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संन्यासगीतिः- Sannyasageeti: Sanskrit Version of Swami Vivekananda's Song of the Sannyasin (An Old and Rare Book: Only 1 Quantity Available)

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Specifications
Publisher: Shri Krishna Ashram (Shri Udia Baba Ashram)
Author Swami Swaroopananda
Language: Sanskrit and Hindi
Pages: 136
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 inch
Weight 120 gm
Edition: 1996
HCA104
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Book Description

प्राक्कथन

श्रीमत्स्वामी विवेकानन्द जी विरचित "Song of the Sannyasin" के भाव अवलंबन में श्रीमत्स्वामी ब्रह्मस्वरूपानन्द जी महाराज कृत संस्कृत मूल ग्रन्थ है "संन्यासगीतिः" ।

ग्रन्थकार का संक्षिप्त जीवन परिचय -

पुण्यभूमि भारत वर्ष के वाम अंग में स्थित शष्य-श्यामला बंग देश की गोद में १९ वी शताब्दी में कई उज्ज्वल-ज्योतिपुरुष आविर्भाव हुए थे, जिनसे केवल बंगभूमि ही नहीं बल्कि समग्र भारत भूमि परम गौरवान्वित हुई है। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव, स्वामी विवेकानन्द, विश्वकवि रवीन्द्रनाथ, महायोगी श्री अरविन्द आदि महापुरुषों का नाम इस प्रसंग में स्मरणीय है।

सौभाग्यशालिनी बंगभूमि के यशोहर जिले के अन्तर्गत धूलजोड़ा गांव में ७ जनवरी सन् १८९९, वसंत पंचमी के दिन माता श्रीमती मुक्तकेशी की कोख को आलोकित कर एवं पिता श्रीवाणीकण्ठ मजुमदार के कुल को पवित्र करके बालक सत्येन्द्र नाथ का जन्म हुआ, जो कि परवर्ती काल में स्वामी ब्रह्मस्वरूपानन्द पुरी जी के नाम से प्रख्यात हुये। वे ही इस ग्रन्थ के रचयिता तथा आचार्य श्रीमत्स्वामी विवेकानन्द जी के "Song of the Sannyasin" के नाम से प्रसिद्ध कविता का संस्कृत भाषा में रूपान्तर कर उसका शास्त्रीय व्याख्यारूप टीकाकार भी हैं।

बालक सत्येन्द्रनाथ शिशुकाल में ही मातृहीन हुये थे। कुछ दिन के बाद ही वे अपनी प्रतिभा के बल से सन् १९१७ में प्रथम श्रेणी में मैट्रीक्युलेशन परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। उसी समय उनके पिता का भी स्वर्गवास हो गया। बालक सत्येन्द्रनाथ के पूर्वजन्मार्जित शुभ संस्कार अध्यात्म जीवन प्राप्ति के मार्ग में स्वतः स्फूर्त होने लगा, साथ ही साथ तत्कालीन विदेशी शासन के अत्याचार के विरोध में उनके मन में मातृभूमि की पराधीनता की पीड़ा दूर करने की एक अदम्य स्पृहा धीरे-धीरे जागृत होने लगी । मैट्रीक्युलेशन परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात् वे भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता में आये और रीपन कालेज में एफ० ए० पढ़ने के साथ-साथ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी के संपर्क में आए। सक्रिय रूप से देश सेवा के कार्य में योगदान देते हुए भी उन्होंने एफ० ए० परीक्षा भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। उसके पश्चात् जब वे बी० ए० में अध्ययन कर रहे थे अंग्रेज शासकों की दृष्टि उनके राजनैतिक कार्य-कलाप के ऊपर पड़ी एवं उन्हें छः महीने के लिये कारावास वरण करना पड़ा।

