श्रमणाचार्य विभवसागर-
रागद्वेषत्यागान्निखिल द्रव्येषु साम्यमवलम्बय।
तत्त्वोपलब्धि मूलं, बहुशः सामायिकं कार्यम् ।। 148 ॥ पु.सि.उ.
अखिल विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों में रागद्वेष का त्याग करने से तथा साम्य भाव का आश्रय लेकर के आत्मतत्व की प्राप्ति का मुख्य उपाय सामायिक है, इस सामायिक को बहुत बार करना चाहिए।
सुधी आवकों को रात्रि और दिन के अन्त में तो नियमतः सामायिक करना ही चाहिए।
अन्य समय में भी सामायिक करें तो दोष रूप नहीं अपितु गुण पोषण के लिए है। सामायिक के काल में आत्माश्रित पुरुष सम्पूर्ण पापकार्यों का त्याग कर देने से महाव्रती तुल्य हो जाता है। आत्मध्यान सुविकसित करने के लिए तथा सामायिक संस्कार को स्थिर रखने के लिए प्रतिदिन आगमोक्त विधि से समताभाव प्रधान सामायिक करना चाहिए।
श्रावकाचार में सामायिक को शिक्षाव्रत के रूप में स्वीकार किया है तथा स्पष्ट रूप से घोषित किया कि सामायिक शिक्षाव्रत महाव्रत धारण की प्रबल प्रेरणा अन्तरात्मा में भरता है। जहाँ, जिस समय, जितने समय के लिए पाँच पापों को पूर्ण रूपेण त्याग दिया जाये वहाँ, उस समय ही, उतने समय के लिए सामायिक हो जाती है।
योग्य द्रव्य, योग्य क्षेत्र, योग्य काल, यह सामायिक की साधन सामग्री है, सामायिक योग्य भाव की प्राप्ति होना, उत्पत्ति होना साध्य है। "योग्य श्रमण या योग्य श्रावक जिस आगमोक्त समीचीन क्रिया को करता है, उस सम्यक् क्रिया-चर्या को करने से योग्यता प्रकट होती है। अतः प्रत्येक साधक को भली भाँति सामायिक करना चाहिए।
एकान्त, प्रशान्त स्थान में, विघ्न बाधा रहित प्रशस्त क्षेत्र में, वन, भवन अथवा जिनालय में आत्मीय विशुद्धि के साथ प्रसन्नतापूर्वक सामायिक बढ़ाना चाहिए। यह सामायिक अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच व्रतों को परिपूर्ण करने वाली आवश्यक क्रिया है। अतः व्रतधारियों और व्रताभिलाषियों को यथावत् आलस्य भाव त्यागकर प्रमाद रहित होकर सावधानी पूर्वक प्रयत्नशील होकर सामायिक संस्कार आरोपित करना चाहिए। तथा सामायिक संवर्द्धन के लिए मौन धारण करके विविध परिषह और उपसर्गों को सहन करते हुए मन, वचन, काय को अचल रखकर संसार की असारता, शरीर की अशुचिता एवं भोगों की अनित्यता का विचार करते हुए स्वात्म चिंतन सहित धर्मध्यान करना चाहिए।
निरतिचार क्रिया महाफलदायी होती है। अतः मन, वचन, काय की दुष्प्रवृत्ति का त्याग करके पूर्ण आदर भाव के साथ, सामायिक क्रिया का यथावत् सम्मान रखते हुए, पाठ आदि को न भूलते हुए यथासमय, यथागम, यथावत् सामायिक बढ़ाना चाहिए। जहाँ जीव की बुद्धि जाती है, वहाँ श्रद्धा जाती है। जहाँ श्रद्धा जाती है, वहाँ चित्त लीन हो जाता है। अतः सामायिक में मन लगे इसके लिए हमें चाहिए कि हम सर्वप्रथम सामायिक के महत्व को समझें। सामायिक की दुर्लभता का परिज्ञान होने से सामायिक का महत्व समझ में आयेगा। महत्व समझ में आते ही श्रद्धा बलवती हो जायेगी। सामायिक के प्रति दृढ़ता, श्रद्धा प्रकट होते ही सामायिक में मन लगने लगेगा। यदि इतना हुआ तो फिर कभी सामायिक में विलम्ब एवं प्रमाद नहीं होगा। तथा पंचातिचार रहित सामायिक पंचव्रत पूरक सिद्ध होगी। अतः क्रिया के पूर्व क्रिया के महत्व एवं फल को अवश्य जानें तभी वह क्रिया भाव सहित, फलदायक होती है।
प्रस्तुत कृति" सामायिक शास्त्र" आचार्य अमितगति प्रणीत "सामायिक पाठ" अपरनाम "अमितगति द्वात्रिंशतिका" शास्त्र पर आधारित शास्त्रीय प्रवचनों का महत्वपूर्ण नित्योपयोगी सुखद आलेखन है। जो आध्यात्मिक भाषा शैली में रसापूरित, आत्म चिंतन के निर्मल प्रवाह को लिए हुए जैनागम के तत्वदर्शन को अखिल विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने वाली तीर्थंकर महावीर देशना का मंगल मंत्रोच्चारण समाहित किए हुए यह आत्म कल्याण कारक कृति तत्त्व पिपासु, जिज्ञासु पाठकों के लिए अनुपमेय गुरु उपहार है।
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