प्रकाशकीय
परोपकारिणी सभा, महर्षि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी सभा है। महर्षि, जी ने अपना धन, वस्त्र, पुस्तक, यन्त्रालय आदि सभा को सौंपे थे। इस सभा की स्थापना करते हुए उन्होंने संभा के तीन उद्देश्य रखे थे। १. आर्थ साहित्य का प्रकाशन द्वारा प्रसार, २. विश्व में वैदिक धर्म का प्रचार तथा ३. आर्यावर्तीय दीन अनाथ जनों की रक्षा। स्वाभी जी हुए तभी से सभा उनके उद्देश्यों को पूर्ण करने में संलग्न है।
दो शब्द
आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन चरित्र को जिस किसी ने भी समझा और उनके सम्पर्क में आया उसपर चिरस्थायी प्रभाव पड़ा। सहस्रों मनुष्यों के जीवन तो उन्होंने अपने जीवनकाल में ही बदल डाले। उनका भौतिक शरीर आज भले ही हमारे बीच विद्यमान न हो, परन्तु उनके विचार सृष्टिपर्यन्त चहुँदिश गुंजायमान होते ही रहेंगे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना करके मानवजाति का अवर्णनीय उपकार किया है। सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग कराना ही इस ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है, और यही सब सुधारों का मूल भी है। महर्षि ने इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है कि "सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।" वह सत्य उपदेश मनुष्यकृत अनार्ष ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होता, जिससे मानव का कल्याण हो सके। हितकारी, प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण विषयों का सुगमता से प्रतिपादन तो आर्ष ग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है।
भूमिका
सत्यार्थप्रकाश को दूसरी वार शुद्ध करके छपवाया है, क्योंकि जिस समय मैंने यह ग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' बनाया था, उस समय और उससे पूर्व संस्कृत भाषण करना, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने का अभ्यास और जन्मभूमि की भाषा गुजराती थी, इत्यादि कारणों से मुझ को इस भाषा का विशेष परिज्ञान न था। अब इसको अच्छे प्रकार भाषा के व्याकरणानुसार जानकर अभ्यास भी कर लिया है, इस समय इसकी भाषा पूर्व से उत्तम हुई है। कहीं-कहीं शब्द वाक्य रचना का भेद हुआ है, वह करना उचित था, क्योंकि उसके भेद किए विना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी, परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है, प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है। हाँ, जो प्रथम छपने में कहीं-कहीं भूल रही थी, वह वह निकाल शोधकर ठीक-ठीक कर दी गई है।