जितना मनुष्य-जन्म दुर्लभ है उससे भी ज्यादा मनुष्यता दुर्लभ है और उससे भी ज्यादा मानुषी शरीर से, मन से, बुद्धि से पार परमात्मदेव का साक्षात्कार दुर्लभ है। श्रीकृष्ण के अवतार से यह परम दुर्लभ कार्य सहज सुलभ हो पाया । राजसी वातावरण में, युद्ध के मैदान में किंकर्त्तव्यमूढ अवस्था में पड़ा अर्जुन आत्मज्ञान पाकर - 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा' - अपने आत्म-वैभव को पाकर सारे कर्मबन्धनों से छूट गया। जीते-जी मुक्ति का ऐसा दुर्लभ अनुभव कर पाया।
श्रीकृष्ण को अगर मानुषी दृष्टि से देखा जाय तो वे आदर्श पुरुष थे। उनका उद्देश्य था मनुष्यत्व का आदर्श उपस्थित करना।
मनुष्य व्यावहारिक मोह-ममता से ग्रस्त न होकर, धर्मानुष्ठान करता हुआ दुर्लभ ऐसे आत्मबोध को पा ले, इस हेतु मनुष्य में शौर्य, वीर्य, प्राणबल की आवश्यकता है। इस छोटे से ग्रंथ में संग्रहित प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू के अनुभवसिद्ध प्रयोग और उपदेशों से हम अपनी प्राणशक्ति, जीवनशक्ति, मनःशक्ति और बुद्धि का विकास करके इहलोक और परलोक में ऊँचे शिखरों को सर कर सकते हैं और तीव्र विवेक-वैराग्यसम्पन्न जिज्ञासु लोकातीत, देशातीत, कालातीत अपना आत्म-साक्षात्कार का दुर्लभ अनुभव पाने में अग्रसर हो सकता है।
आज हम सब भी रजो-तमोगुणी वातावरण में पनपे हैं और घसीटे जा रहे हैं। भीतर विकारों-आकांक्षाओं का युद्ध मचा है। इस समय श्रीकृष्ण की लीला, चरित्र, ज्ञानोपदेश, प्राणोपासना, जीवनयोग और विभिन्न प्रसंगों पर अनुभव-प्रकाश डालते हुए प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू ने आज के मानव की आवश्यकता अनुसार पथ-प्रदर्शन किया है।
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