बीसवीं शताब्दी के मूर्धन्य भारतीय साहित्यकार श्री विश्वनाथ सत्यनारायण के तेलुगु बृहत् उपन्यास 'बेयिपडगलु' का हिन्दी अनुवाद 'सहस्रफण' हिन्दी पाठकों के कर कमलों में अर्पित करते हुए मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है। जो लोग श्री सत्यनारायण से परिचित हैं, वे कई वर्षों से अनुभव करते आये हैं कि सत्यनारायण जी की प्रखर प्रतिभा केवल एक भाषा-भाषी प्रान्त तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, क्योंकि एक ही प्रान्त में वह समा नहीं सकती। श्री सत्यनारायण का साहित्यिक व्यक्तित्व अनूठा है, अनन्य-सामान्य है, अद्वितीय है। उनमें कई ऐसे गुण हैं जो साधारणतया एक व्यक्ति में इकट्ठे नहीं पाये जाते। उनके साहित्यिक व्यक्तित्व में साहित्यिकता कितनी है, वैचारिकता कितनी मात्रा में है, भावुकता किस प्रमाण में है और रसात्मकता कहाँ तक सम्पन्न हुई है-इन बातों का विश्लेषण कठिन है। आज तक यह विश्लेषण किसी ने किया भी नहीं है। तथापि यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि श्री विश्वनाथ सत्यनारायण का साहित्य अनुसन्धान एवं गवेषणा के उत्सुक साहित्यिकों के लिए विस्तृत तथा अक्षुण्ण क्षेत्र प्रस्तुत करता है।
श्री विश्वनाथ सत्यनारायण तेलुगु साहित्य में चोटी के कवि हैं, चोटी के उपन्यासकार हैं, चोटी के नाटककार हैं, चोटी के कहानीकार एवं आलोचक हैं। यह हुआ उनके साहित्यिक स्थान का निर्देश। परन्तु यह निर्देश अस्पष्ट ही कहलाएगा। उनकी अपनी विशेषता तो सर्वतोमुखी प्रतिभा में है। प्रचलित साहित्यिक विधाओं में उन्होंने किसी को नहीं छोड़ा; सभी को अपनाया और सभी में अपनी प्रतिभा को चमकाया। कवि के रूप में सत्यनारायण जी का वैशिष्ट्य विशेष उल्लेखनीय है। 'श्रीमद्रामायण कल्पवृक्ष' नाम से सम्पूर्ण रामायण महाकाव्य की रचना करके उन्होंने इस आधुनिक युग में एक अद्भुत कार्य किया है। कई विद्वानों का मत है कि तेलुगु में आज तक जितनी रामायणों की रचना हुई है, उन सब में यह 'कल्पवृक्ष' मुकुटायमान है। कई साहित्यिकों का यह भी मत है कि श्री सत्यनारायण आदि से अन्त तक तत्त्वतः कवि और केवल कवि हैं, चाहे वे कोई भी रचना कर रहे हों। इस मूल्यांकन से सब लोग सहमत हों या न हों, परन्तु सत्यनारायण जी की सभी रचनाओं में जो काव्यमयता सामान्य गुण के रूप में विद्यमान है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता।
'रामायण कल्पवृक्ष' महाकाव्य के अतिरिक्त सत्यनारायण जी ने अनेक खण्ड-काव्यों और गीत-काव्यों की रचना की है। उनकी सिद्धहस्तता इसी बात से प्रकट होती है कि उनके लिखे हुए 'किन्नरसानी पाटलु' नामक गीत आन्ध्र प्रदेश के लाखों पाठकों को आनन्द-विभोर करने में समर्थ हुए हैं। महाकाव्य एवं गीत-इन दोनों का एक ही लेखनी से निकलकर समान रूप से लोकप्रिय होना प्रायः अन्यत्र बहुत कम देखने में आता है।
