हिन्दू धर्म वैदिककाल से ही कर्म, भक्ति व ज्ञान का समन्वय ही स्वीकारता रहा है। मन ही बन्धन व मोक्ष की प्रतीति का स्थल है। पापरूपी मल, विक्षेपरूपी रागादि व स्वरूप का आवरण ही वे त्रिदोष हैं जो कुपित होकर जीव को बन्धन के सन्निपात में अण्डबण्ड बकवाते रहते हैं व व्यवहार में प्रवृत्त कराते रहते हैं। सत्कर्म से पापमल निवृत्त हो जाता है। भक्ति रागनिवृत्ति कर मुमुक्षा को तीव्र करती है। ज्ञान आवरण को भङ्गकर स्वरूपाविर्भाव कर देता है जो मोक्ष का ही दूसरा नाम है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि कर्म विविदिषा को उत्पन्न करते हैं। भक्तिरूप शान्त्यादि ज्ञानयोग्यता का आपादन कराते हैं। श्रवण व मननरूपी ज्ञानाभ्यास अपरोक्षानुभव को प्रकट करते हैं। इस प्रकार क्रम से तीनों का अभ्यास जीव को कृतार्थ कर देता है।
मुख्यधारा समन्वयवादी होने पर भी आचार्यों ने अपनी-अपनी साधना-पद्धति को प्रधानता देने के लक्ष्य से इनमें से अन्यतम को ही प्रधान माना है। इनमें भी कुछ लोगों ने तो अन्यों को गौण स्वीकारा है और कुछ ने उनकी गौणता भी अस्वीकार कर दी है, मोक्ष के अनधिकारियों के लिये इनका प्रतिपादन मान लिया है। इसीलिये जिस प्रकार वेदव्यास ने पुराणों का प्रकाशन प्रधानरूप से भक्ति के लिये किया, वैसे ही ब्रह्मसूत्रों का ज्ञान के लिये निर्माण किया एवं महाभारत का कर्म के लिये प्रणयन किया। आचार्य शङ्करभग-वत्पादों ने भी भाष्यों द्वारा ज्ञान का विस्तार किया तो स्तोत्रसाहित्य द्वारा भक्ति का विकास किया। उनका जीवन तो ज्वलन्त निष्काम कर्मयोग का दर्पण ही है। उनके बाद संभवतः कोई भी संस्कृतज्ञ भक्त ऐसा नहीं हुआ जो उनके प्रभाव से अभिभूत न हुआ हो। जो वैष्णवादि दार्शनिक उनके दर्शनपक्ष को नहीं स्वीकारते वे भी उनके विष्णुसहस्रनामादि-विवरण एवं उनके स्तोत्रों को तो उपजीव्य बनाते ही हैं। उनके स्तोत्र साहित्य का इसीलिये उन्होंने खण्डन भी नहीं किया।
उत्तर भारत विष्णु की अवतारलीला-स्थली रही है। अतः हिमालय के पर्वतीय प्रदेशों को काश्मीर, कांगड़ा, कूर्माचल, केदार, काष्ठमण्डप, कामरूप आदि को छोड़कर यदि तलस्थलों में देखें तो राम व कृष्ण की भक्ति का ही प्रचार प्रधान रहा है। अतः हिन्दीभाषी प्रदेशों की भाषाओं में शिवभक्ति का साहित्य न्यूनतम है। फलस्वरूप भक्ति का तात्पर्य ही वैष्णवभक्ति हो गया। इसी के कारण वैष्णव दार्शनिक पक्ष का भी हिन्दी भाषामात्र जाननेवालों में प्रभाव बढ़ता गया एवं अद्वैत पक्ष विस्मृति के गर्भ में चला गया। निर्गुण व सगुण दोनों भक्तिमार्ग विशिष्टाद्वैत या भेदाभेद या द्वैत दर्शनों से ही अनुप्राणित रहे। संस्कृतज्ञ तो यहाँ भी अद्वैत दर्शन के ही अनुयायी बने रहे। पर काशी ही अद्वैत का प्रधान केन्द्र रह पाया। अतः सामान्य जनता ने भक्तिमार्ग व ज्ञानमार्ग दो स्वतन्त्रमार्ग मान लिये एवं प्रथम को वैष्णवमार्ग व द्वितीय को शैवमार्ग भी माना जाने लगा। इसीलिये लोगों में भ्रम फैल गया कि अद्वैतमार्ग शुष्क व भक्तिहीन है। इस सन्देह की निवृत्ति के लिये आचार्य के स्तोत्रों का प्रामाणिक व विस्तृत विवेचन करते हुए अनुवाद आवश्यक हो गया था। स्वामी स्वयम्प्रकाशगिरि अद्वैत के दार्शनिक प्रस्थान के गंभीर अन्वेषक व पाठक रहे हैं। अतः वे इस कार्य के लिये सर्वथा सक्षम हैं एवं हमें बड़ी प्रसन्नता है कि उन्होंने यह कार्य अपने ऊपर लिया एवं स्वल्पकाल में ही सम्यग्रूप से सम्पन्न कर लिया ।
शिवानन्दलहरी का भक्तिसाहित्य में विशेष स्थान है। संभवतः यह और स्तुतिकुसुमाञ्जलि शैवभक्तों का सर्वोत्तम पाथेय है। शिवानन्दलहरी में शिवतत्त्व का सभी प्रकार से विस्तृत विवरण आ गया है। सारा भक्तिसाहित्य का दर्शनपक्ष इसमें स्फुट है। स्वामी स्वयम्प्रकाशगिरिजी की व्याख्या भी संक्षिप्त होते हुए भी इस पर पूर्ण प्रकाश डालती है। अतः इस व्याख्या को हिन्दी स्मार्त्त-भक्ति-प्रकाश या अद्वैतभक्तिसार भी कहा जा सकता है। प्रारंभ में ही विद्वान् व्याख्याता ने भक्ति की साध्यरूपता व साधनरूपता पर प्रकाश डालते हुए इसकी साधनरूपता की ही वैदिकता सिद्ध कर अद्वैत भक्ति को केवल भावमात्र नहीं वरन् भावयुक्त-कर्मपरक सिद्ध किया है। दार्शनिक व धार्मिक मतभेदों के होते हुए भी विश्व के सभी धर्म भक्ति को स्वीकारते हैं। अतः अद्वैतसम्प्रदाय में इसका स्थान निश्चित करना आवश्यक है क्योंकि निर्गुण परमशिवतत्त्व व उसकी प्रत्यगात्मा से अत्यन्ताभिन्नता ही अद्वैत में प्रेम का आधार है।
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