संस्कार संस्कृति के परिचायक ही नहीं, उसके नियामक भी होते हैं। संस्कार नहीं, तो संस्कृति नहीं। बात इतनी ही नहीं, संस्कार सम्यक् नहीं, तो संस्कृति भी सम्यक् नहीं, बल्कि संस्कार यदि बुरे पड़ जाएँ, तो निश्चय मानिए कि संस्कृति भी अच्छी न हो पाएगी, इसलिए संस्कारों की सजगता समृद्धशाली संस्कृति के लिए बहुत आवश्यक है, और जब संस्कार समृद्ध होंगे, तो निश्चय मानिए कि संस्कृति भी समृद्ध होगी। कुछ लोग कहते हैं कि संस्कार बन्धन बनते हैं, पर मुझे लगता है कि संस्कार बन्धन नहीं होते, संस्कार तो परम्परा के पोषक होते हैं। कई बार तो ऐसा भी लगता है कि संस्कारों से परम्परा बनती है, पर कई बार लगता है कि परम्परा के संस्कारों से जीवन बनता है। जीवन बनता ही नहीं, वह अपने चरम लक्ष्य की पूर्ति तक पहुँचता है, इसलिए मुझे तो लगता है कि संस्कार मानवीय जीवन की आधार-भूमि हैं। संस्कार सजग और सम्यक् हों, तो निश्चय है कि जीवन की गति भी अपने चरम लक्ष्य के प्रति सजग और सम्यक् होगी, बल्कि उसे पाकर ही रहेगी।
वर्षों पहले मेरी भेंट पण्डितद्वय पण्डित सनतकुमार एवं पण्डित विनोदकुमार, रजबाँस वालों से हुई और धीरे-धीरे वह भेंट कब उनके अनन्य होने का रूप ले गयी, यह पता नहीं। इसके साथ ही साथ उनसे हुई अनेक भेंटों के दौरान न जाने कब यह बात रूप ले गयी कि संस्कारों की क्रिया में वे बड़े ही सजग व निष्ठावान् रोपयिता हैं। मैं जब से उन्हें मिला, तब से मैं यह देखता आया हूँ कि प्रतिष्ठाचार्य एवं विधानाचार्य के रूप में वे जो भी सांस्कारिक क्रियाएँ करते हैं, वे क्रियाएँ बड़ी निष्ठा और सजगता के साथ करते हैं, इसलिए उनकी क्रियाएँ फलगामी क्रियाएँ होती हैं, पर इस सब के मूल में मैंने यह पाया है कि उनके भीतर हमारी प्राचीन और वर्तमान आचार्य-परम्परा व विचार-परम्परा के गम्भीर संस्कार हैं, जिनके कारण ही वे अपनी क्रियाओं में फलदायी सिद्ध होते हैं और उन्हीं की यह 'संस्कार-संहिता' कृति आप-सब के हाथों सौंपते हुए मैं अत्यन्त आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ। आप-सब यह जानते ही हैं कि जिस ग्रन्थ में नियम सिद्धान्तों का क्रमबद्ध निरूपण या संकलन किया गया हो, वह ग्रन्थ संहिता-ग्रन्थ कहलाता है। इस पुस्तक में संस्कारों के सिद्धान्त नियम एवं विधि-विधान को सैंजोया गया है। अतः इसका संस्कार-संहिता नाम अन्वर्थ-संज्ञा वाला है।
वस्तुतः हमारी जैन परम्परा के सैद्धान्तिक ग्रन्थ यह मानते हैं कि जीव में पड़े संस्कार जन्म-जन्मान्तर तक साथ जाते हैं, पर फिर भी संजी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य जाति के जीवों को अपने इस जीवन को मनुष्य के चरम लक्ष्य सिद्धत्व की प्राप्ति में सहायक बनने हेतु वहाँ 108 संस्कारों की बात कही गयी है। यद्यपि वे सब संस्कार अब आज कहीं होते दिखाई नहीं देते, पर शास्त्रोल्लेख तो हैं ही। इससे यह बात भी साफ है कि जैनों की संस्कार के विचार की परम्परा 108 संस्कारों का पोषण करती है, पर वहीं वर्तमान आपा-धापी और कलिकाल के मशीनी युग में हम उनमें से कुछ संस्कार ही आज कर पाते हैं, लेकिन वे संस्कार भी ठीक से हो जाएँ, हमारी विचार-परम्परा के अनुसार हो जाएँ, हमारी तन, मन, धन की शुद्धि के साथ हो