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रीवा: मध्यप्रदेश में स्वाधीनता संग्राम- Rewa: Freedom Struggle in Madhya Pradesh

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Includes any tariffs and taxes
Specifications
Publisher: Swaraj Sansthan Sanchalanalay, Sanskriti Vibhag, Madhya Pradesh
Author Vikram Singh Baghel
Language: Hindi
Pages: 251
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 410 gm
Edition: 2023
ISBN: 9789393950178
HBP705
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Book Description

भूमिका

भारतीय इतिहास में एक नहीं, दो नहीं बल्कि अनेकों साक्ष्य भरे पड़े हैं, जिनसे विदित होता है कि हमारा भारत किसी न किसी विदेशी आक्रान्ता के द्वारा शिकार बनाया गया है। विदेशी आक्रान्ताओं की इसी कड़ी में सात समुन्दर पार से आये ब्रिटिश व्यापारियों ने भी भारत में व्यापार करते-करते भारतीय राजनीति में अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी प्रशासकीय पकड़ मजबूत कर दी और एक-एक करके भारतीय राज्यों को अपनी आधीनता में ले लिया।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद का यह ताण्डव जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया और भारत के हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों शासकों की संप्रभुता अपने अवसान के क्षितिज पर जा पहुँची, तब ये सभी एकजुट होकर भारत से ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समूल उखाड़ फेकने के लिए तत्पर हो उठे। उधर भारत की भोली-भाली जनता भी अंग्रेजी शासन के शोषण से प्रताड़ित थी। लेकिन जागरुकता एवं नेतृत्व के अभाव में वह किंकर्तव्यविमूढ़ थी। लेकिन जब भारत का शासक वर्ग ब्रिटिश शासन के विरूद्ध संगठित होकर उठ खड़ा हुआ, तो देश की दुःखी जनता का असंतोष भी फूट पड़ा और 1857 में भारत का असंतुष्ट शासक वर्ग, सैनिक और जनता तीनों ने एक झण्डे के नीचे खड़े होकर ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध अपना झण्डा ऊँचा किया, जिसके परिणामस्वरूप भारत में 1857 में स्वतंत्रता का महासमर सम्भव हुआ।

प्राचीन काल से ही विन्ध्य क्षेत्र का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। यहाँ पर अनेंक महापुरूषों एवं शूरवीरों का जन्म हुआ, जिनकी वीर गाथायें आज भी अमर हैं। ऐसे क्षेत्र के अंतर्गत वर्तमान रीवा-जिला भी स्थित है, जिसकी माटी से अमर शहीद रणमत सिंह, श्यामशाह और पद्मधर सिंह जैसे कई वीर सपूतों का प्रादुर्भाव हुआ है, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

मध्यप्रदेश के अन्य क्षेत्रों की भाँति रीवा जिले की जनता भी अंग्रेजी शासन की शोषणकारी नीतियों से पीड़ित थी और दूसरी तरफ दरबार के आन्तरिक मामलों में ब्रिटिश सरकार की बढ़ती जा रही दखलन्दाजियों से रीवा के महाराजा भी असंतुष्ट थे। अतः जैसे ही भारत में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा, वैसे ही रीवा में भी स्वतंत्रता संघर्ष का वातावरण निर्मित होने लगा। यह वातावरण तब और गर्माया, जब अगस्त 1857 में जगदीशपुर (बिहार) के प्रमुख क्रांतिकारी - सरदार कुँवर सिंह का रीवा जिले में पदार्पण हुआ। ऐसे वातावरण में विस्फोट के लिए मात्र एक चिन्गारी की आवश्यकता थी, और वह चिन्गारी तिलंगा (तेलंगाना का एक ब्राह्मण) की गिरफ्तारी के रूप में प्रकट हुई। रीवा के चार बघेल सरदार ठाकुर रणमत सिंह, श्यामशाह, धीरसिंह और पंजाब सिंह ने तिलंगा की गिरफ्तारी का विरोध किया।

रीवा के पॉलिटिकल एजेण्ट विलोबी ऑसबर्न के दबाव में आकर रीवा के महाराजा रघुराज सिंह को उक्त चारों सरदारों को राज्य से निष्कासित करने के लिए बाध्य होना पड़ा। उक्त चारों सरदार महाराजा रघुराज सिंह के घनिष्ठ एवं प्रियजन थे। राज्य से निष्कासन का आदेश होते ही चारों बघेल सरदारों ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध क्रांति का बीड़ा उठाया और रीवा जिले के असंतुष्ट सामन्त, जनता आदि सभी ने इन सरदारों के कुशल नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम में अपना सक्रिय योगदान दिया।

