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माटी एवं संस्कृति के प्रहरी भगवान बिरसा- Sentinels of Soil and Culture Lord Birsa

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Specifications
Publisher: Vani Prakashan
Author Yugaleshwar
Language: Hindi
Pages: 173
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 310 gm
Edition: 2024
ISBN: 9789357755672
HBS564
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Book Description
पुस्तक परिचय
बिरसा झारखण्डी जनजातीय जीवन के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संघर्षों का उद्घोष है। यह स्मारिका है धरती आवा 'बिरसा' के उन महान संघर्षों की जिसमें उन्होंने तत्कालीन जनजातीय जीवन एवं संस्कृति पर होने वाले ख़तरे की ओर संकेत किया था। आज भी ऐसा ही प्रश्न झारखण्ड एवं देश की जीवन संस्कृति पर खड़ा है और ख़तरे की घण्टी बनकर प्राकृतिक जैव विविधता को नष्ट कर देने की साज़िश में आमादा है। डॉ. युगल झा ने झारखण्डी जीवन-मूल्यों, जिनके कारण धरती के पुरोधाओं ने अपनी शहादत दी है जिसमें भगवान बिरसा का योगदान अप्रतिम है, बहुआयामी प्रभाव वाले उठप्रेरक तत्त्वों को इस पुस्तक में रेखांकित करने की उत्कृष्ट कोशिश की है। बिरसा मुण्डा के जीवन और कर्म-चिन्तन की पूरी-पूरी व्याख्या है, यह इनकी अनुपम रचना-माटी एवं संस्कृति के प्रहरी : भगवान बिरसा । विभिन्न अध्यायों में लिखी गयी इस पुस्तक में स्वतन्त्रता-संग्राम के पूर्व जनजातियों ने अपने स्वशासन एवं देशज सांस्कृतिक चेतना की सुरक्षा में जितने भी आन्दोलन किये हैं, जिनकी अगुवाई इन आदिवासी क्रान्ति पुत्रों ने की है, उसकी चर्चा है। साथ ही अपने सम्पूर्ण राजनीतिक संघर्ष में क्रान्तिकारी बिरसा युगपुरुष की तरह जिन प्रश्नों को उठाया गया है, वह आज भी विकराल मुँह बाये खड़े हैं। आज भी सत्ता और कॉरपोरेट घरानों की मिलीभगत ने झारखण्ड के पर्यावरण, जल-जंगल-ज़मीन व प्राकृतिक संसाधनों पर लूट-पाट की पूरी संस्कृति के साथ कोहराम मचा रखा है। ऐसे ही ज्वलन्त मुद्दों और प्रश्नों को डॉ. युगल झा ने अपनी इस पुस्तक में शोधपूर्ण व्याख्या के रूप में प्रस्तुत किया है।

लेखक परिचय
जन्म: 10 फ़रवरी 1962, दहिया, बेगूसराय (विहार)। शिक्षा: एम.ए. (स्वर्णपदक), पीएच.डी.। प्रकाशित कृतियों : सन्ताली आदिवासी महिलाएँ: अस्मिता एवं पहचान, दि ब्रिटिश सन्ताल ट्राइयल पॉलिटि (1855-1947), अबुआ राज की चुनौतियाँ और माटी एवं संस्कृति के प्रहरी: भगवान विरसा। डॉ. (प्रो.) युगल झा वर्तमान में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में अपनी सेवाएँ देने के साथ-साथ, समान्तर रूप से शैक्षणिक, अकादेमिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी निरन्तर सक्रिय हैं। झारखण्ड के पाकुड़ में अवस्थित के. के.एम. कॉलेज में वे राजनीतिशास्त्र के विभागाध्यक्ष भी हैं। जनजाति बहुल झारखण्ड के विशेष सन्दर्भ में लेखक की जनजातीय समस्याओं एवं अन्य मामलों में गहरी पैठ है और शिक्षण के अपने मुख्य कार्य से इतर सामाजिक, विशेषकर जनजाति समाज एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी गहरी सक्रियता है। प्रोफ़ेसर झा एक उत्कृष्ट शोध निर्देशक के रूप में छात्रों को पीएच.डी. कार्य में अभिभावकीय मार्गनिर्देशन करते रहे हैं। दो दशक से अधिक समय से शैक्षणिक जगत् से जुड़े रहकर लेखक एक विशेषज्ञ वक्ता के रूप में दिल्ली समेत देश के अनेक हिस्सों में निरन्तर शैक्षणिक अकादमिक समाज को लाभान्वित कर रहे हैं। अपनी लेखनी के माध्यम से, पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तक रूप में भी वे अपने समकालीन समय-समाज के प्रति सतत जागरूक एवं सतर्क हैं । इसके अतिरिक्त प्रो. युगल झा 'विहार रिसर्च जर्नल' व 'बिहार का आर्थिक परिदृश्य' के सम्पादन से भी सम्बद्ध हैं।

