भारत के प्रमुख शिक्षा-केन्द्र के रूप में पूज्य स्वामी दर्शनानन्दजी महाराज द्वारा मूलतः सिकन्दराबाद में सन् 1898 में संस्थापित गुरुकुल वृन्दावन ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। पूज्य स्वामी नित्यानन्द सरस्वती की मूल प्रेरणा एवं कुँवर हुकमसिंह रईस के प्रयत्न से सुप्रसिद्ध राष्ट्र-भक्त एवं शिक्षा-प्रेमी क्रान्तिकारी राजा महेन्द्रप्रताप द्वारा प्रदत्त उद्यान, भवन तथा विशाल भूमि पर बने भारतीय विद्या के इस केन्द्र में विश्व के विभिन्न देशों से आकर विद्यास्नात स्नातक रत्नों ने भारतीय संस्कृति की पताका देश-विदेशों में फैलाकर इसकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगाए। यही कारण है कि उस समय महात्मा गाँधी, सी.एफ.एण्डूज, पं. मदन मोहन मालवीय, पं. गोविन्दवल्लभ पन्त, पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, श्री लाल बहादुर शास्त्री, श्री अनन्तशयनम् अयंगार प्रभृति सभी प्रमुख राष्ट्रपुरुषों ने यहाँ पधारकर संस्था की भूरिशः प्रशंसा करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया।
संस्थान के अनुसन्धान विभाग के अन्तर्गत शोधपीठ सक्रिय हैं-
1. आचार्य धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री 'प्राच्यविद्यापीठ'। 2. वैद्य पं. उमाशंकर शर्मा 'आयुर्वेदपीठ'। 3 आचार्य विश्वेश्वर साहित्य शास्त्र- 'दर्शनशास्त्रपीठ'। 4 आचार्य विजयेन्द्र स्नातक 'हिन्दी पीठ'। 5 श्री आदित्यप्रकाश आर्य 'आदित्यपीठ'।
जिन तपः पूत सारस्वत स्नातकों एवं पूर्व विद्यार्थियों ने अपने यशः शरीर की अलौकिक आभा से मण्डित कर संस्था के अमरत्व को अक्षुण्ण बनाया है, उनमें सर्वप्रथम स्नातक हैं-डॉ. धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री, पं. द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री, आचार्य बृहस्पति, वैद्य विद्याभूषण, महाकवि मेधाव्रत, आचार्य विश्व बन्धु, आचार्य विश्वेश्वर, कविराज रत्नाकर शास्त्री, श्री वीरेन्द्र सिंह पंवार, आचार्य विजयेन्द्र स्नातक आदि!
परमपिता परमेश्वर की महती अनुकम्पा से श्रेष्ठि प्रवर साहित्य प्रेमी, वैदिक धर्मानुरागी उदारमना दानवीर श्री आदित्यप्रकाश आर्य द्वारा स्थापित 'आदित्यपीठ' की ओर से तृतीय पुष्प के रूप में प्रकाशनमाला का अमूल्य उपहार पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए अपार प्रसन्नता हो रही है।
श्री शंकरदेव पाठक द्वारा सम्पादित 'अष्टाध्यायी सूत्रपाठः' (अनुवृत्ति एवं गणपाठ सहित) एवं डॉ. रूप किशोर शास्त्री द्वारा सम्पादित 'दयानन्द निरुक्ति व्युत्पत्ति कोषः' के अनन्तर इस पीठ द्वारा डॉ. रूप किशोर शास्त्री द्वारा लिखित उक्त पुस्तक भी अध्येताओं की ज्ञान पिपासा को शान्त कर उन्हें अपूर्व तृप्ति प्रदान करेगी, ऐसी आशा है। साथ ही आज के छात्र वर्ग को धर्म, संस्कृति तथा दर्शन से सम्बद्ध मूल्यों से अवगत कराकर उन्हें जीवन में प्रतिष्ठित करने में उक्त पुस्तक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी, ऐसा विश्वास है।
प्रस्तुत पुस्तक "धर्म दर्शन संस्कृति" पर लिखा जाना मैं सुखद एवं उपयोगी इसलिए मानता हूँ, क्योंकि उक्त विषय गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्नातक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में निर्धारित है। यह विश्वविद्यालय प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा स्थापित एवं आर्यसमाज द्वारा संचालित है। महर्षि दयानन्द एवं आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य संसार को श्रेष्ठ बनाने पर बल देने एवं मूर्तरूप प्रदान करने के लिए वैदिक धर्म के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करके निश्चित रूप से मानव कल्याण कर रहा है। ढोंग, पाखण्ड, कुरीति निवारण, दबे पिछड़े व वंचितों को उनके अधिकार दिलाने, समानता लाने, गुरुकुल शिक्षा प्रणाली द्वारा शिक्षा क्षेत्र में व्याप्त भेदभाव मिटाने तथा सत्य की स्थापना करने के लिए विश्वविद्यालय की 1900 ईस्वी में स्थापना की गई थी।