विधि का विधान विचित्र ही होता है जो कि मनुष्य की बुद्धि से अतीत है। कारागार के अवरुद्ध कक्ष में नवयुवक सत्येन्द्रनाथ ने ध्यानावस्था में तीन दिन श्रीमत्स्वामी विवेकानन्दजी के दर्शन व सूक्ष्म निर्देश प्राप्त कर राजनैतिक जीवन को समाप्त करने का संकल्प किया ।

कारावास से मुक्त होकर मुमुक्षुत्व की तीव्र इच्छा लेकर उन्होंने श्रीरामकृष्ण वचनामृत के रचयिता श्री (श्री महेन्द्र नाथ गुप्त के साथ साक्षात्कार किया। उनकी सहायता से ही युवक सत्येन्द्र श्रीरामकृष्ण पार्षद "श्री श्री रामकृष्ण लीला प्रसंग" महाग्रन्थ के प्रणेता श्रीमत्स्वामी सारदानन्द जी महाराज के चरणों में पहुँचे। सन् १९२२ में उनसे ब्रह्मचर्य दीक्षा प्राप्त कर ब्रह्मचारी चिन्मय चैतन्य नाम प्राप्त किया। इसके पश्चात् गुरुजी के आदेशानुसार "शिवज्ञान से जीव सेवा" का आदर्श लेकर उन्होंने श्रीरामकृष्ण मिशन वाराणसी में आकर तीन वर्ष तक सेवा कार्य किया। सन् १९२६ में अपने नश्वर शरीर का अन्तिम समय जानकर श्रीमत्स्वामी सारदानन्द महाराज ने अपने प्रिय शिष्य ब्रह्मचारी चिन्मय चैतन्य को अपने पास बुला लिया। गुरुसेवा में रहते हुए उन्होंने संयास ग्रहण कर उत्तराखण्ड में जाकर वेदान्त-शास्त्र अध्ययन करने का निर्देश प्राप्त किया। तत्कालीन रामकृष्ण मठ व मिशन के अध्यक्ष श्रीमत्स्वामी शिवानन्द जी महाराज (महापुरुष जी महाराज) से संन्यास दीक्षा ग्रहण की एवं स्वामी ब्रह्मस्वरूपानन्द पुरी के नाम से अभिषिक्त हुए। इसके कुछ दिनों के पश्चात् ही स्वामी सारदानन्दजी ने सन् १९२७ में महासमाधि ले ली। नवीन संन्यासी मंसूरी नगर से पैदल चल कर उत्तराखण्ड के पुण्यतम क्षेत्र उत्तरकाशी में पहुँचे ।

हिमाच्छादित पर्वत की गुफा में पुण्यसलिला भागीरथी के तट पर लगभग तीन वर्ष तक कठोर साधना में बिताने के बाद परमेश्वर के विधान से उन्हें तत्कालीन उत्तरकाशी के ब्रह्मवेत्ता महापुरुष स्वामी देवीगिरि जी महाराज के पास रहकर उनसे शास्त्र अध्ययन करने का आवाहन मिला। इस अपूर्व संयोग के फलस्वरूप स्वामी जी ने आठ वर्ष तक उन वयोवृद्ध श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य की सुश्रूषा के साथ-साथ समस्त अद्वैतवेदान्तशास्त्र का अध्ययन किया तथा षड्दर्शन में भी ज्ञान प्राप्त किया। उनकी विभिन्न रचनाओं के माध्यम से हमें इसका परिचय मिलता है। अष्टादश अध्यायी, श्रीरामकृष्ण गीता, श्रीरामकृष्ण शतार्धश्लोकी आदि ग्रन्थों में उनके संस्कृत ज्ञान के साथ अध्यात्म अनुभूति का अपूर्व समन्वय हमें देखने को मिलता है। स्वामी विवेकानन्द रचित अंग्रेजी भाषा में "Song of the Sannyasin" कविता की आदर्शमूलक भावधारा को उन्होंने शाश्वत वेदवाणी संस्कृत के माध्यम से इस उद्देश्य से रूपान्तरित किया जिससे कि आचार्य की रचना एक वैदिक शास्त्र के रूप में समादृत हो ।

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