जाएँ, हमारे वचन, काय व उपकरण की परिशुद्धि को भी साथ लेकर विधि-विधान से हो जाएँ, तो निश्चय ही हम लक्ष्य-गामी हो जाएँ। यद्यपि जैन विधि-विधान की फुटकर पुस्तकें व संस्कारों पर छुट-पुट लेख बहुत समय से प्रकाशित होते रहे हैं, पर जैनों की पञ्च-पाप-रहित पंचाणुव्रत व पंच-महाव्रत के पोषण की परम्परा के संस्कारों का सम्यक् शास्त्रानुकूल प्रकाशन अब तक न हो पाया था और सम्यक् विधि-विधान को आधिकारिक सन्दर्भों के आधार पर रखनेवाली पुस्तक की कमी लम्बे अन्तराल से खटक रही थी। मुझे प्रसन्नता है कि यह पुस्तक उस कमी को बहुत अंशों में पूरा करती है।
इस कृति के लेखक इसलिए बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस लक्ष्य की पूर्ति में इस कृति को रचकर कदम बढ़ाया।
जिस प्रकार जल में घुलनेवाली मिट्टी का घड़ा अग्नि के संस्कार से जल धारण की क्षमता प्रकट कर लेता है, उसी प्रकार सु-संस्कारों से संस्कारित आत्मा भी गुणों को प्रकट करने की क्षमता प्राप्त करता है। संस्कार प्रत्येक वस्तु एवं व्यक्ति पर अपना प्रभाव डालते हैं। निर्जीव वस्तु भी जहाँ संस्कारित होकर सामान्य से विशेष हो जाती है, वहीं व्यक्ति भी सु-संस्कार प्राप्त कर महानता प्राप्त करते हैं। संस्कारों की सभी को अनिवार्य आवश्यकता होती है।
जब तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करनेवाला जीव जन्म लेता है, तो गर्भ में आने के पहले से ही इसे संस्कारों की भूमिका प्रारम्भ हो जाती है। जब तद्भव मोक्ष-गामी जीव को भी संस्कारों की आवश्यकता होती है, क्योंकि दीक्षा के संस्कार के बिना उसकी कर्म-ध्वंसन की प्रक्रिया प्रारम्भ ही नहीं होती। तब-फिर सामान्य व्यक्ति यों के सन्दर्भ में तो संस्कार का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। वर्तमान में व्यक्ति संस्कारों की सम्यक् प्रक्रिया की जानकारी न होने या व्यस्ततम जीवन शैली के कारण संस्कारों के लाभ से वञ्चित हो रहे हैं। अतः व्यक्ति और समाज के निर्माण की भावना से संस्कारों के लाभ, आवश्यकता, उद्देश्य, एवं विधि की जानकारी जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य से यह पुस्तक रची गयी है।
जिस ग्रन्थ में नियम सिद्धान्तों का क्रम बद्ध-निरूपण या संकलन किया गया हो, वह ग्रन्थ संहिता-ग्रन्थ कहलाता है। इस पुस्तक में संस्कारों के सिद्धान्त, नियम एवं विधि-विधान को सँजोया गया है। इसलिए इसका नाम संस्कार संहिता रखा गया है।
संस्कारों में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावों का विशेष महत्त्व है। कोई संस्कार कब, कैसे, क्यों, शक्ति-भर प्रयास यह रहा है कि इसमें कहीं भी मिथ्यात्व का पोषण न हो।
अन्य धर्म-दर्शनों की परम्परा में भी षोडश संस्कारों का कथन किया है, किन्तु जैन दर्शन में 108 संस्कारों का उल्लेख प्राप्त होता है। जिन परम्परा में ये सभी संस्कार तीर्थंकरों को केन्द्र रखकर कहे गये हैं। इनमें मनुष्य जन्म प्राप्त कर सिद्धावस्था प्राप्ति तक की स्थिति को अनवरतता बनाने का उपाय बताया गया है। भौतिक रूप में तीर्थंकर को लक्ष्य बनाना उचित भी है, किन्तु व्यक्ति की साधना का लक्ष्य सिद्ध-दशा ही है, वह सामान्य केवली होकर भी प्राप्त किया जा सकता है। कथन आदर्श रूप में ही किया जाना उचित होता है। जिस प्रकार अर्हन्त के छियालीस मूल गुण कहे हैं, परन्तु ये मात्र तीर्थंकर अरहन्त में ही घटित होते हैं। सामान्य अरहन्त में छियालीस मूल गुण नहीं होते हैं, भावं यह है कि कथन की शैली आदर्श रूप ही होती है।
