हमारी सांगीतिक परम्परा का मूल सामवेद है। प्रत्येक वैदिक कृत्य के उत्तरार्द्ध अथवा समापन में आर्यगण सामवेद का समवेत गायन करते थे। परम्परा में है कि नारद और तुम्बरु आर्य गायक थे। समुद्रगुप्त के प्रयागप्रशस्ति में नारद और तुम्बरु का उल्लेख मिलता है। संस्कृत साहित्य में पारम्परिक गायकों के रूप में गन्धर्व बड़े लोकप्रिय थे। गन्धर्व शब्द ही गायक पर्यायवाची है।
गुप्त काल (छठीं शता०) से मंदिरों का निर्माण आरम्भ हुआ। ये मन्दिर पूजा-अर्चना के साथ भक्ति परक गायन के भी केन्द्र थे। हमें मंदिरों में परम्परागत संगीत शिक्षा तथा संरक्षण का भी प्रमाण मिलता है। यह यश्स्वी परम्परा दक्षिण भारत के मंदिरों में आज भी समादृत है।
मध्यकाल में मंदिर ही नहीं, राजदरबार भी संगीत-संरक्षण के केन्द्र थे। भक्ति धर्म का उदय और प्रसार लगभग पूरे उत्तर भारत में समादृत था। राजघरानों में भी गायकों के आश्रित होने के कुछ प्रमाण मिलते हैं। मीराबाई, हरिदास, सूरदास, तुलसीदास और कबीर का समस्त संत साहित्य निर्विवाद रूप से गेय है। ये गीत जिन्हें 'भजन' कहा जाता है, सामगान के भारतीय संगीत की यशस्वी परम्परा की स्थापना के लिए विख्यात हैं। मौसीकी या सूफियाना संगीत भी भारतीय संगीत के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। उसका अवदान आज की गायन परपरा में अपना लोकप्रिय स्थान रखता है।
राज्याश्रय का संगीत-संरक्षण में बड़ा महत्त्व है। पूर्व मध्यकाल में उत्तर भारतीय शासक अलाउद्दीन खिल्जी भी संगीत का महत्त्वपूर्ण संरक्षक था। इस दरबार के प्रसिद्ध धुपदिये गोपाल नायक थे। सूफियाना गायकी में अमीर खुसरू का बड़ा योगदान सूफी कौव्वाली के बोल बनाव में था। इनकी बोल बनाव गायिकी विधा का प्रयोग आज की गायिकी में भी महत्त्वपूर्ण है। ग्वालियर के महाराजाओं ने संगीत की गरिमा का बड़ा आदर किया था। यहाँ के नरेश राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की एक संस्था स्थापित की थी जहाँ संगीत मर्मज्ञ संगीत पर चर्चा और गायन प्रस्तुत करते थे। संगीत के संस्थागत संरक्षण का यह प्रथम उदाहरण है। इसी प्रकार जौनपुर में उत्तर भारतीय संगीतकारों का प्रथम संगीत सम्मेलन हुआ था। इसका आयोजन हुसेन शर्की ने किया था। इस आयोजन में ध्रुपद गायकी तथा कौव्वाली का सम्मेलन हुआ था। साथ ही विभिन्न गायकों और संगीत मर्मज्ञों ने दो राग प्रचालित किये थे जो जौनपुरी टोड़ी और हुसेनी कान्हरा के नाम से प्रसिद्ध हैं।
अकबर ध्रुपद का बड़ा संरक्षक था। तानसेन की ध्रुपद गायिकी की श्रेष्ठता के लिए उसे अपने दरबार के नौ रत्नों शमिल किया था। तानसेन की ध्रुपद गायन की परम्परा पूरे भारत में लोक-प्रिय हुई। अकबरी दरबार में ही ध्रुपद के अनेक प्रयोग हुये तथा सही से ध्रुपद की चार बानियाँ-गौड़हार, डागुर, खंडार और नौहार अकबर के काल में ही प्रसिद्ध हुई थी।
अकबर के समकालीन वृन्दावन के स्वामी हरिदास थे। तानसेन उन्हीं के शिष्य थे। दरबारी गायक, दान के नाते तानसेन को स्वयं संगीत में स्थापित करके अपनी परम्परा को पल्लवित करने के कार्य में सफल रहा। स्वामी हरिदास का दूसरा शिष्य बैजूबावरा भी लोकप्रिय था, किन्तु उसकी कोई शिष्य परम्परा नहीं चली थी। जब कि दरबारी सहयोग से तानसेन की परम्परा का सातत्य उसके बाद ध्रुपद गायकी के रूप में शताब्दियों तक प्रचलित रहा। अकबरोत्तर काल में तानसेन की चार बानियाँ (गायन शैलियाँ) गौड़ हार, डागर, खंडार, नौहार, उन्नीसवीं शती तक प्रसिद्ध रहें। डागर बन्धु के गायन आज भी महत्त्व पाते है जो कि तानसेनी परम्परा के अंग माने जाते हैं। उन्नीसवीं शती तथा कुछ बाद में भी तानसेन की ध्रुपद गायकी लखनऊ, जयपुर, बनारस और रामपुर में राजा राजवाडों के संरक्षण में पल्लवित होती रही।
