भूमिका
बड़ों शायरी के बड़े शायर फ़िराक थे, फैप्त थे, फराप्त थे और शहरयार हैं। शहरयार के यहाँ कोई हेड लाइन नजर नहीं आती। वे कोई नारा नहीं लगाते। फैज अपनी बात को परचम की तरह तान देते हैं। फ़िराक़ अपनी बात का ऐलान करते थे। फ़राज़ भी। उनकी बात बड़ी वाप्तेह होती थी और सुखों बन जाती थी। शहरयार इन सब से 'सटल (subtle)' शायर हैं। जिस तरह पढ़ते हैं, वैसा ही लिखते हैं। और जैसा लिखते हैं वैसे ही पढ़ते हैं। पूरे सव्र और तहम्मुल से बात करते हैं। उनका कहा, कैवल के पत्ते पर गिरी बूँद की तरह देर तक थिरकता रहता है। शेर सुन कर देर तक कान में गूँजता है। वो घटा की तरह उमड़ कर नहीं आते। बेशतर शायरों की तरह। उठकर खिड़कियाँ बन्द नहीं करनी पड़तीं कि अन्दर के दरी, ग़ालीचे भीग जाएँगे। बल्कि उठ कर खिड़की खोले तो पता चलता है कि बाहर बारिश हो रही है। इन्कलाब की आवाज फ़ैज़ के यहाँ भी सुनाई देती हैं। फ़राज़ के यहाँ भी। लेकिन यूँ खुद-कलामी के अन्दाज़ में सिर्फ शहरयार के यहाँ सुनाई देती है। आगाही है, लेकिन यूँ जैसे कन्धे पर हाथ रख कर कोई समझा रहा है: उधर देखो हवा के बाजुओं में एक आहट कैद है... अगर तुम चाहते हो इस जमीं पर हुक्मरानी हो तुम्हारी तो मेरी बात मानो हवा के बाजुओं में कैद इस आहट को अब आज़ाद कर दो!! 'फैसले की घड़ी' एक और ऐसी ही नज़्म है : बारिशें फिर जमीनों से नाराज हैं और समन्दर सभी खुश्क हैं खुरदरी सख्त बंजर जमीनों में क्या बोइये और क्या काटिये। आँख की ओस के चन्द ऋतरों से क्या इन जमीनों को सैराब कर पाओगे ?... मैं नक्काद नहीं, ना ही माहिरे-फन या जुबान और ग्रामर का माहिर-मैं महज एक शहरयार का मद्दाह और उनकी शायरी को महसूस करने वाला शायर हूँ। शहरयार उमूमन गजल ही सुनाते हैं। किसी महफ़िल में हों या मुशायरे में। मगर मुझे उनका लहजा हमेशा नज्म का लगता है। बात सिर्फ उतनी नहीं होती। जितनी वो एक शेर में बन्द कर देते हैं। थोड़ी देर वहीं रुको, तो हर शेर के पीछे एक नज्म खुलने लगती है तुम्हारे शहर में, कुछ भी हुआ नहीं है क्या? कि तुमने चौखों को, सचमुच सुना नहीं है क्या? इस शेर के पीछे की नज्म खोलो तो एक और शेर सुनाई देता है: तमाम खल्के ख़ुदा उस जगह रुकी क्यों है? यहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं है क्या ? रुकिये फिर चलिये... लहू-लुहान सभी कर रहे हैं सूरज को किसी को ख़ौफ़ यहाँ रात का नहीं क्या ? तमाम शेर फिर से पढ़ जाइये और बताइये ये नज़्म नहीं है क्या ? शहरयार अपनी ग़ज़लों के लिये जाने जाते हैं। मेरा ख़्याल है शायद इसलिये कि उनकी ग़ज़ल का शेर सिर्फ एक उद्धरण बन कर रुक नहीं जाता। चलता रहता है। एक तसलसुल है। बयान में इखत्सार और लहजे की नर्मी उनका ख़ास अन्दाज़ है। सारा कलाम पढ़ जाओ, कहीं गुस्से की ऊँची आवाज सुनाई नहीं देती। जख्म हैं, दर्द हैं, लेकिन चीख़ते नहीं. |
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