डॉ. शंकर पुणतांबेकर एक व्यक्ति, एक रचनाकार के रूप में जितने सहज दिखाई देते हैं, वह उनकी ऊपरी सतह है। किंतु जब उनकी रचनाएँ समसामयिक जीवन की एक-एक परतें खोलती हैं, तो उसकी गहराई हर एक को गंभीर कर देती है। उनके द्वारा चित्रित जीवनानुभूति के अंश हमें स्वयं भोगी होने का एहसास कराते हैं। डॉ. शंकर पुणतांबेकर का साहित्य समाज जीवन की उस सच्चाई का प्रतिनिधित्व करता है, जो स्वतंत्र भारत का यथार्थ है।
सन् १९४७ को अंग्रेजों की गुलामी से देश आजाद हुआ और एक नए भारत का उदय हुआ। देश की सत्ता से अंग्रेज हट गए। अब स्वतंत्र भारत के पुनर्निर्माण की एक नई चुनौती देश के सामने थी। देश में गरीबी, अशिक्षा, उद्योग, व्यवसायों की कमी, बेरोजगारी आदि असंख्य समस्याएँ मौजूद थीं। जिससे छुटकारा पाने के लिए नई सरकार और नए सत्ताधारियों से जनता उम्मीद लगाए बैठी थी।
'देश की आजादी में प्रेरणा स्रोत बने महात्मा गांधी के विचार, आदर्श और मूल्यों से नए सत्ताधारियों ने धीर-धीरे किनारा कर लिया। अब गांधी का स्मरण 'गांधी जयंती और पुण्यतिथि तक ही सीमित हो गया। देश में सत्ता केंद्रित राजनीति के हावी हो जाने से नेताओं ने सत्ता में बने रहने के लिए 'गांधी' नाम का जप तो सीख लिया लेकिन उनकी 'जनसेवा' नेताओं के लिए एक ढकोसले से कम न थी, इसलिए उससे दूरी बनाएँ रखने में ही उन्होंने अपनी भलाई समझी।
स्वतंत्र भारत की इस राजनीतिक फौज ने समाज जीवन के हर क्षेत्र को बाधित कर दिया था। समाज जाति भेद, ऊँच-नीच, धार्मिक कर्म काण्ड और पाखण्ड से त्रस्त था। शिक्षा व्यवस्था, आरोग्य सेवाएँ, सरकारी कार्यालय, पुलिस यंत्रणा आदि प्रशासनिक व्यवस्थाओं में भारी मात्रा में भाई भतीजावाद,
रिश्वतखोरी का खुले आम बोलबाला था। इस 'भ्रष्टाचार' का संवर्धन करने और उसे 'शिष्टाचार' घोषित करने में सबका योगदान रहा। इस भ्रष्ट संस्कृति से सबसे ज्यादा परेशान और पीड़ित भारत का आम आदमी था। सरकार द्वारा जनहित में जो भी योजनाएँ बनती रहीं, उसे भ्रष्ट प्रशासन अधिकारी और नेता बीच में ही लूट लेते थे। उत्तरदायित्व हीन राजनीति ने जनता के उन सपनों को साकार होने से पहले ही कुचल दिया, जो आजादी से जुड़े हुए थे। 'मोहभंग' की पीड़ा से परेशान जनमानस धीरे-धीरे राजनीतिक उदासीनता का शिकार हो गया।
स्वतंत्र भारत के इस बदले हुए परिवेश के डॉ. शंकर पुणतांबेकर स्वयंभोगी साक्षी रहे हैं। उन्होंने अपनी आप बीती और आँखों देखी को व्यंग्य शैली में इस कदर कलमबद्ध किया की, व्यवस्था के विद्रूप मुखौटे तार-तार होकर गिर पड़े। उनकी हर रचना अपने समय का वह दस्तावेज़ हैं, जिसमें समाज जीवन के संघर्ष का हर आयाम मुखर हुआ है। भ्रष्ट राजनीति, समाज जीवन को खोखला करने वाली जाति और धर्म से संबंधित रूढ़ि परम्पराएँ, आर्थिक समस्याओं का संघर्ष, भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों का पतन, शिक्षा व्यवस्था में छाई बुराइयाँ, औद्योगिक क्रांति के दुष्परिणाम, प्रशासनिक व्यवस्था का भ्रष्ट चेहरा आदि कुरूपताओं को उजागर करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। उनके व्यंग्य बाण और उनकी कलम समसामयिक सत्य को उजागर करती रही। यही कारण है कि उनकी हर रचना अपने समय के यथार्थ का आईना बनी हुई है। जिसमें हम स्वातंत्र्योत्तर भारत के चेहरे को साफ-साफ देख सकते हैं। उनकी रचनाओं में स्थित समसामयिक चेतना के बीज हमें स्वातंत्र्योत्तर भारत के संघर्षशील मानव जीवन के सत्य से रू-ब-रू कराने का दायित्व निभाते हुए दिखाई देते हैं।
साहित्य जगत में डॉ. शंकर पुणतांबेकर एक प्रतिभाशाली सफल व्यंग्य रचनाकार के रूप में परिचित हैं। किंतु उनके अंतस्थ में बसा एक संवेदनशील इंसान और उनकी कलम द्वारा चित्रित जनमानस की वेदना का बखान, उन्हें अपने समय का जन भाष्यकार बना देता है।
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