पुकारा जाता था। राजस्थान के इतिहास एवं संस्कृति को उसके भौगोलिक परिवेश ने न्यूनाधिक रूप रूप से प्रभावित किया है। राजस्थान के दक्षिणी भाग से लेकर उत्तर-पूर्वी भाग तक अरावली पर्वत श्रृंखला फैली हुई है जो इसे दो असमान आकार-प्रकार में विभाजित करती है। अल्प वर्षा वाले पश्चिमी भाग मारवाड़ का अधिकांश भाग रेतीला है जिसमें कहीं-कहीं बियाबान मरुस्थल के टीलों का अखंड साम्राज्य है। उसके विपरीत दूसरी ओर इस क्षेत्र का पूर्वांचल और दक्षिणांचल अपेक्षया अधिक वर्षा वाले क्षेत्र हैं जो दूर-दूर तक विस्तृत पर्वत श्रृंखलाओं, नदिओं, बरसाती नालों, घनी वनस्पति और हरीतिमा से आच्छादित है। अरावली शब्द की व्युत्पत्ति राजस्थानी शब्द अड़ावला' से हुई है जो 'धरन' या बीम की भांति फैला हुआ है और राजस्थान के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह उपयोगी है। राजस्थान के भूगोल और उसके इतिहास में अरावली का सबसे उल्लेखनीय योगदान यह रहा है कि उसने पश्चिमी भाग में स्थित मरुस्थल के दक्षिण-पूर्वी विस्तार को अवरुद्ध करके रखा है। राजस्थान को लेकर आम धारणा रही है कि जलाभाव से ग्रसित यह क्षेत्र प्रारंभिक काल में मानवीय गतिविधियों से अछूता रहा तथा ऐतिहासिक घटनाक्रम का प्रारम्भ वहां विलम्ब से हुआ होगा। पिछले लगभग एक शताब्दी के पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक अन्वेषणों से यह मिथक अब टूट चुका है। जैसलमेर तथा बाड़मेर से मध्यपाषाणकालीन एवं पुरापाषाणकालीन उपकरण तथा नागोर (कुराड़ा) और जालोर (एलाना) से ताम्र उपकरणों के भण्डार मिल चुके हैं। हनुमानगढ़ जिले में स्थित कालीबंगां की खुदाई हमें भारत की प्राचीनतम प्रागैतिहासिक सभ्यता के प्रमाण मिले हैं। मारवाड़ सहित प्राय सम्पूर्ण राजस्थान मौर्य एवं गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित था। ज्ञात प्रमाणों के प्रकाश यह कहा जा सकता है कि प्रतिहार सत्ता के आरोहण के पूर्व भी राजस्थान का भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास-चक्र का एक जीवंत भाग था।
पुस्तक परिचय
क्षेत्रीय इतिहास की ओर पिछली सदी के प्रारंभिक दशकों से ही विशेष यान दिया जाता रहा है। फिर भी, यह रेखांकित करना सभीबीन होगा कि राष्ट्रीय एकता किसी भी क्षेत्रीय निष्वा से ऊपर होनी चाहिए। क्षेत्रीय इतिहास की वास्तविक उपयोगिता इसकी सीमित जनसामान्य भावनाओं के प्रति अपील में नहीं बल्कि इसके सूक्ष्म स्तर के अपनों की विशाल संभावनाओं में निहित होती है। सौभाग्य से, राजस्थान में उपलब्ध इतिहास सम्बी रोज सामग्री अत्यंत विपुल है और इसके क्षेत्रीय इतिहास के विभिन्न पहलुओं का प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा विस्तृत अध्ययन किया भी गया है। फिर भी उतार बढ़ाव एवं जटिलताओं से परिपूर्ण इसके इतिहास तथा बहुरंगी संस्कृति के सूक्ष्म रूपों का और व्यापक अध्ययन की सम्भावनानी का प्रतिवाद नहीं किया जा सकता। यह इसलिए भी आवश्यक है ताकि इसकी क्षेत्रीय पहचान को उसकी विशिष्टता में समझा जा सके, जैसा कि वीरता और साहस, शौर्य और बलिदान, अभ्युदय और त्याग, रोमांस और रोमांच की विभिन्न कहानियों एवं अनेक प्रसंगों में प्रकट होता है और जो धर्म, कला, भाषा, साहित्य और मनमोहक लोकजीवन के विविध प्रारूपों में प्रकट होने वाली उसकी अनन्य सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के साथ मिश्रित होकर झलकती हैं। सुरेंद्र नाथ दुबे (जन्म १९४१) की प्रतिभाशाली अकादमिक पृष्ठभूमि रही है उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए और गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए एमए किया। १९६८ में उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि अर्जित की, जहा ३५ वर्षों तक वे शिक्षक रहे। १९६७ में वि.वि. के इतिहास और भारतीय संस्कृति विभाग में सहायक प्रोफेसर, १९८५ में एसोसिएट प्रोफेसर और १९८९ में टैगोर प्रोफेसर नियुक्त किये गये। उनके प्रमुख प्रकाशनों में क्रॉस करेंट्स इन अर्ती बुद्धिज्म (मनोहर, दिल्ली १९८०, दूसरा संस्करण २०२३), भारतीय सभ्यता और संस्कृति का इतिहास (जयपुर १९८५), रिलीजस मूवमेंट्स इन राजस्थान (संपादित, जयपुर १९९६), आइडियाज एंड मूवमेंट्स इन द ऐज ऑफ द मोर्याज (शिमला २०१२) और ए हिस्ट्री ऑफ अर्ली बुद्धिज्म (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली २०२३) शामिल हैं। लगभग १ दशक तक वे राजस्थान राज्य जिला गजेटियर्स के सम के सदस्य रहे। इतिहास के विभागाध्यक्ष पद के अतिरिक्त उन्होंने राजस्थान वि.वि. के राजस्थान अध्ययन केंद्र, पी.जी. स्कूल ऑफ ह्यूमैनिटीज, यूजीसी ह्यूमन रिसोर्स डेवलपमेंट सेंटर (ए. एस.सी.), के निदेशक तथा राजस्थान कॉलेज के प्राचार्य जैसे पदों पर भी कार्य किया। २००१ में वि.वि.से सेवानिवृत्त होने के पश्चात् वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो (२००२-२००५) और भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के सदस्य (२००८-२०१४) रहे।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist