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सागर: मध्यप्रदेश में स्वाधीनता संग्राम- Sagar: Freedom Struggle in Madhya Pradesh

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Specifications
Publisher: Swaraj Sansthan Sanchalanalay, Sanskriti Vibhag, Madhya Pradesh
Author Brajesh Kumar Shrivastava
Language: Hindi
Pages: 393
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 580 gm
Edition: 2023
ISBN: 9789393950239
HBP788
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Book Description

भूमिका

सागर जिले में 1857 ई. का स्वातंत्र्य समर भारतीय इतिहास में अपना एक विशिष्ट स्वरूप उजागर करता है। जहां अखिल भारतीय स्तर पर ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध प्रथम स्वातंत्र्य समर 1857 ई. में आरंभ हुआ, वहीं यह सागर जिले में तो 15 वर्ष पूर्व 1842 ई. में बुन्देला क्रांति के रूप में आरंभ हो चुका था। बुन्देला सेनानियों ने 1842 की क्रांति के समय का चयन बहुत ही अच्छा किया था। ऑकलैंड (1836-42 ई.) की अव्यावहारिक नीति के कारण इस समय अधिकांश ब्रिटिश फौज अफगानिस्तान युद्ध (1839-42) में व्यस्त थी। एक ओर अफगानिस्तान में अंग्रेजों को पराजय झेलना पड़ी तो दूसरी ओर सागर स्थित बुन्देला सेनानियों ने सागर स्थित अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। बुन्देला क्रांति की तीव्रता से ब्रिटिश अधिकारी थर्रा उठे। चार्ल्स फ्रेजर एवं हैमिल्टन ने बुन्देला क्रांति के दमन के लिए शाहगढ़ राजा बखतवली एवं बानपुर राजा मर्दनसिंह से सहायता की याचना की। फलतः इन दोनों राजाओं की मदद से ही ब्रिटिश सरकार बुन्देला क्रांति का दमन करने में सफल हो सकी।

कतिपय नैतिक एवं निजी कारणों से बखतवली एवं मर्दनसिंह ने आवश्यकता पड़ने पर ब्रिटिश सरकार की मदद तो की मगर बाद में उन्होंने अपने आपको ब्रिटिश सरकार द्वारा ठगा सा महसूस किया। ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध उनके मन में आक्रोश व्याप्त हो गया। 21 नवम्बर, 1853 को झांसी के राजा गंगाधर राव की मृत्यु पर शोक संवेदना प्रस्तुत करने दोनों राजा झांसी गये। यहां तात्या टोपे एवं रानी लक्ष्मीबाई से मिलकर इन राजाओं ने 1857 की क्रांति की एक सशक्त व्यूह रचना तैयार की। इसका उल्लेख रानी के राजा मर्दनसिंह को लिखे पत्र में स्पष्टतः मिलता है, जिसमें वह लिखती हैं "आपर अपुनी व राजा शाहगढ़ वारे व नाना साहब व तात्या टोपे की सलाह भई ती कै सुराज भयो चाहिजे भारत अपुन कौ देश है विदेसियों की गुलामी में रहबौ अच्छो नहीं उनसे लड़वो अच्छो है।"

रानी का यह पत्र एक साथ तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य उजागर करता है-

1. सर्वप्रथम स्वराज शब्द का उल्लेख रानी लक्ष्मीबाई ने किया था।

2. रियासतों के राजा भारत को अपना देश मानकर उसे ब्रिटिश हुकूमत से मुक्त कराने लड़ रहे थे, अतः निश्चित तौर पर यह भारत का प्रथम स्वातंत्र्य समर था।

3. सागर क्षेत्र में स्थित शाहगढ़ का राजा इस अंग्रेज विरोधी व्यूह रचना में शामिल था।

मेरठ (10 मई), झांसी (4 जून) एवं ललितपुर (12 जून) में 1857 की क्रांतिरूपी उफनती नदी का सागर आना तय मानकर ब्रिगेडियर सेजे ने सागर में छावनी स्थित आवास खाली करा लिये। शनिवार 27 जून की शाम ही पूरे 370 अंग्रेजों (173 पुरूष, 63 महिलाएँ एवं 134 बच्चों) ने क्रांति के आरंभ के खौफ मात्र से सागर के मजबूत किले में शरण ले ली। अंग्रेज अधिकारियों का डर सच निकला क्योंकि सागर में अपेक्षित क्रांति का शंखनाद 42वीं देशी पल्टन के सीनियर सूबेदार शेख रमजान ने 1 जुलाई, 1857 को मस्जिद के द्वार पर नगाड़ा बजा कर किया।

