जयन्ति ते सुकृतिनः रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ।।
अपारकाव्यसंसार में अपनी अलौकिक कारयित्री प्रतिभा रूपी नौका पर समारुढ कवि की सतर्क दृष्टि में सबका स्थान सुरक्षित है। गहन गह्वर के अन्धकार को भी सद्यः प्रकाशित करने वाली सूर्यश्मियों की ही तरह अब तक नूतन कल्पनाविष्ट भगवान् परशुराम का लोकातिशायी चरित्रवर्णन प्रायः अस्पृष्ट ही रहा है। इसकी पूर्ति आदरणीय डॉ. नरेन त्रिपाठी की लेखनी के द्वारा की गयी है। एक महाकवि ने धनिकों भूपतियों को भी सावधान करते हुए कहा है कि लंकापति महापंडित रावण जी का लोकनिन्द्य चरित्र तथा अयोध्यापति दशरथनन्दन श्रीराम का उज्जवलयश दोनों के प्रथमाविष्कर्ता आदिकवि वाल्मीकि ही हैं। अब तक दशावतार में भगवान् परशुराम क्षत्रियधर्मी, शास्त्रास्त्र मर्मज्ञ, तीक्ष्ण क्रोधानल से सततप्रदीप्त रूप में ही जाने गये हैं। इस ग्रन्थ में डॉ. त्रिपाठी जी ने उन्हें महान् योगी पितृआज्ञा परिपालक, आदर्श पुत्र रूप में दिखाये हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार उत्तमपुत्र वही है जो माता पिता की आन्तरिक इच्छा को बिना कहे ही परखकर उसे पूर्ण कर दे। पितृ भक्ति का ऐसा विलक्षण उदाहरण अप्राप्त है। वर्ण नीय चरित्र को सर्वात्मना प्रशस्त बनाकर लोकशिक्षण हेतु आदर्शरूप देने की कला का, यह काव्य, उत्तम उदाहरण है।
महान चरित्रों का सब कुछ विलक्षण होता है। उनका जन्म, कर्म तप उपकार सेवा, सामर्थ्य आदि लोकोत्तर ही रहता है। आचार्य त्रिपाठी जी ने प्रथम सर्ग से ही उनके इस लोकातिशायी स्वरूप को प्रस्तुत किया है। महर्षि ऋचीक ने चन्द्रवंशी राजा गाधि से उनकी कन्या सत्यवती को विवाहार्थ प्रस्ताव रखा। पहले तो उन्होंने असहमति दिखायी, पुनः ऋषि को स्वानुकूल पाकर उन्होंने अपनी कन्या प्रदान की। भृगुपुत्र ऋचीक ने अपने पिता से तेजस्वी सन्तति की कामना प्रकट की। महात्मा भृगु नें उन्हें उदुम्बर वृक्ष के आलिंगन की बात बतायी। विष्णु पूजन के बाद सिद्ध पायस तैयार किया गया। उसके दो भाग करके एक में क्षात्रतेज एवं दूसरे में ब्राह्म तेज का आधान किया पायस खाने के समय गधिपत्नी ने पायस का विनिमय कर दिया तथा अपना क्षात्रधर्मी पायस पुत्री सत्यवती को दे दिया ऋचीक को यह ज्ञात हो गया। उन्होंने श्री विष्णु को प्रसन्न करके उभय पक्ष के मंगल की कामना प्रकट की। प्रसन्न नारायण ने वैसा ही वर दिया तथा स्वयम् अवतरित हुए। पायस के प्रभाव से सत्यवती को जमदग्नि की प्राप्ति हुई। इन्हीं जमदाग्नि से भगवान् क्षात्रधर्मसम्पन्न महायोगी परशुरामके रूप में अवतरित हुए। द्वितीय वर्ष में ऋषि रेणु की पुत्री रेणुका के साथ भगवान् जमदग्नि का विवाह वर्णित है। यहां कवि हृदय आचार्य त्रिपाठी की स्वदेश प्रेम का कुछ पक्षपात भी दिखायी देता है कि भृगुवंश के यश को प्रचरित करने वाली मासपर्यन्त मेला तथा धर्म संसद् की परम्परा भी वर्णित है। यहीं गुजरात आदि में भी भृगुवंशी परम्परा का पालन दिखाया गया है।