चूँकि पिछले कुछ समय से संसार में एक ऐसा विकट झंझावात आया है कि प्रायः अधिकांश लोग सद्धर्म एवं सुसंस्कृति किस वस्तु का नाम है, भूलते जा रहे हैं, विशेषकर वर्तमान पीढ़ी। नौजवानों की आम धारणा है कि धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता से क्या प्रयोजन ? यह तो बुजुर्गों, सेवानिवृत्त लोगों, सन्यासियों की चीज है। यहां तक तो गनीमत है, कुछ भाई तो स्पष्ट कह देते हैं कि समाज में लड़ाई-झगड़ा, खून-खराबा और अशान्ति फैलाने की ये बातें हैं, उनका यह सोचना उचित है। इसके पीछे क्या कारण है? इस वैचारिक पृष्ठभूमि के पीछे संक्षेप में, मैं प्रमुख रूप से एक ही कारण बताना चाहूँगा और वह है "लोगों का अज्ञानवश सर्वनियन्ता, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ परमात्मा के विराट् स्वरूप को छोड़कर समय-समय पर हुए तथाकथित अवतार, पैगम्बर, नवी को ही ईश्वर या सब कुछ समझ बैठकर उनके द्वारा चलाई गई बातों को ही एक मात्र प्रमाण मानकर उसके पीछे लट्ठ, स्टेनगनें और बमों को लेकर चलना।" बस शुरू होता है यहां से फसाद। हालांकि भगवान् के नाम की दुहाई सभी देते हैं परन्तु महिमा मण्डन एवं श्रेष्ठता अपने-अपने अवतार, पैगम्बर, नवी, गुरु, तीर्थङ्कर आदि की ही सिद्ध करते व मानते हैं और उन्हीं का अनुसरण किया जाता है चाहे उचित हो या अनुचित।
संसार के इतिहास में महर्षि दयानन्द ही एकमात्र ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने, ढोंग, आडम्बर, अज्ञान, गुरुडम, अवतार, पैगम्बर, नवी, तीर्थङ्करवाद की मजबूत दीवारों को अपने द्वारा कृत वेदभाष्य, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका; एवं सत्य प्रचार के ज्ञानमय तर्क व प्रमाणों की शक्तिशाली चोटों से ध्वस्त करने का कार्य किया। इन्होंने समग्रक्रान्ति एवं शान्ति के लिए जहाँ आर्यसमाज आन्दोलन की स्थापना की (मत की नहीं) वहीं उनकी यह अद्भुत घोषणा कि "मैं अपना कोई मत या समुदाय चलाने नहीं आया हूँ अपितु सत्य सनातन अखिल ज्ञान-विज्ञान के भण्डार वेदों की सर्वकल्याणमयी वाणी का ही प्रचार-प्रसार करने आया हूँ।" उनकी दूसरी विशेष बात और कि "मेरी मृत्यु के पश्चात् मेरे नश्वर शरीर का पूर्ण विधि के साथ अन्तिम संस्कार करके उसकी भस्म को गरीब किसानों के खेतों में बिखेर देना, मेरा कोई भी स्मारक, समाधि, मठ या मन्दिर न बनाना और न ही पूजा करना, क्योंकि मैं भी अन्य प्राणियों की तरह ही एक प्राणी हूँ।
हम सभी लोगों का इस संसार में आगमन हुआ है अतः यहाँ की सभी समस्याओं से जूझना भी हमारा कर्तव्य है। वास्तविकता जानना भी आवश्यक है। इस दृष्टि से उक्त पुस्तक जो पाठ्यक्रम में निर्धारित है, यद्यपि धर्म, दर्शन और संस्कृति के समस्त पहलुओं के एक प्रतिशत की भी जानकारी देने का दावा नहीं करती, उस ज्ञान का तो अनन्त भण्डार है, हाँ इतना अवश्य है कि उस दिशा की ओर बढ़ने एवं चिन्तन में सहायक होगी। पल्लवग्राह्य जानकारी आज के समय की मांग और जरूरत है। इस दृष्टि से यह पुस्तक अध्येता छात्रों के लिए धर्म, दर्शन, संस्कृति के सम्बन्ध में यथाशक्ति परिचित कराने में नितान्त उपयोगी सिद्ध होगी।
गत कुछ वर्षों से गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के विवेकी शिक्षाविदों एवं अधिकारियों ने स्नातक कक्षा के छात्रों को अन्य विश्वविद्यालयों की लीक से हटकर एक ऐसा पाठ्यक्रम प्रारम्भ किया, जिसका अध्ययन करने के उपरान्त विद्यार्थी जहां अपने धर्म, दर्शन, संस्कृति के मौलिक सिद्धांतों की जानकारी रखें, इसके अतिरिक्त विद्यार्थी के व्यक्तित्व और जीवन में निखार तो आए ही, साथ ही विश्वविद्यालय का अपना विशेष शैक्षिक स्वरूप और पहचान भी बुलन्दी पर कायम रहे। वस्तुतः यह पाठ्यक्रम निर्धारण का प्रयोग अत्यन्त सफल रहा। इसकी आवश्यकता और उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए गत 12 वर्ष से बी.ए., बी.एस-सी. के समस्त समूहों में उक्त पाठ्यक्रम सुचारूरूप से अनवरत चल रहा है।
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