उपन्यासकार एवं कहानीकार के रूप में श्री विश्वनाथ सत्यनारायण का व्यक्तित्व अत्यन्त व्यापक है, महान् है, विराट् है। यहाँ भी कहना होगा कि एक ही लेखनी से इतनी भिन्न-भिन्न प्रकार की रचनाओं का निकलना अत्यन्त विलक्षण है। क्या वस्तु में, क्या भाषा में, क्या शैली में, क्या कथानक में सत्यनारायण जी की रचनाओं में जो विविधता पाई जाती है, उसे देखते ही बनता है। तिनके से लेकर ब्रह्माण्ड तक कोई भी बस्तु और कोई भी व्यक्ति सत्यनारायण जी के संवेदनशील अनुशीलन का विषय बन सकता है, बनता आया है। चरित्र-चित्रण एकदम अनूठा है, वैचित्र्यपूर्ण है। तथापि उनके पात्र सीधे 'जीवन-मंच' से आये हुए होते हैं, किसी काल्पनिक 'रंगमंच' से नहीं। उनके पात्रों के चरित्रों का रेखांकन (delineation) वास्तव तथा कल्पना का अत्यन्त रोचक सम्मिश्रण प्रस्तुत करता है। पात्रों में वास्तव स्पष्ट दीखता है, परन्तु साथ-साथ कल्पना भी जहाँ-तहाँ झाँकती रहती है। यह उनकी एक मुख्य विशेषता है।
सैद्धान्तिक रूप से श्री विश्वनाथ सत्यनारायण साहित्य में ध्वनि-प्रधानता के प्रवल समर्थक हैं। प्राचीन साहित्यिक सिद्धान्तों पर उनका इतना अधिकार है कि उन्हें विद्वद्धृन्द 'अभिनव मल्लिनाथ' कहते हैं। तेलुगु और संस्कृत के कुछ महाकाव्यों में किये गये शब्द-प्रयोगों तथा ध्वन्यात्मक विशिष्टताओं के विषय में उन्होंने अनेक लेख लिखे हैं। लेखों के अतिरिक्त प्रायः सैकड़ों व्याख्यान भी दिये हैं। सत्यनारायण जी का व्याख्यान श्रोताओं के लिए एक उदात्त अनुभव होता है। उनकी वाणी कहीं गंगा की तरह धीर गम्भीर, कहीं पर्वत से कूदने वाली निर्झरिणी की तरह उतावलापन लिये हुए, कहीं बादलों की गड़गड़हाट जैसी भयानक और कहीं कोकिल के पंचम-स्वर का अनुसरण करने वाली होती है ! शब्दों में अर्थ-सौष्ठव के साथ-साथ शब्द प्रयोग में स्वतन्त्र रूप से सार्थक ध्वनियों के वाहक शब्दों का आयोजन श्री विश्वनाथ सत्यनारायण को विशेष आकर्षित करता है। इसी को वे उत्तम कोटि का साहित्य मानते हैं और औरों से मनवाने की निरन्तर चेष्टा करते हैं। इसी का वे स्वयं अपनी रचनाओं में भरसक अनुष्ठान करते हैं।
इस प्रकार श्री विश्वनाथ सत्यनारायण साहित्यिक क्षेत्र में अद्वितीय स्थान के अधिकारी हैं। विस्तार, विविधता, विद्वत्ता, गम्भीरता, उदात्तता, सहृदयता, रसात्मकता-ये सभी गुण उनके साहित्यिक व्यक्तित्व में प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं।
इस साहित्यिक वैशिष्ट्य के साथ-साथ श्रीं विश्वनाथ सत्यनारायण का वैचारिक पक्ष है जो उनकी सारी रचनाओं पर अपनी अमिट छाप डाले हुए है। इस पक्ष को समझे बिना सत्यनारायण जी का साहित्यिक पक्ष भी पूर्ण रूप से नहीं समझा जा सकता। श्री विश्वनाथ सत्यनारायण एम. ए. भी हैं और प्राचीन परम्परा एवं संस्कृति के मर्मज्ञ भी। वेदों, उपनिषदों एवं शास्त्रों के वे अच्छे ज्ञाता भी हैं और साथ ही अँग्रेजी साहित्य तथा अन्य आधुनिक शास्त्रों के पारखी भी। उनके साहित्यिक व्यासंग का प्रारम्भिक काल देश के इतिहास में बड़े उथल-पुथल का