रीवा जिले के अंतर्गत होने वाले 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की सबसे प्रमुख विशेषता यह रही है कि जब पूरे भारत में क्रांति की आग लगभग ठंडी हो चुकी थी और शीर्ष स्तर के अधिकांश क्रांतिकारी या तो अपना बलिदान दे चुके थे, या फिर अंग्रेजों द्वारा बन्दी बना लिये गये थे; तब भी इस जिले के रणबाँकुरे ठाकुर रणमत सिंह के नेतृत्व में क्रांति की अलख को बुझने नहीं दिया। इस प्रकार रीवा जिले के क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता संग्राम को अगस्त, 1857 से मार्च, 1860 तक, सतत रूप से सक्रियता के साथ जारी रखा। दूसरी विशेषता यह थी कि यहाँ के क्रांतिकारियों ने मात्र जिले की सीमाओं में ही अपनी गतिविधियों को सीमित नहीं रखा बल्कि पश्चिम में सतना-नागौद और अजयगढ़ (पन्ना) तक, पश्चिमोत्तर सीमा में उत्तर प्रदेश के बाँदा और इलाहाबाद जिलों तक पूर्व में सीधी जिला के अन्तर्गत सिंगरौली तक, दक्षिण में शहडोल तथा छत्तीसगढ़ के अन्तर्गत जनकपुर एवं चांग-भखार तक के क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार की ईंट से ईंट बजा दी।

वस्तुतः अनेक कारणों से 1857 का स्वतंत्रता संग्राम अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त न कर सका। फिर भी इसका जनमानस पर किसी न किसी रूप में प्रभाव अवश्य पड़ा। इसके प्रभाव से लोगों को परस्पर संगठित होकर योजनाबद्ध तरीके से संघर्ष करने का अनुभव मिला जिससे जनमानस में जन-जागरण और राष्ट्रीय एकता को बल मिला। इसीलिए 1857 का स्वतंत्रता संग्राम असफल होकर भी प्रभावी रहा। इसी के प्रभाव से रीवा में जनजागरण के विभिन्न आयामों जैसे जगह-जगह शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना, पत्रकारिता का प्रादुर्भाव आदि को मूर्तरूप दिया जा सका। जिसके फलस्वरूप रीवा जिले में जन-जागृति सम्भव हो सकी, जो आगामी स्वतंत्रता आन्दोलनों की आधारशिला बनी।

रीवा जिले में जनजागृति के कारण महात्मा गाँधी द्वारा भारत में चलाये जा रहे आन्दोलनों का सीधा प्रभाव रीवा जिले में दिखाई पड़ता है। असहयोग आन्दोलन के प्रभाव से रीवा में यूथ लीग की स्थापना और दांडी मार्च व सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय 30 मई, 1931 को 'बघेलखण्ड कांग्रेस कमेटी की स्थापना सम्भव हुई। जो रीवा जिला में स्वतंत्रता आन्दोलन का आधार बनी। 'बघेलखण्ड कांग्रेस कमेटी' पर, रीवा के पवाईदार संघ, जो महाराजा गुलाब सिंह के पवाई रूल्स को लेकर असंतुष्ट था, का अधिक प्रभाव था। जो इस संस्था को आधार बनाकर 'पवाई रूल्स' को समाप्त करवाना चाह रहा था। इन असंतुष्ट पवाईदारों में हारौल नर्मदा प्रसाद सिंह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इसी गुट ने महाराजा गुलाब सिंह के विरूद्ध ब्रिटिश सरकार के पास शिकायतें भेजकर उनके विरूद्ध जाँच आयोग स्थापित करवा दिया। फलतः ब्रिटिश सरकार ने महाराजा गुलाब सिंह को आयोग के समक्ष उपस्थित होने के लिए इन्दौर बुलवा लिया, जिसके कारण रीवा में महाराजा गुलाब सिंह की वापसी के बावत् जन आन्दोलन शुरू हो गया। इसी बीच गाँधीजी ने 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन का उद्घोष किया, जिससे रीवा में चल रहा महाराजा की वापसी का जन आन्दोलन, भारत छोड़ो आन्दोलन में परणित हो गया। अंततः भारत छोड़ो आन्दोलन की समाप्ति के बाद ही कुछ शर्तों के साथ महाराजा गुलाब सिंह की रीवा वापसी हुई। रीवा वापसी के बाद 16 अक्टूबर, 1945 को गुलाब सिंह ने अपने ऊपर आरोपित शर्तों के विरूद्ध जाकर रीवा राज्य में उत्तरदायी शासन की घोषणा कर दी। इसके पश्चात् 1946-47 ई. रीवा में प्रजामण्डल और चावल वसूली आन्दोलन हुए।

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