प्रस्तावना
डॉ. युगल झा के द्वारा लिखी गई पुस्तक 'माटी एवं संस्कृति के प्रहरी भगवान बिरसा' झारखंडी जनजातीय जीवन की सामाजिक सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संघर्षों का उदघोष है। यह स्मारिका है धरती आवा बिरसा के उन महान संघर्षों का जिसमें उन्होंने तत्कालीन जनजातीय जीवन संस्कृति पर होने वाले खतरे की ओर संकेत किया था। आज भी ऐसे ही प्रश्न झारखंड एवं देश की जीवन संस्कृति पर खड़ा है और खतरे की घंटी बनकर प्राकृतिक जैव विविधता को नष्ट कर देने की साजिश में आमदा है। डॉ. झा ने झारखंडी जीवन मूल्यों जिनके कारण धरती के पूरोधाओं ने अपनी शहादत दी है जिसमें भगवान बिरसा का योगदान अप्रतिम है, कि बहु आयामी प्रभाव वाली उत्प्रेरक तत्वों को इस पुस्तक में रेखांकित करने की बहेतरीन कोशिश किया है। इनके जीवन और कर्म चिंतन की पूरी-पूरी व्याख्या है, यह इनकी अनुपम रचना, 'माटी एवं संस्कृति के प्रहरी भगवान बिरसा'। विभिन्न अध्यायों में लिखी यह पुस्तक स्वतंत्रतत्रा संग्राम के पूर्व जनजातियों ने अपने स्वशासन एवं देशज सांस्कृतिक चेतना की सुरक्षा में जितने भी आंदोलन किये है, जिनकी आगुवाई इन आदिवासी क्रांति पूत्रों ने किया है कि चर्चा है। साथ ही अपने संपूर्ण राजनीतिक संधर्ष में क्रांतिकारी बिरसा युग पुरुष की तरह जिन प्रश्नों को उठाया है वह आज भी विकराल मुँह बाए खड़ा है।

भूमिका
पिछले 300 वर्षों से राजमहल की तराईयों से लेकर कोल्हान एवं छोटा नागपुर की पहाड़ियों में जनजातियों की अपनी मातृसत्ता में जल, जंगल, जमीन, पर्वत, पहाड़ और पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जिन लोगों ने अपनी शहादत दी है, उनके लिए झारखंडी जनजातीय साहित्य एवं इतिहास के आंचलिक रचनाओं में, लोक गीतों, लोक-गाथाओं, कहावतों, पहेलियों एवं मुहावरों में अक्षय ज्ञान के स्त्रोत विद्यमान हैं। उनके लिए इनके अवदानों के प्रति कृतज्ञता के जो भाव अर्पित हुए हैं, वह अनूठा अनुपम और चन्दन की तरह जनजातीय समाज की घर आँगन में पुती हुई राष्ट्रीय चिन्तन का गहरा आवरण है। सच्चाई यह है कि पश्चिमी इतिहासकारों ने जनजातीय समाज की जीवन धारा में राष्ट्र धर्म और अपने घर आँगन की माटी की सांस्कृतिक चेतना को नजरअन्दाज किया है। अतः सिर्फ आदिवासी जनजातीय अस्मिता विमर्श के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष की जीवन संस्कृति में उच्च मूल्यों की स्थापना के लिए जनजातीय समाज के पुरोधाओं ने जितनी शहादत दी, कुर्बानियाँ दीं, उसका अध्ययन बहुत ही आवश्यक है। प्रामाणिकता के साथ कहा जा सकता है कि इन्हीं देशज मूल्यों की रक्षा के लिए सम्पूर्ण देश में जनजातीय समाज के पुरोधाओं ने न सिर्फ सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष किए बल्कि सांस्कृतिक चेतना का भी अलखनाद किया। इन वीर बाँकुरों ने अपने प्राणों की आहुति दी, ऐसे ही क्रान्ति पुत्रों की पंक्तियों में वीर बिरसा मुंडा का नाम शिखर पुरुष के रूप में लिया जा सकता है।

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