सागर जिले में क्रांति भले ही देर से हुई मगर शीघ्र ही राजा बखतवली, राजा मर्दन सिंह, बोधन दौआ, गढ़ी अम्बापानी के नबाब बन्धुओं ने मात्र सागर के किले को छोड़कर समस्त सागर जिले पर अधिकार कर लिया। सागर जिले में स्थित ब्रिटिश अधिकारियों पर क्रांतिकारियों के छाये खौफ का स्पष्ट उल्लेख डिप्टी कमिश्नर मेजर डब्ल्यू. सी. वेस्टर्न द्वारा कमिश्नर एर्सकाइन को भेजे गये पत्रों में मिलता है। लोकगीतों में भी मर्दन सिंह एवं बोधन दौआ के अंग्रेजों पर छाये आतंक की अनुगूँज स्पष्टतः सुनाई देती है।

370 अंग्रेज यह नहीं जानते थे कि वे शनिवार को गहरी नींव देकर सागर के किले में शरण ले रहे हैं जहां से पूरे 7 माह 7 दिन अर्थात 222 दिन बाद ही उन्हें मुक्ति मिलेगी। यह मुक्ति दिलाई उन्हें 3 फरवरी, 1858 को ब्रिगेडियर जनरल ह्यूरोज ने जब उसने सेन्ट्रल इंडिया फोर्स द्वारा सागर जिले में 1857 की क्रांति का दमन किया।

1857 की क्रांति के दौरान सागर जिले में हिन्दू एवं मुसलमानों ने कन्धे से कन्धा मिलाकर सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल प्रस्तुत की। इससे सबक लेकर अंग्रेजों ने आगामी समय में फूट डालो एवं राज्य करो की नीति सागर में भी अपनायी। 1920 ई. में सागर से 8 मील दूर रतौना ग्राम में ब्रिटिश सरकार ने 1400 पशु प्रतिदिन काटे जाने वाला एक कसाईखाना खोलने की योजना आरंभ की। मुस्लिमों को अपने पक्ष में रखने के लिये प्रासपेक्टस में कहा कि गाय बैल ही काटे जाएंगे, सुअर कदापि नहीं काटे जाएंगे। मगर सरकार का यह दाँव उस समय उलटा पड़ गया जब इस कसाईखाने का सबसे प्रबल विरोध एक 19 वर्षीय नवयुवक भाई अब्दुल गनी ने सागर जिले में एक सशक्त जन आन्दोलन चला कर किया। माखनलाल चतुर्वेदी ने अपने पत्र 'कर्मवीर' एवं लाला लाजपतराय ने अपने पत्र 'वन्दे मातरम' द्वारा इस कसाईखाने का प्रबल विरोध किया। सरकार घबरा उठी और सितम्बर 1920 में कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन के दौरान यह कसाईखाना बन्द करने की सूचना भिजवा दी। समस्त भारत में सागर जिले में ही ब्रिटिश सरकार की यह प्रथम प्रशासनिक शिकस्त थी।

1920-22 ई. के असहयोग आन्दोलन, 1923 ई. के झण्डा सत्याग्रह, 1930 ई. के सविनय अवज्ञा आन्दोलन / जंगल सत्याग्रह में भी सागर जिले की जनता ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 3 दिसम्बर, 1934 को गांधी जी के सागर आगमन से यहां की जनता में अत्यधिक उत्साह का संचार हुआ जिसकी स्पष्ट परिणति 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में दिखाई दी। 1947 में भारत स्वतंत्र होने के पश्चात सागर जिले से सहोद्रा राय एवं केसरी चंद मेहता ने गोआ जाकर गोआ मुक्ति आन्दोलन (1955-61 ई.) में भी भाग लिया।

सागर में स्वातंत्र्य समर के उक्त समस्त पहलुओं की सांगोपांग एवं तथ्यपरक विवेचना मैंने अपनी इस पुस्तक में करके गागर में सागर भरने का प्रयास किया है।

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