'वन्दे मातरम्' के उद्घोष के साथ ही मन में स्वाभाविक रूप में राष्ट्रभक्ति का ज्वार उफनता है। इसलिए कि 'वन्दे मातरम्' अब मंत्र बन चुका है। जब शब्दों के साथ त्याग की शक्ति खड़ी होती है, तभी शब्द के मंत्र बन जाते हैं। यही 'वन्दे मातरम्' के साथ हुआ है। बंगाल के विभाजन के कारण देश जब ब्रिटिश सत्ता के विरोध में प्रक्षोभित हुआ, तब उस क्रोध को 'वन्दे मातरम्' शब्दों ने स्वर दिया। यह स्वर ब्रिटिशों की दृष्टि से इतना प्रलयंकारी था कि उन्होंने 'वन्दे मातरम्' के उच्चारण को अपराध घोषित किया। इसलिए 'बन्दे मातरम्' का केबल उच्चारण भी राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बन गया। वह राष्ट्रभक्तों को स्फूर्ति देने वाला मंत्र बन गया।
लेकिन 'वन्दे मातरम्' का महत्त्व यहीं पर समाप्त नहीं होता। राष्ट्रभक्ति का यह महामंत्र राजनीतिक मतभेदों का भी कारण बना। वास्तव में 'वन्दे मातरम्' यह गीत है, किसी राष्ट्रभक्त को अपनी राष्ट्रदेवता का हुआ साक्षात्कार ! इस गीत से अनुभूति होती है कि अपने पुत्रों को फूलों की कोमलता तरह सम्हालने वाली माता किस उनकी रक्षा के लिए कैसे असुरमर्दिनी का प्रलयंकारी रूप भी ले सकती है। राष्ट्र ही अपना जीवन सर्वस्व है। वही शक्तिरूपी दुर्गा है, वही लक्ष्मीरूपी सम्पदा है, सरस्वती के रूप में वही विद्या है तथा राष्ट्रदेवता की उपासना से शक्ति, सम्पत्ति, भक्ति, ज्ञान यह सभी प्राप्त किया जा सकता है, इस तरह का संस्कार देने का सामर्थ्य रखने वाला यह गीत है। परंतु, स्वतंत्रता की देवी की इस प्रतिमा प्रकटन पर कुछ मुस्लिम नेताओं ने आपत्ति व्यक्त की व इस गीत गायन का विरोध किया। इस विरोध के आगे काँग्रेस के नेता झुक गए और इस अनुनय की परिणिति भारत के विभाजन में हुई। एक तरह से इस गीत का इतिहास भारत के विभाजन का इतिहास रहा है।
इसलिए 'वन्दे मातरम्' का यह इतिहास स्वतंत्रता आंदोलन की प्रेरणा जगाने वाला, देश के विभाजन की दुःखद वेदना जागृत करने वाला, अपने राष्ट्र के सामूहिक कर्तृत्व पर विश्वास जगाने वाला है। इसी प्रेरणा से अध्येता मिलिंद सबनीस और शिल्पा सबनीस ने पिछले पंद्रह वर्षों तक अथक परिश्रम से 'वन्दे मातरम्' के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया और उससे 'समग्र वन्दे मातरम्' के दो खंड तैयार हो गए। इस तरह के राष्ट्रभक्तिपूर्ण साहित्य का प्रकाशन करना 'विवेक' का कर्तव्य तो है ही, परंतु इस प्रकल्प के इतिहास से भी 'विवेक' जुड़ा हुआ है। मास्टर कृष्णराव ने पंडित नेहरू के साथ जो सांगीतिक संघर्ष किया था उसकी जानकारी देने वाला मिलिंद सबनीस का लेख १९९९ में 'साप्ताहिक विवेक' में प्रकाशित हुआ था। उसे पढ़ने के बाद मास्टर कृष्णराव के पुत्र राजाभाऊ फुलंब्रीकर ने सबनीस को अपने घर बुलाकर 'वन्दे मातरम्' के संदर्भ में भरपूर साहित्य सौंप दिया। यह साहित्य प्राप्त होने पर इस सम्बंध में अधिकाधिक साहित्य संकलित करने की प्रेरणा सबनीस के मन में जागृत हुई। इन सभी बातों का उल्लेख सबनीस ने अपनी भूमिका में किया ही है।
मराठी में समग्र वन्दे मातरम् के दो खंड निर्माण करने के बाद स्वतंत्रता के अमृत महोत्सवी वर्ष में (७५) इस समग्र वन्दे मातरम् प्रकल्प का हिंदी भाषा में प्रकाशित होना अपने आप में एक मणिकांचन योग है। स्वतंत्र का पंचहत्तरवाँ साल मनाते समय भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का पुनःस्मरण, पुनः जागरण इस समग्र वन्दे मातरम् ग्रंथ के निर्मिति से होनेवाला है। स्वतंत्रता संग्राम के पचहत्तर साल बाद भी वन्दे मातरम् हमारी सांस्कृतिक धरोहर का मंत्र है और जबतक भारत है तबतक रहेगा। भारत में किसी कारणवश सामाजिक- सांस्कृतिक ग्लानी आएगी तो वन्दे मातरम् यह मंत्र ही कोटी कोटी जनोंकों प्रेरणा देकर पुनः देश को खडा करेगा। ऐसी विश्वास और श्रद्धा वन्दे मातरम् के प्रति हमारे मन में है। इसी कारण यह संकलन का काम श्री. मिलिंद सबनीस और शिल्पा सबनीस ने किया। और प्रकाशन का अवसर साप्ताहिक विवेक को दिया है। इस के लिए हम उन्हें हृदय से धन्यवाद देते है। समग्र 'वन्दे मातरम्' ग्रंथ पाठकों के हाथों में देते हुए हमें कर्तव्यपूर्ति का आनंद व संतोष मिल रहा है।
अनुवादक गंगाधर ढोबले जी ने कम समय में मराठी ग्रंथ का हिंदी में अनुवाद किया। चित्रकार वासुदेव कामत जी ने उनके दो चित्र ग्रंथ में उपयोग करने की अनुमति दी इस लिए हम विशेष रूप से आभारी है। इस उपक्रम को सफल बनाने के लिए अनेक हितचिंतकों का सहयोग प्राप्त हुआ है। उन सभी हितचिंतकों के तथा विशेष रुप से महाराष्ट्र गॅस नॅचरल लिमिटेड (MNGL) के हम आभारी है। धन्यवाद।
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