काशी में ध्रुपद गायकी के सिद्ध पं शिवकुमार शास्त्री थे। संगीत की विधिवत शिक्षा प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक जटाशंकर लाल ने उन्हीं से प्राप्त की थी। पं० शिवप्रसाद जी महामना मदन मोहन मालवीय जी के घनिष्ट मित्र थे और उनकी प्ररेणा से वे छात्रों को निःशुल्क शिक्षा देते थे। ध्रुपद गायकी में तो वे बेजोड़ थे ही साथ ही भजन की सरल विधा से गायकी भी उनकी विशेषता थी। विभिन्न रागों और तालों का उनको विशिष्ट ज्ञान और प्रायोगिक अभ्यास था। ताल वादय का अभ्यास श्री जटाशंकर लाल जी ने काशी के गोदयी महाराज के सान्निध्य से प्राप्त किया था। हारमोनियम उनका सुलभ वाद्य था। वे स्वयं अपने गाते समय बजाते थे और दूसरे के गायन की संगत भी करते थे। स्वरलिपियाँ भी बनाते थे तथा हर विधा के गायन की स्वरलिपियों का प्रयोग तथा मुख्य तालवाद्य (तबला) का संयोजन पूरी महारत के साथ कर लेते थे। गायन एवं हारमोनियम वाद्य की प्रायोगिक शिक्षा भी इच्छुक गायकों को देते थे। पेशे से वकील थे। पूर्व बस्ती, सम्प्रति सिद्धार्थ नगर जिले के वासी मुन्सफी में सफल वकालत करते थे। प्रति मंगलवार को घर पर ही संगीतज्ञों की सभा लगती थी। दूर-दूर से आये गायक अपना गायन उन्हें सुना कर अपने को गौरवान्वित समझते थे।
मेरी जानकारी में उनका कोई राजनीतिक संदर्भ नहीं था। यह जरूर है कि वे प्रमुख क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद के मित्र थे। काशी से उन्होंने बी० ए० पास की थी। एल० एल० बी० की शिक्षा उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी। प्रयाग के एल्फ्रेड पार्क में जब चन्द्रशेखर शहीद हुये थे तो हालैण्ड हाल छात्रावास में उनकी भी तलाशी ली गयी थी। ये अपने छात्रावास में स्वयं तो नहीं पाये गये थे किन्तु संगीत की यह पुस्तक पाण्डुलिपि के रूप में पुलिस के हाथ लगी थी। चूंकि इस ग्रंथ का कोई राजनीतिक संदर्भनहीं सिद्ध हुआ था अतएव यह पुस्तक काफी दिनों बाद (जब वे बांसी में वकालत करने लगे थे) बांसी के पुलिस थाने के मार्फत इन्हें लौटा दी गयी थी। पुलिस आलेख के अनुसार 5 जनवरी 1947 को बाँसी थाने के दारोगा मुहम्मद फारूकी ने पिता जी को यह पुस्तक सरकार की ओर इन्हें से सौपी थी। पुस्तक बाँसी थाने में इलाहाबाद पुलिस द्वारा भेजी गयी थी।
मूल ग्रंथ में अध्याय क्रम से विवेचन नहीं है। सम्प्रति, पाठकों की सुविधा के लिए सम्पूर्ण ग्रन्थ को चार अध्यायों में वर्गीकृत किया गया है।
प्रथम अध्याय में पहले संगीत की महत्ता एवं प्रशंसा के विषय में कुछ प्रचलित वचन संकलित किए गये हैं। तदुपरान्त संगीत के सिद्धान्त पक्ष की विवेचना है। इसके अन्तर्गत संगीत की परिभाषा, स्वरों के विभिन्न पक्षों का विचार, ताल, विभिन्न तालों की गति और मात्रा का विचार, राग रागनियों के सम्बन्ध में विचार, सातों स्वरों को कविस्था, ताल, कूटताल, दशठाट तथा उनके आधार पर रागों का विशेष विवरण और वर्गीकरण तथा परिभाषा आदि विवेचित है।
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