डॉ. महेन्द्रनाथ पाण्डेय जी ने इस पुस्तक की पाण्डुलिपि लगभग एक वर्ष पहले मुझको दी थी इस आग्रह के साथ कि में इसकी भूमिका लिखूँ। में अत्यधिक असमंजस में था। 'साक बनिक मनि गुन गन जैसे' वाली स्थिति मेरी थी और अब भी है। मैंने अनेक बार आग्रह किया कि रामापोसना अथवा राम से सम्बन्धित विमर्श का न तो मैं अधिकारी हूँ और न तो इसका विशिष्ट अध्येता। राम अथवा भारत की विशिष्ट आध्यात्मिक परम्परा के वैशिष्ट्य से मैं परिचित भर हूँ और इस बात का बोध भी है कि कृतार्थता का सूत्र इसमें निहित है, पर इतने मात्र से उस पर साधिकार विमर्श की न तो मेरी पात्रता ही है और न मेरी क्षमता। पर में विवश हूँ, पाण्डेय जी के स्नेह के समक्ष। भारतीय आध्यात्मिक परम्परा उन लोगों के लिए एक समस्या है जिनके लिए अध्यात्म एकायामी साधना मात्र है। इसलिए जिन लोगों के समक्ष 'सामी धर्मों का निदर्श है उनको सनातन धर्म बोधगम्य नहीं हो पाता। इस धर्म में साधनाओं के अनेक रूप हैं। इन रूपों को केन्द्र में रखकर ढेर सारे सम्प्रदायों का आविर्भाव हुआ है। सम्प्रदायों की बहुलता के नाते पाश्चात्य दृष्टि से सम्पन्न भारतीय विद्वान भी भ्रमित हो जाते हैं। रोमिला थापर ने हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) को 'सिन्डिकेटेड' हिन्दुइज्म' की संज्ञा से अभिहित किया है। वे यह समझ नहीं पाई कि विभिन्न सम्प्रदाय विशिष्ट भाव-सम्पन्न परम्परा के प्रतीक हैं। आनन्द कुमार स्वामी ने एक वाक्य में भारतीय आध्यात्मिक परम्परा की सम्पन्नता को अभिव्यक्त किया है। उन्होंने कहा: "There are distinction without difference"
अर्थात् विभिन्न सम्प्रदयों की अपनी विशेषताएँ हैं, किन्तु उसमें मूलतः अन्तर नहीं। यह बोध पाण्डेय जी की कृति के केन्द्र में स्थित है। तत्त्वतः विभिन्न सम्प्रदाय "एकोहिसद् विप्राः बहुधा वदन्ति" हैं।
आध्यात्मिक-बोध जीव के लिए सहज नहीं होता। अविश्वास, जिज्ञासा और सन्देह का मिला-जुला ताना-बाना जीव की सामान्य प्रवृत्ति है। यह निराधार नहीं है कि सनातन धर्म में कुफ्र की अवधारणा ही नहीं है। उनके लिए आध्यात्मिक पथ व्यक्ति के संस्कार और उसकी पात्रता पर आधारित है। श्री रामकृष्ण परमहंस देव ने अपने शिष्यों को उनकी पात्रता के अनुसार आध्यात्मिक मार्ग निर्धारित किया था। कोई भक्ति-मार्ग का अधिकारी था और कोई कर्म-मार्ग या ज्ञान-मार्ग का। जिसको भक्ति-मार्ग निर्धारित किया उसके लिए वेदान्त सम्बन्धी पुस्तकें अथवा महानिर्वाण-तन्त्र पढ़ने की संस्तुति नहीं थी। इसी प्रकार ज्ञानमार्गी के लिए विशेषकरअद्वैतवाद की साधना के लिए भक्ति-साहित्य के अनुशीलन की संस्तुति नहीं थी। अध्यात्म शब्द ही किन्हीं अर्थों में व्यक्तिपरकता को संकेतित करता है। इसका उद्देश्य है बद्धमूल संस्कार का निर्मूलन। जीव की सोपाधिकता संस्कार के नाते है। इनमें मुक्ति विभिन्न मार्गों का गन्तव्य है। इसलिए ग्रहीता जिस विधि से बोध प्राप्त कर सकता है, गुरु उसी मार्ग को निर्दिष्ट करता है। अकारण नहीं कि गुरु का महत्त्व आध्यात्मिक परम्परा में अप्रतिम है।
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist