सामाजिक-आर्थिक विमर्शों के समकालीन दौर में लेखक की कृति सांस्कृतिक पुनर्जागरण और छायावादी काव्य साहित्य के सामाजिक सरोकारों के प्रति लेखक की बेचैनी और छटपटाहट का प्रतिफल है। अकारण नहीं है कि लेखक अस्मिता-विमर्शों में गहरी दिलचस्पी रखते हुए अपने समय के महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाते हैं और उनकी ऐतिहासिक संभावनाओं की तलाश भी करते हैं। लेखक हिंदी साहित्य की उस परिधि का विस्तार करता है जो दलित स्त्री, आदिवासी और अल्पसंख्यक समाज के प्रश्नों को दरकिनार करती आई है। हाशिए के समाज और साहित्य की चिंताओं को रेखांकित करते हुए लेखक इस पुस्तक के माध्यम से छायावाद के हाशिएपन से संवाद स्थापित करते हैं। छायावाद के प्रति नकारात्मक रुख न अपनाकर उन्होंने तर्कसंगत ढंग से इसके नए 'कंटेंट्स' का उद्घाटन किया है, यह बताते हुए कि 'मैं' शैली और आत्माभिव्यक्ति से आगे छायावाद का मूल स्वर मुक्ति का स्वर है। मुक्ति-सामंती रूढ़ियों से भी और औपनिवेशिक दासता से भी। इस मुक्ति-स्वर ने छायावादी कवियों की जीवन-दृष्टि और प्रेम के मुहावरे को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई है जिसके चलते सांस्कृतिक पुनर्जागरण व नवजागरण को समझने में सहायता मिलती है। यह दृष्टि महादेवी वर्मा की 'नीर भरी दुख की बदली' वाली छवि को भी तोड़ती है और उनके काव्य में मुक्ति-स्वर का संघान करती है। लेखक के अनुसार आत्माभिव्यक्ति का साहस छायावाद का युगबोध है।
लेखक के आलोचकीय विवेक ने इस पुस्तक के माध्यम से साहित्यकारों और विमर्शकारों को एक साथ जोड़ने की पहलकदमी की है। छायावाद संबंधी विवाद पर उस समय के आलोचकों और इतिहासकारों से होकर गुजरना इसे बहुआयामी बनाता है। पुनरुत्थान, पुनर्जागरण और नवजागरण यद्यपि अलग-अलग प्रत्यय हैं और ऐतिहासिक संदर्भ में इनके निहितार्थ भी किंचित भिन्न हैं पर लेखक का मानना है कि साम्राज्यवादी औपनिवेशिक दासता के उस दौर में तीनों का लक्ष्य एक था अपने गौरवशाली अतीत की पहचान और साम्राज्यवाद की गुलामी से मुक्ति। यद्यपि यह पुस्तक छात्रोपयोगी है किंतु आशा है, इसकी पाठ-केंद्रित आलोचना और पारदर्शी भाषा पाठकों का ध्यान आकृष्ट करने में सफल होगी।
चौथीराम यादव
जन्म : 29 जनवरी 1941 को उत्तर प्रदेश के जीनपुर जिले के कायमगंज नामक गांव में।
शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर जिले के स्कूल-कालेज एवं स्नातक, स्नातकोत्तर और पी-एच.डी., काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से।
अध्यापन: नवंबर 1971 से जनवरी 2003 तक हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय में। जनवरी 2003 में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद से सेवा मुक्त ।
प्रकाशन: (1) समय-समय पर आलोचना, तद्भव, प्रगतिशील वसुधा, बहुवचन, सृजन-संवाद, अभिनव कदम, दलित अस्मिता, संवेद, शब्द योग, समकालीन सोच आदि साहित्यिक पत्रिकाओं में अनेक लेख प्रकाशित ।
(2) पुस्तकें : लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा, छायावादी काव्य एक दृष्टि, मध्यकालीन भक्ति काव्य में विरहानुभूति की व्यंजना, हिंदी के श्रेष्ठ रेखाचित्र (संपादन), आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का साहित्य और हजारीप्रसाद द्विवेदी समग्र-पुनरावलोकन ।
सम्मान: नीदरलैंड की सांस्कृतिक यात्रा में 'ओ.एच. एम.' संस्था द्वारा सम्मानित। 'भक्ति आंदोलन और तुलसीदास' से संबंधित तीन व्याख्यान ।
संप्रति : भक्ति आंदोलन के समाजशास्त्रीय पक्ष पर चिंतन-मनन जारी।
संपर्क : N13/209/J-6, ब्रिज एंक्लेव, सुंदरपुर, वाराणसी 221005 (उ.प्र.)
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र यदि हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत थे तो प्रेमचन्द, निराला, और जयशंकर प्रसाद उसके विकास काल के प्रमुख लेखक और रचनाकार। जयशंकर प्रसाद जितने बड़े कवि थे उतने बड़े नाटककार और उतने ही बड़े कथाकार भी। साहित्य की प्रमुख विधाओं में समान अधिकार से लिखने वाले जयशंकर प्रसाद जैसे लेखक विरले ही होंगे जिन्हें चिन्तक और विचारक भी कहा जा सके। 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध' में संकलित उनके सुचिन्तित आलेख उनकी आलोचकीय प्रतिभा के प्रमाण हैं। धर्म-दर्शन, कला-संस्कृति और इतिहास-पुरातत्व के अध्ययन में उनकी अटूट आस्था थी। भारत की विभिन्न परम्पराओं के बीच सांस्कृतिक एकता की संभावना तलाशने वाले जयशंकर प्रसाद कला-विलास और सौन्दर्य-बोध की संस्कृति के पक्षधर और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की तरह भारतीय संस्कृति के आख्याता एक भारतीय लेखक थे। इसलिए उन्हें हिन्दी नवजागरण का ही नहीं बल्कि भारतीय नवजागरण का महत्वपूर्ण चिन्तक और लेखक माना जाना चाहिए। इसी सन्दर्भ में वे अपने समकालीन साहित्यकारों से भिन्न और विशिष्ट थे। पुनरुत्थान-भावना की प्रबलता के कारण प्रेमचन्द और निराला से कम महत्वपूर्ण मानते समय इस तथ्य को नजरन्दाज कर देना बेमानी होगी। राष्ट्रीय जागरण के उस दौर में पुनरुत्थान-भावना से बचा भी कैसे जा सकता था जबकि पुनरुत्थान-भावना राष्ट्र-प्रेम का प्रस्थान-बिन्दु हो।
अतीत से मोहग्रस्त होना एक बात है और अपने वर्तमान के लिए अतीत से प्रेरणा ग्रहण करना बिलकुल दूसरी बात है। राष्ट्रीय जागरण से प्रभावित जयशंकर प्रसाद का राष्ट्र-प्रेम यदि उन्हें ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से अतीत के गौरव-गान के लिए भारतीय इतिहास के स्वर्ण-युग की ओर उन्मुख करता है तो उसके दोहरे निहितार्थ हैं; एक तो मुक्ति-संघर्ष के लिए शक्ति अर्जित करना और दूसरे उन साम्राज्यवादी इतिहासकारों का मुँह-तोड़ जवाब देना जो भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को हीनतर साबित करने के लिए हमारे इतिहास को तोड़-मरोड़ कर विकृत रूप में पेश कर रहे थे। आकस्मिक नहीं है कि उस समय भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकार संस्कृति एवं सभ्यता के मोर्चे पर साम्राज्यवादी इतिहासकारों से लोहा ले रहे थे। पुनरुत्थान, पुनर्जागरण और नवजागरण यद्यपि अलग-अलग प्रत्यय हैं और उनके निहितार्थ भी किंचित भिन्न हैं, किन्तु मुक्ति-संघर्ष के दौरान इन सबकी भूमिका एक ही लक्ष्य से संचालित थी आत्मगौरव की पहचान और पराधीनता से मुक्ति। क्या लम्बी पराधीनता के दौरान हम अपने सुनहले अतीत को, राष्ट्र के गौरव को, अपनी सभ्यता और संस्कृति को और यहाँ तक स्वयं अपने को भी नहीं भूल गए थे? 'हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी?' की चिन्ता क्या उस पूरे युग की चिन्ता नहीं थी? जयशंकर प्रसाद के नाटकों में राष्ट्र-प्रेम से संचालित सांस्कृतिक पुनर्जागरण का यही स्वर सुनाई पड़ता है। 'स्कन्दगुप्त' नाटक का यह गीत 'हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार' इसी 'हम क्या थे?' की सर्वोत्तम खोज नहीं है? क्या यह साम्राज्यवादी इतिहासकारों की आँखों में आँखें डालकर किया गया संवाद नहीं है जिनकी दृष्टि में भारतवासी बर्बर और असभ्य हैं तथा भारत हमेशा पराजित होने वाले उन लोगों का देश है जो परलोक की चिन्ता से ही चिन्तित रहते हैं। सुनहले अतीत का गौरव-गान करने वाला यह गीत इसी का प्रतिवाद है जिसमें प्रसाद जी यह बताते हैं कि भारत संस्कृति और सभ्यता की जन्म-स्थली है। बुद्ध की अहिंसा और अशोक की करुणा संपूर्ण विश्व को भारत की देन है। जयशंकर प्रसाद के यहाँ परम्परा नहीं, परम्पराएँ हैं, एक नहीं अनेक । अनेकता में एकता स्थापित करते हुए वे वैदिक-पौराणिक परम्परा के समानान्तर विकसित बौद्ध परम्परा को भी उतनी ही अहमियत देते हैं। मौर्य काल और गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। उन्हीं की पृष्ठभूमि पर लिखे गए चन्द्रगुप्त और स्कन्दगुप्त प्रसाद जी के प्रसिद्ध नाटक हैं जिनके माध्यम से पराधीनता के वर्तमान अपमान को भुलाने के लिए उन्होंने अपने गौरवशाली इतिहास का सहारा लिया है।
अतीत की घटनाएँ या प्रसंग वर्तमान से बराबर सन्दर्भित हैं। नाटकों के अलावा उनकी कुछ कविताएँ भी इसी प्रकार वर्तमान से सन्दर्भित हैं। 'प्रलय की छाया' और 'पेशोला की प्रतिध्वनि' इसी प्रकार की कविताएँ हैं। 'पेशोला की प्रतिध्वनि' में पराधीन भारत के अपमान की यही पीड़ा और उससे मुक्त होने की छटपटाहट का स्वर भी सुनाई पड़ता है।
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