अपनी किताब के आख़िरी पन्ने पर श्रीमती ज्योत्स्ना प्रसाद ने लिखा है. "ये उपन्यास भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन को ठीक-ठीक समझने में हमारी मदद करते हैं। इन उपन्यासों का विषय ऐसा है जो काल-खण्ड की व्याख्या तो करता ही है साथ ही परिस्थितिवश हर काल-खण्ड के लिए किसी न किसी रूप में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि आये दिन धरती के किसी न किसी टुकड़े पर ऐसी घटनाएँ होती ही हैं। ये उपन्यास उन घटनाओं के परिणाम को लेकर सचेत करते हैं।"
इतिहास का यह 'समय' जिसमें हमलोग आज हैं, वह 'समय' विशेष है। पूरे हिन्दुस्तानी समाज के वायुमण्डल में इस समय स्वाधीनता की आवाज़, एक अनिवार्य आवाज़ के रूप में विद्यमान है। यह अनिवार्यता भक्तिकाल में आध्यात्मिक स्वाधीनता और आधुनिक युग में औपनवेशिक गुलामी से स्वाधीनता के ऐतिहासिक प्रसंगों से जुड़ जाती है। यह भी समझ में आने लगता है कि संघर्ष और सृजनशीलता एक-दूसरे को परिभाषित करने लगते हैं। इस क्रम में 'आन्दोलन और साहित्य' विचार की अधिक सार्थक अवधारणा के रूप में प्रस्तुत होता है। भक्ति आन्दोलन और स्वाधीनता आन्दोलन का हमारे साहित्य से गहरा सम्बन्ध है वह इस बात का प्रमाण है।
आन्दोलन का स्वरूप और प्रकृति ऐतिहासिक होती है। भक्ति आन्दोलन में अगर उपासना के अधिकार की ऐतिहासिक और सामाजिक माँग न होती तो वह आन्दोलन न होता। वह एक अध्यात्मिक प्रवृत्ति भर होता। उसी तरह यदि औपनवेशिक गुलामी से मुक्त होने की प्रबल राजनीतिक माँग न होती तो वह स्वाधीनता आन्दोलन न होता। पहले में आध्यात्मिक स्वाधीनता की माँग है तो दूसरे में राजनीतिक/ सामाजिक स्वाधीनता की माँग। दोनों कालों में स्वाधीनता की माँग परस्पर जुड़ी हुई है। दोनों में जो ऐतिहासिक और सामाजिक अन्तर्वस्तु है उसमें एक सीमा तक गहरी परस्परता दिखने लगती है। विद्रोह और समर्पण (ह. प्र. द्विवेदी) सहयोगी धारणाएँ बन जाती हैं। धर्मशास्त्र के प्रति विद्रोह और भगवत् भक्ति के प्रति समर्पण तथा औपनिवेशिक राजनीति के प्रति विद्रोह और जनता की स्वाधीनता के प्रति समर्पण में गहरी परस्परता उत्पन्न हो जाती है। इतना ही नहीं इनका सम्बन्ध साहित्य का एक प्रतिमान बनकर उभरने लगता है।
ज्योत्स्ना जी की आलोचना हर आलोच्य उपन्यास की विशेषताओं को अपने विश्लेषण में अलग करती हैं और किस तरह वे सभी उपन्यास एक वृहत्तर प्रसंग में सम्बन्धित हैं इसका संकेत करती हैं। वह वृहत्तर सम्बन्ध है 'स्वाधीनता'। स्वाधीनता का संघर्ष जहाँ भी है, जैसा भी है- इन सभी में फैले आकाश में प्रवेश करने की योग्यता उनकी आलोचना में निहित है।
मसलन जैसे आज हम सबकुछ को जकड़ती हुई सत्ता में जीने को बाध्य हैं लेकिन फिर भी बहुत सी आवर्जे ऐसी हैं जो आज की सत्तावादी जकड़नों को तोड़ती हैं। उसमें खतरा है तो आनन्द भी है। रबीन्द्र नाथ टैगोर ने एक किताब लिखी है- 'The Religion of an Artist', उसमें एक विशेष प्रसंग का उन्होंने उल्लेख किया है। उनका कहना है कि उनका परिवार, राजा राम मोहन राय, बंकिमचन्द्र चटर्जी और स्वाधीनता आन्दोलन (जो उस समय तक पूरी तरह राजनीतिक नहीं हुआ था) से जुड़ा हुआ था। इस कारण सनातनी ब्राह्मणों ने उनके परिवार को जाति से बाहर कर दिया था। इसके बाद उन्होंने लिखा है कि जाति- बाहर कर देने से उन लोगों को जो स्वाधीनता मिली थी, उससे उनके परिवार को बहुत अधिक सुजनशील आनन्द मिला था।
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