उस्ताद अलाउद्दीन खां का कहना था कि विद्यार्थी जब संगीत में पारंगत हो जाए तो गुरु को चाहिए कि वह उससे कहे "में अपनी विद्या तुम्हें दे चुका हूँ। जाओ, अब शिक्षा, दीक्षा और परीक्षा के लिए देशाटन करो ! अपने संगीत से लोगों को रिझाओ, रुलाओ और उन्हें बताओ कि संगीत में भगवान् का वास है! उसे भी अपने सुरों की स्तुति करके खुश कर सकते हो। संगीत ही तुम्हारा मंत्र है, संगीत हो तुम्हारी पूजा है, संगीत हो तुम्हारा ईमान है और संगीत ही तुम्हारा मजहब है ! तुम्हारी शिक्षा तो हो गई, अब दूसरों को दीक्षा दो और उसी से तुम्हारी परीक्षा होगी !"
परीक्षा का नाम सुनते ही विद्यार्थी के मन में एक खलबली-सी मचने लगती है। कब होगी, कहाँ होगी, कैसे होगी, कौन लेगा और परिणाम क्या होगा- यह सब-कुछ बार-बार कोमल मन को उहलित करता रहता है।
भातखंडे जी और पतुस्कर जी ने यह कभी सोचा भी न था कि संगीत के प्रति उनकी आस्या हजारों संगीत-विद्याथियों, संगीत-शिक्षकों और संगीत-संस्थाओं को जन्म देगी । पाश्चात्य संगीत में दीर्घ काल से संगीत की विभिन्न विधाओं में परीक्षाए चल रही हैं, परंतु भारतीय संगीत की परीक्षा प्रणाली का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। संगीत को मोक्ष का साधन समझनेवाले भक्त संगीतकार समाज से अलग रहकर अपनी साधना में रत रहे और उसे मनोरंजन का साधन समझनेवाले उसमें चमत्कारों की सृष्टि करते रहे, परंतु जो न भक्त थे और न भोगी, वे भावनाप्रधान संगीत के मर्मज्ञ होकर अपने रत्तसिक्त संगीत से संसार को सुख देते रहे, जिनमें प्रायः लोक-संगीत, सुगम संगीत और फिल्म-संगीत के साधक रहे ।
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