"सफर की रात" एक ऐसा कहानी-संग्रह है जिसमें केवल समय नहीं बदलता, बल्कि उसके साथ समाज, सोच, रिश्ते और व्यक्ति का आंतरिक संसार भी बदलता है। इस संग्रह की कहानियाँ न तो केवल कल्पनाओं में जीती हैं और न ही केवल उपदेशात्मक हैं- ये जीवन की ठोस जमीन से उपजी हैं, अनुभवों की आग में तपकर तैयार हुई हैं। लेखक ने नारी मन की जटिलताओं, पुरुषों की संकोचभरी भावनाओं, वृद्धावस्था की सूनी गलियों, बचपन की अनकही इच्छाओं और समाज की कठोर सच्चाइयों को अपनी कहानियों में इतने सहज और प्रभावशाली ढंग से पिरोया है कि हर पाठक इनमें खुद को किसी न किसी रूप में पा सकता है।
संग्रह की पहली कहानी "विश्वास" इस बदलाव की शुरुआत करती है। यह कहानी उस समाज का प्रतिनिधित्व करती है जहाँ परंपरा और आधुनिकता एक साथ टकराते हैं, पर फिर भी उनमें समन्वय का मार्ग निकल आता है। सुरेखा, एक साधारण किसान परिवार की बहू, अपनी पढ़ाई के लिए ससुराल का समर्थन पाती है- यह अपने आप में बदलाव की प्रतीक है। कहानी में यह बात गहराई से उभरती है कि जब स्त्रियों को परिवार का समर्थन मिलता है, तब वे किसी भी लक्ष्य को प्राप्त कर सकती हैं। सुरेखा की सफलता केवल उसकी नहीं है, वह उसके पति मुनीलाल, सास-ससुर, और पूरे परिवार की साझी जीत है। पर इसी कहानी में यह भी दिखाया गया है कि समाज की सोच इतनी जल्दी नहीं बदलती। एक वृद्ध यह ताना देता है कि विवाह को कई साल हो गए पर अब तक संतान नहीं हुई- यहीं यह कहानी दर्शाती है कि स्त्र को हर मोर्चे पर खुद को साबित करना होता है, चाहे वह पढ़ाई हो, नौकरी हो या मातृत्व ।
"मन्नत" कहानी में जिस गहराई से नानी-बबलू-मामा के रिश्ते को गढ़ा गया है, वह पाठक के मन को भीतर तक झकझोर देता है। एक बच्चा, जो अपने ही घर में कभी 'भतीजा', कभी 'अतिथि' और कभी 'बोझ' बन जाता है- उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं, कोई निर्णय नहीं, केवल दूसरों की शर्तों के अनुसार जीवन जीने की मजबूरी है। माँ के हाथों से जुदा होता वह बालक पाठकों की आंखों में नमी ला देता है। नानी का संघर्ष, मामी की रूखाई और मामा की लाचार मजबूरी इन सबके बीच वह मासूम बालक अपनी पहचान खोजने में ही बड़ा हो जाता है।
"रमती" कहानी वृद्धा रमती की है, जो अपने पति की स्मृतियों में जीवन बिताती है। उसका पति हलदु अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उसका साथ और उसकी यादें इतनी जीवंत हैं कि रमती अकेली होते हुए भी अकेली नहीं है। कहानी में जब देश पर संकट आता है और लोग भूखे मरने लगते हैं, तो रमती अपनी सास से मिला हुआ सबसे प्यारा हार, जो उसकी यादों का प्रतीक है, उसे निकालकर दान कर देती है। वह कहती है। यदि यह हार किसी भूखे के पेट में रोटी बन सके, तो यही उसका सबसे बड़ा उपयोग है। यही 'मानवता' है। अपनी सुख-सुविधा छोड़कर दूसरों के जीवन में रौशनी भरना।
"सफर की रात" कोरोना काल की उस सच्चाई को सामने लाती है जो किताबों में दर्ज नहीं की गई। वह सच्चाई है प्रवासी मजदूरों की। यह कहानी मुन्ना और बबली के माध्यम से दो बातों को एकसाथ कहती है-एक, संकट में इंसान की जिजीविषा कितनी प्रबल होती हैय और दो, प्रेम और अपनत्व किसी सामाजिक पहचान के मोहताज नहीं होते। बबली का किरदार समाज के उस हिस्से से है जिसे हम 'हाशिये' पर मानते हैं, लेकिन इस कहानी में वह एक समर्पित जीवनसाथी, एक आत्मनिर्भर महिला और सबसे बढ़कर एक बेहद मानवीय इंसान के रूप में सामने आती है। कहानी का अंत जब ट्रक ड्राइवर उन्हें भोजन कराता है और कहता है- "दुनिया में इंसानियत जिंदा रहनी चाहिए" यही उस कहानी का सार है।
संग्रह की अन्य कहानियाँ भी समाज के अलग-अलग पहलुओं को दर्शाती हैं। "अनुभूति" और "बादल" जैसी कहानियाँ घरेलू जीवन के भीतर चल रही पीड़ाओं, संवादहीनता, और स्त्रियों की घुटन को उजागर करती हैं। पार्वती जैसे पात्र हर घर में मिल जाते हैं- जो पूरे परिवार की परवाह करते हैं, लेकिन जिनकी खुद की इच्छाएँ, पसंद, नापसंद किसी को नहीं दिखाई देती। घर की सेवा करते-करते वे खुद को खो देते हैं, और फिर एक दिन जब वे थक जाती हैं, तब यह प्रश्न उठता है- "क्या मेरा जीवन केवल दूसरों की सेवा के लिए ही था?" ऐसी कहानियाँ केवल 'स्त्री विमर्श' नहीं हैं। यह हमारे समाज में घर के भीतर सहे जाने वाले उस मौन शोषण की गवाही हैं, जिसे हम अक्सर सामान्य समझ बैठते हैं।
"विश्वास", संग्रह की शीर्षक कहानी, केवल एक स्त्री की प्रगति की कहानी नहीं है। यह कहानी इस बात की मिसाल है कि बदलाव तब संभव है जब परिवार साथ दे। यहाँ परंपरा और आधुनिकता का समन्वय दिखता है, जहाँ एक किसान परिवार की बहू उच्च शिक्षा प्राप्त कर प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी करती है, और उसके सास-ससुर उसे प्रोत्साहित करते हैं। लेकिन साथ ही यह भी दिखाया गया है कि समाज की अपेक्षाएँ कैसे स्त्रे को बार-बार उसके 'मूल' दायित्व की ओर खींच लाते हैं- जैसे कि मातृत्व । सुरेखा अपनी सास से कहती है, "माँ, अभी दो साल और दीजिए, फिर देखिए कैसे पोते-पोतियों से घर भर जाएगा।" यह संवाद हमें स्त्री की समझदारी, संतुलन और आत्म-निर्भरता को दिखाता है।
"काला अंगूर" जैसी कहानी रंगभेद, रूपभेद और जातिगत पूर्वाग्रह पर गहरी चोट करती है। समाज में अभी भी स्त्रियों का मूल्यांकन उनके रंग, नाक-नक्श और बाहरी सौंदर्य से होता है। यह कहानी उन मानसिक दीवारों को गिराने की कोशिश करती है, जो अब भी हमारे भीतर मौजूद हैं।
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