तृतीय सर्ग में भगवान परशुराम के यज्ञोपवीतादि संस्कारों का वर्णन हुआ है। पिता के द्वारा उन्हें लोक कल्याण का महत्तम उपदेश दिया उनका दर्शन पूजन करने भृगु अंगिरा, देवर्षि, ब्रह्मर्षि, देव, गन्धर्व पितृगण, यक्ष नाग श्रेष्ठराजागण आदि सभी लोग आये, यहाँ कवि ने भगवान परशुराम जी के "लोकेसमत्वं हृदये ममत्वम्" आदि लौकिक गुणों से लेकर अध्यात्मविद्यां श्रवणेऽवनद्धाः, इत्यादि अलौकिक गुणों का भीं यथोचित वर्णन किया है। चतुर्थ सर्ग महिष्मती पुरी तथा कार्तवीर्यार्जुन के वर्णन के साथ प्रारंभ होता है। सहस्त्रभुजाओं वाला यह कार्तवीर्यार्जुन भगवान दत्तात्रेय से विजय के आशीर्वाद हेतु वहाँ जाते हैं। भगवान दत्तात्रेय ने उन्हें तपपूतमन से योग प्राप्ति तथा लोककल्याण का उपदेश दिया। पंचम सर्ग में कपिला गो हेतु कर्तवीर्य से संघर्ष का वर्णन है। वह राजा भगवान दत्तात्रेय की कृपा से अतुल बलशाली हो गया था। फलतः वह नन्दिनी गाय को पाने को लालायित हो गया इसी बीच वह नर्मदा जी में प्रवाह रोक कर स्नान कर रहा था। यदृच्छया समागत रावण ने अनेक दुर्वचन कहा, अतः कार्तवीर्य ने उन्हें कारागार में डाल दिया फिर महात्मा पुलस्त्य के अनुरोध पर मुक्त किया। जब राजा कार्तवीर्य महर्षि जमदाग्नि की नन्दिनी गाय का प्रभाव देखकर पहले तो मांगा, पुनः तलवार दिखाकर अपनी नगरी में ले गया। यह जानकर भगवान परशुराम माहिष्मती पुरी जाकर पाँचजन्य शंख की ध्वनि की। पुनः भयंकर युद्ध करके भगवान परशुराम ने उस गो भक्षक राजाकार्त्तवीर्य का वध कर दिया।
छठे सर्ग में नारायण एवंमाया का वर्णन है। धर्मशास्त्र के अनुसार ब्राह्मणों ने तप करके जगन्मंभस्वामित्व प्राप्त किया। क्षत्रियों को अपने भख, सत्कर्म प्रजानन की रक्षा हेतु नियुक्त किया ब्राह्मण ही राजा को पदयुक्त या पदमुक्त भी कर देता था। इधर इनकी माता स्नानार्थ नर्मदा पर गयी थी। उन्हें प्राकृतिक शोभा दर्शन में विलम्ब भगवान परशुराम के अन्य भाइयों ने पिता के आदेश को नहीं माना किन्तु भगवदैवश्वर्य सम्पन्न अलौकिक तेजस्वी परशुराम जीने माता को स्वीकार किया किन्तु तुरन्त माता को जीवित करने का आशीर्वाद भी प्राप्त किया। जब भगवान परशुराम इन्धनार्थ वन में गये तभीं कार्तवीर्य के पुत्र सेना सहित आ गये रोती विलखती रेणुका को भी कटुवचन सुनाते हुए महर्षि जमदग्नि को वधकर दिया। भगवान परशुराम ने जब आने पर मृत पिता को देखा तब देवगन्धर्वादि की विशाल सेना लेकर समस्त क्षत्रिय वंशकाही विनाशकर दिया।
सातवें सर्ग में क्षत्रियों द्वारा भगवान परशुराम को मारने के उपाय का वर्णन है। क्षत्रिय अपनी क्षुद्र लौकिक सेना लेकर सामने आये भगवान भी अपनी नारायणी सेना लेकर आये। विद्युल्लता की भाँति चमकता हुआ कुठार लेकर भगवान परशुराम ने सबका विनाश कर दिया। सभी देवर्षि, ब्रह्मर्षि महर्षि देवादिने भगवान परशुराम की स्तुति की। नारायण के ही प्रभाव से इन ब्रह्मस्वरूप परशुराम की इच्छानुसार जमदग्नि को सप्तर्षियों में स्थान प्राप्त हुआ ।
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