शक्ति-भर प्रयास यह रहा है कि इसमें कहीं भी मिथ्यात्व का पोषण न हो। अन्य धर्म-दर्शनों की परम्परा में भी षोडश संस्कारों का कथन किया है, किन्तु जैन दर्शन में 108 संस्कारों का उल्लेख प्राप्त होता है। जिन परम्परा में ये सभी संस्कार तीर्थंकरों को केन्द्र रखकर कहे गये हैं। इनमें मनुष्य जन्म प्राप्त कर सिद्धावस्था प्राप्ति तक की स्थिति को अनवरतता बनाने का उपाय बताया गया है। भौतिक रूप में तीर्थंकर को लक्ष्य बनाना उचित भी है, किन्तु व्यक्ति की साधना का लक्ष्य सिद्ध-दशा ही है, वह सामान्य केवली होकर भी प्राप्त किया जा सकता है। कथन आदर्श रूप में ही किया जाना उचित होता है। जिस प्रकार अर्हन्त के छियालीस मूल गुण कहे हैं, परन्तु ये मात्र तीर्थंकर अरहन्त में ही घटित होते हैं। सामान्य अरहन्त में छियालीस मूल गुण नहीं होते हैं, भावं यह है कि कथन की शैली आदर्श रूप ही होती है।
आचार्यों ने जो संस्कारों का कथन किया है, वह मूल रूप से तीर्थंकरों को ही मुख्य करके किया है। इन संस्कारों में तीर्थंकरों के साथ चक्रवर्ती का भी ग्रहण हुआ है, जो सभी तीर्थंकरों के सन्दर्भ में संभव नहीं होते। वर्तमान के चौबीस तीर्थंकरों में मात्र तीन तीर्थंकर ही चक्रवर्ती भी हुए हैं। इसी प्रकार कुछ संस्कार देव पर्याय सम्बन्धी हैं और कुछ तीर्थंकरत्व के लिए अगले भव सम्बन्धी हैं, जो पंचम काल में संभव प्रतीत नहीं होते हैं। अतः 108 संस्कार की क्रियाओं में से जो क्रियाएँ गृहस्थ श्रावक के लिए अनिवार्य, आवश्यक एवं अपनाने योग्य हैं, उन्हें गृहस्थ की भूमिकानुसार इस पुस्तक में दिया जा रहा है। इसके साथ ही काल सर्प, शनि की साढ़ेसाती, मूल एवं नवग्रहादि दोष, वाहन-शुद्धि-वाहन-शुद्धि-संस्कार, जल-शुद्धि आदि के स्वरूप का उल्लेख करते हुए इनके निवारण की विधि, जाप आदि उपायों को दिया गया है, क्योंकि वर्तमान में जो लोग इनके स्वरूप से अनविज्ञ हैं, वे इनसे भयभीत होकर मिथ्यात्व में लग जाते हैं। इसी प्रकार अन्तिम संस्कार में भी जानकारी के अभाव में अनेक मिथ्या क्रियाएँ की जाती हैं। इन सब के निराकरण के लिए आगमोक्त विधि-विधान दिये गये हैं, जिससे गृहस्थ श्रावक-जन लाभ ले सकें।
संस्कारों की समस्त विषय-वस्तु को पाँच खंडों में विभाजित किया गया है। प्रथम खंड पूजा विधि का है। इसमें पूजा करने के लिए आवश्यक सामग्री दी गयी है। दूसरा खंड अनुष्ठान-विधि का है, इसमें जाप और हवन की विधि को सँजोया गया है। जो प्रत्येक संस्कार में की जाती है। तृतीय खंड संस्कार का है, इसमें गर्भाधान से लेकर अन्तिम संस्कार तक के संस्कारों का स्वरूप, महत्त्व, उद्देश्य और संस्कारों की विधि का वर्णन किया गया है। चतुर्थ खंड गृह एवं प्रतिष्ठान शुद्धि नाम से है। जिसमें गृहारम्भ, शिलान्यास, जलाशय-शुद्धि एवं वाहन-शुद्धि आदि की विधि दी है। पंचम खंड उपसर्ग एवं दोष निवारण के लिए निश्चित किया है।
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