काल था। इस प्रकार सत्यनारायण जी के व्यक्तित्व में परस्पर मेल न खाने वाले दो सांस्कृतिक प्रवाहों का समावेश हुआ। समावेश क्या हुआ, संघर्ष उत्पन्न हुआ। सत्यनारायण जी के विचार प्राचीन भारतीय वैदिक संस्कृति एवं परम्परा में शत-प्रतिशत पगे हैं। जैसा कि उन्होंने 'सहस्रफण' के नायक से कहलवाया है, वे सोलहों आने 'वैदिक' हैं। अँग्रेजी पढ़ाई की सत्ता के कारण एवं तत्कालीन ब्रिटिश सरकार का आसरा लेकर भारतीय संस्कृति पर निरन्तर दुराक्रमण करने वाले अन्य प्रभावों के कारण सत्यनारायण जी के व्यक्तित्व में एक प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति-सी उत्पन्न हुई। प्रतिभावान एवं विद्वान् होने के नाते किसी भी प्रकार के ढोंग से उन्हें चिढ़ थी। आधुनिक सभ्यता के नाम पर समाज में नये प्रकार के पाखण्ड एवं अन्याय का जो दौर-दौरा चल पड़ा, उससे सत्यनारायण जी की आत्मा खीझ उठी। हमारी संस्कृति के मूल तत्त्वों को समझे बिना ही उसकी ओछी आलोचना करने का जो फैशन सर्वत्र चल पड़ा था, उसका खण्डन करने के लिए सत्यनारायण जी की प्रभावशाली लेखनी वारम्बार उठी है। उनका तर्क पक्का है, विद्वत्ता अपार है, वाग्वैदग्ध्य अचूक है और सद्भावना अप्रतिम। एक बात में कहना हो तो "स्वधर्मे निर्धनं श्रेयः परधर्मो भयावहः"-यही उनकी वैचारिक पृष्ठभूमि का सारांश है। यह पृष्ठभूमि लगभग उनकी सारी रचनाओं में मिल सकती है। परन्तु सबसे अधिक व्यापक रूप में वह प्रायः 'सहस्रफण' में विद्यमान है।
'सहस्रफण' श्री विश्वनाथ सत्यनारायण का सर्वमान्य बृहत् उपन्यास है। 'ज्याँ क्रिस्टोफ़ी' जैसी रचनाओं की तरह इस उपन्यास में इतिहास भी है, समाजशास्त्र भी है, राजनीति भी है, प्राचीन संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ निरूपण भी है, कला की पराकाष्ठा भी है, शास्त्रार्थ भी है, डॉट-फटकार भी है और बहुत बड़ी मात्रा में रसात्मकता भी है। कुछ आलोचकों ने 'सहस्रफण' को उपन्यास कहना भी पसन्द नहीं किया था। प्रायः उनका मत इस अर्थ में ठीक है कि 'सहस्रफण' उपन्यास के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है।
'सहस्रफण' का मुख्य विषय है, भारतीय जीवन तथा जीवनदर्शन में वर्तमान 'सन्धिकाल' का विवेचन एवं विश्लेषण। लेखक ने एक ऐसे युग का चित्रण किया है जिससे प्राचीन मूल्यों का उच्चाटन हो रहा है, पर उनके स्थान पर उतने ही स्पृहणीय नये मूल्यों की स्थापना नहीं हो पाती। परिणाम है संघर्ष, अनिश्चितता, अवनति । ऊपरी तड़क-भड़क से चकाचौंध करने वाली तथाकथित आधुनिक सभ्यता में सचमुच कितना सार है, कितनी कल्याणकारिता है, कितनी लक्ष्य-शुद्धि है और कितना ढोंग और ढकोसला है-इसका मार्मिक विवेचन 'सहस्रफण' में किया गया है। उपन्यास का निष्कर्ष यह है कि भारतवर्ष में समाज-रचना की नींव हमारे चिन्तन-आदर्शों के आधार पर ही होनी उचित है। किसी और आधार पर वह नींव खोखली ही रहेगी।
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