जब मैं छोटा बच्चा था तब मेरे निवास स्थान के थोड़ी ही दूर एक मढ़ी थी जहाँ पर मुख्य द्वार के सामने ही, लगभग १५ फुट व्यास वाले, एक ऊँचे, गोलाकार स्थल पर शिवलिंग स्थापित हुआ-हुआ था। उस पर गेरुए रंग का लेप हुआ-हुआ होता था। उस पर जब मेरी दृष्टि पड़ती थी तब कुछ अपनापन महसूस होता था और मेरे मन के भीतर ही भीतर न जाने क्यों, स्नेह जाग उठता था। परन्तु साथ ही साथ यह प्रश्न भी उठता था कि इनका पूरा परिचय क्या है?
उस मढ़ी में पूजा, कथा, कीर्तन आदि का कार्य करने वाले साधारण वेशधारी एक बाबा वहाँ रहते थे; उनसे मैं अपनी उस अबोध अवस्था में पूछा करता "बाबा जी, इस पिण्डी के बारे में मुझे अधिक कुछ बताने की कृपा करेंगे?" वे मुझे कहते - "रात्रि को यहाँ कथा सुनने आया करो, कथा में भोलेनाथ का वर्णन सुनने को मिलेगा।"
'भोलेनाथ' अथवा 'भोले बाबा' शब्द मेरे मन को भाते थे। मैं कथा सुनने भी जाया करता था परन्तु उसमें भोले बाबा का जो परिचय मिलता, उससे विवेक सन्तुष्ट नहीं हुआ। बड़ा होकर मैंने स्वयं भी कई ग्रंथ पढ़े, कई विद्वानों से इस विषय में वार्तालाप भी किये तथा स्वयं शिव के पुजारियों से भी पूछा परन्तु ज्ञान रूपी अमृत के लिए मेरी पिपासा तृप्त न हो सकी। निराश होकर मैंने प्रश्न पूछना ही छोड़ दिया और मन में यह सोच लिया कि मैंने तो अपना यत्न कर लिया है; अब तो 'भोले बाबा' को स्वयं ही कुछ बताना होगा तो बता देंगे। जैसे छोटे बच्चे अपने पिता को यदाकदा मुँह बना लेते हैं, कुछ ऐसी ही मेरे मन की भी अवस्था थी।
मैंने अपनी माध्यमिक और उत्तर माध्यमिक शिक्षा डी० ए० वी० स्कूल में ली थी और कालेज-स्तर की शिक्षा डी० ए० वी० कालेज में प्राप्त की थी और मैं अपनी लग्न ही से आर्य समाज में भी जाया करता था। इन संस्थानों में आर्य समाज के संस्थापक, दयानन्द जी की जीवन कहानी के प्रसंग में मैं सुना करता था कि कैसे एक बार शिवरात्रि के अवसर पर जब उन्होंने देखा कि शिवलिंग पर चढ़ी हुई मिठाई को चूहे खा रहे हैं तो उनके मन में विचार आया कि यह तो सच्चा शिव नहीं है। दयानन्द जी की निर्भीकता तथा उनके ब्रह्मचर्य-पालनादि से तो मैं प्रभावित था, परन्तु उनके शिव-सम्बन्धी इस तर्क को मन नहीं मानता था। समय पाकर मैंने उन द्वारा लिखित ग्रंथ भी पढ़े या सुने परन्तु इस विषय में मेरा विचारान्तर बना ही रहा। इसका एक कारण यह था कि जब मैं दूसरे-दूसरे ग्रंथ पढ़ता था तो उनसे पता चलता था कि एक समय ऐसा था जब विश्व की प्रायः सभी सभ्यताओं में शिव की, नामान्तर से, मान्यता थी। मैं यह भी सोचता था कि मन्दिर में बनी शिव-पिण्डी तो प्रतिमा है, यह 'सच्चा शिव' तो है भी नहीं। सच्चा शिव तो चेतन है, आनन्दस्वरूप है और सर्वशक्तिमान् है। अतः उसके इस स्थूल प्रतीक पर चूहे को उत्पात मचाते हुए देख कर यह कहना कि 'यदि शिव इस चूहे से अपनी मिठाई की रक्षा नहीं कर सकते तो मेरी रक्षा क्या करेंगे?' इस बात में इतनी गहराई नहीं है जितनी मालूम होती है क्योंकि पत्थर की प्रतिमा से यह अपेक्षा करना कि वह चूहे से मिठाई की रक्षा करेगा - गलत है। * शिव की पूजा और शिव के लिए व्रत या जाग्रण भी इस प्रकार होना चाहिये या नहीं ? – यह भी बाद के प्रश्न हैं, परन्तु अभी तो मेरे सामने प्रश्न यह था कि जिसकी यह प्रतिमा है उस चेतन शिव का सत्य परिचय क्या है। मुझे इस प्रश्न का तो हल मिला ही नहीं बल्कि जैसे-जैसे समय बीतता गया, इस प्रश्न के साथ और भी प्रश्न जुड़ते गये जिनमें से कुछेक निम्नलिखित हैं:-
१. (क) यदि शिवलिंग ज्योतिस्वरूप शिव की दिव्य आकृति की स्थूल प्रतिमा है तो फिर शंकर कौन हैं? लोग शंकर को 'शिव' क्यों कहते है ?
(ख) यदि शिव और शंकर में कोई अन्तर नहीं हैं तो दोनों की मूर्तियों की आकृति में अन्तर क्यों है?
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