संस्कृत भाषा का साहित्य प्राचीन काल से ही अपने ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ सहृदय-हृदय को आनन्द प्रदान करने के लिए प्रसिद्ध रहा है। जिस प्रकार संस्कृत भाषा के विशेषज्ञ वैदिक ऋषियों ने वेदों की रचना कर मानव जीवन के कल्याणार्थ समर्पित किया, उसी प्रकार संस्कृत भाषा साहित्य की परम्परा का अनुसरण करते हुए लौकिक संस्कृत साहित्य के विद्वान् मनीषियों ने विपुल ज्ञान-विज्ञान के स्रोत का सृजन एवं व्याख्यान किया है। प्राचीन लौकिक संस्कृत भाषा साहित्य से परम्परानुगत आधुनिक संस्कृत के रचनाकारों ने भी संस्कृत की विविध विधाओं में काव्य-साहित्य का सर्जन किया है। संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डितों ने संस्कृत साहित्यरचना को विभिन्न कालों में विभक्त कर प्रतिष्ठित किया है। इसी कालक्रम की कड़ी आधुनिक संस्कृत साहित्य भी है। आधुनिक संस्कृत साहित्य का काल विभिन्न संस्कृत के विद्वानों द्वारा पण्डितराज जगन्नाथ के पश्चात् का माना गया है। 17वीं शताब्दी से वर्तमान तक का विरचित समग्र साहित्य आधुनिक काल के अन्तर्गत ही प्रतिष्ठित है। आधुनिक संस्कृत साहित्य को भी कतिपय संस्कृत के आधुनिक विद्वानों ने उसके विविध साहित्य के आधार पर विभाजित किया है। इस विभाजन के अन्तर्गत भी जो 20वीं तथा 21वीं शताब्दी के प्रारम्भिक समय तक का साहित्य है, वह अपनी समृद्धशाली परम्परा के साथ विशेषरूप से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है। इस समय के साहित्यकारों ने जिस प्रकार आधुनिक संस्कृत की विविध विधाओं में ग्रन्थों की रचना की है, उसी प्रकार इस काल की संस्कृत महाकाव्यों की परम्परा भी प्रगतिशील रही है। 20वीं तथा 21वीं शताब्दी में संस्कृत के विभिन्न विद्वानों ने जिन-जिन काव्यों, महाकाव्यों की रचना की है, उनमें आचार्य रेवाप्रसाद द्विवेदी के भी तीन महाकाव्य- उत्तरसीताचरितम्, स्वातन्त्र्यसम्भवम् एवं कुमारविजयम् महत्वपूर्ण तथा प्रसिद्ध हैं। इनमें उत्तरसीताचरितम् 10 सगर्गों का महाकाव्य है, जिसमें कवि ने जनक तनया सीता के उदात्तजीवन-चरित को अपनी मौलिक कल्पित कथावस्तु के साथ रामराज्याभिषेक के बाद की कथावस्तु से प्रारम्भ किया है। कवि ने इसमें सीता की उदात्त भावना का उद्घाटन करते हुए, उन्हें (सीता को) एक शान्त और गम्भीर त्री के रूप में उपस्थापित किया है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपना साहस नहीं खोती हैं। द्वितीय महाकाव्य स्वातन्त्र्यसम्भवम् है, जो भारत के स्वतन्त्रतासंग्राम (1857 ई०) की भूमिका से लेकर सन् 2011 ई० में अन्ना हजारे द्वारा भ्रष्टाचार के विरोध में किये गये आन्दोलन तक के इतिहास को प्रस्तुत करता है। 75 सर्गों में निबद्ध इस महाकाव्य में सनातन कवि रेवाप्रसाद द्विवेदी ने भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में भाग लेने वाले भारत के महान् राजनेताओं, वीराङ्गनाओं के जीवन चरित तथा उनके महत्वपूर्ण योगदान के मार्मिक इतिहास को प्रस्तुत किया है। यह अद्भुत महाकाव्य है, जो आधुनिक संस्कृत साहित्य में रचे गये महाकाव्यों की रीढ़ है। यह महाकाव्य तीन चरणों में प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय परिवर्द्धित एवं संशोधित संस्करण के रूप में प्रकाशित हुआ है। प्रथम संस्करण का प्रकाशन सन् 1986 ई० में हुआ था, जिसमें 1-28 सर्ग तक प्रकाशित हुये। द्वितीय संस्करण का प्रकाशन सन् 2001 में हुआ, जिसमें 5 सर्ग और कवि द्वारा जोड़े गये, जिससे सर्ग संख्या 33 हुई और भारत के इतिहास की कथा पुनः अग्रसर हुई। वर्तमान में यह महाकाव्य 75 सर्गों के साथ राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, दिल्ली से सन् 2011 में प्रकाशित हुआ है और इसमें अटलविहारी बाजपेयी के पश्चात् भारतीय राजनीति का वर्णन किया गया है। अतः इस महाकाव्य में अन्ना हजारे द्वारा किये गये आन्दोलन तक का भारतीय इतिहास सनातन कवि द्वारा वर्णित किया गया है। इस महाकाव्य में श्लोकों की संख्या 6064 होने से इसे षट्साहस्त्री महाकाव्य भी कहा जाता है।
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