'चौमासा' में प्रकाशित डॉ. नर्मदाप्रसाद गुप्त का उपर्युक्त कथन अत्यंत उपादेय है। वस्तुतः 'लोक' और 'साहित्य' दोनों के समायोग से 'लोकसाहित्य' शब्द बना जिसका सामान्य अर्थ लोक का साहित्य है। लोकसाहित्य में रस हो चाहे न हो किन्तु आकर्षण कूट-कूट कर भरा होता है। लोकसाहित्य में गुड़ जैसा गुण निहित होता है जिसका प्रत्येक घूँट शरीर को तर करके उसे मानसिक रूप से पुष्ट करता है। शैक्षणिक विकास से रहित निरक्षर जनता की मौखिक अभिव्यक्ति को लोकसाहित्य कहते हैं। जीवन के कार्यकलाप को चित्रित करती काव्यात्मक रचना को लोकसाहित्य कहा जाता है जिसे मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोने की परम्परा बनी। लोकसाहित्य सामूहिक रूप से विरचा गया वह तत्त्व है जो लोक का प्रतिनिधित्व करता है। प्रकृति जनमानस को प्रेरित करके स्वतः गान करती है जो लोक में व्याप्त होता है। निष्कर्षतः 'लोकसाहित्य' लोक द्वारा लोकभाषा में रचा गया वह नूतन अध्याय है जिसके रचनाकार का कोई अता-पता नहीं रहता।
पं. रामनरेश त्रिपाठी लोकाभिव्यक्ति को ग्राम्य जीवन के आइने से देखते हैं। गाँव की भोली-भाली जनता प्रकृति की गोद में रसी-बसी होती है, अतः उसकी अभिव्यक्ति लोक की सम्पत्ति बन जाती है। त्रिपाठी जी ने स्पष्ट करते हुये लिखा- 'प्रकृति जब तरंग में आती है, तब वह गान करती है। उसके गीतों में हृदय का इतिहास इस प्रकार व्याप्त रहता है जैसे प्रेम में आकर्षण, श्रद्धा में विश्वास और करुणा में कोमलता।" ...इससे सिद्ध होता है कि लोकसाहित्य का प्रणेता मनुष्य नहीं, प्रत्युत स्वयं 'प्रकृक्ति' है जो किसी मानव समूह को निमित्त बनाती है। नैमित्तिक तथ्यान्वेषण में चिड़िया का कलरव, झींगुर की झनझनाहट, मधुकर का गुञ्जार, पानी का कल-कल निनाद और मनुष्य का उद्गार मुख्य स्रोत प्रतीत होता है।
'वीरेन्द्र परमार' के अनुसार 'लोकसाहित्य लोकजीवन का प्रतिबिम्ब होता है, उसमें साधारण जनता की आशाएँ-आकांक्षा, विजय-पराजय, हर्ष-वेदना तथा विधि- वेदना तथा विधि-निषेध सब कुछ समाहित होता है।" 'डॉ. सुरेश गौतम' कहते हैं- 'लोकसाहित्य एक नदी की तरह है। कोई नदी पहले पहल किसी ग्लेशियर से फूटती है, पहाड़ों और घाटियों के बीच से निकलकर शहरों, कस्बों से होते हुए आखिरकार समन्दर में जाकर मिल जाती है।"
उपमा के द्वारा लोकसाहित्य की मीमांसा करने वाले डॉ. गौतम कदाचित् यह भाव विस्मृत कर बैठते हैं कि नदी उदधि का मेल नदी के अस्तित्व को समाप्त कर देता है। सागर में पहुँचकर कोई नदी-नदी नहीं प्रत्युत सागर बन जाती है जबकि लोकसाहित्य का अस्तित्व कहीं जाकर समाप्त नहीं होता। जहाँ तक मैं समझता हूँ लोकसाहित्य ऐसा सागर है जिसमें गोता लगाने से उत्कृष्ट रत्नों की उपलब्धि संभावित होती है। इस सागर का मानव जीवन पर अपरिमित प्रभाव है जो सभी प्रकार के साहित्य का आश्रयदाता होता है। जब तक प्रकृति में सृष्टि रहेगी, तब तक इसका अस्तित्व बना रहेगा।
प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित लिखते हैं- 'आदिमानव के मस्तिष्क की सच्ची अभिव्यक्ति को लोकवार्ता या लोकसाहित्य कहते हैं। यह लोकसाहित्य लोक समूह द्वारा स्वीकृत व्यक्ति की मौखिक एवं पारम्परिक वाणी है जिसके माध्यम से लोक मानस मुखरित होता है।"
आदरणीय दीक्षित जी का अभिकथ्य सिद्ध कर रहा है कि आदि मानव द्वारा ही लोकसाहित्य का उद्भव हुआ है। वैसे ग्राम्य जीवन में भी इसके उद्भव की संभावना निहित है। कुएँ पर खड़ी पनिहारिनि से कोई प्रश्न करता है कि तुम अनमने भाव से क्यों खड़ी हो? क्या तुम्हारा हार कुएँ में गिर गया है या किसी का साथ छूटा है?
अरे कुअँना की पनिहारिन, काहे तू मन मुरझे ठाढ़ि।
कि कुअँना तोर हार गिरा बा, जा कै बिछुड़ी पनिहारि ।।
जनजातियाँ प्रायः आबादी से दूर जंगल के ऐसे प्रखण्ड में रहते हैं जहाँ बाहरी अनजान पथिक का आवागमन पहले संभावित नहीं था। ऐसे में उनके समूह द्वारा किसी पथिक की परिकल्पना संगत नहीं लगती। अवधी का उपर्युक्त लोकगीत ग्राम्य जीवन से निःसृत हुआ है। अतः हम केवल आदिमानव के मस्तिष्क की उपज को ही लोकसाहित्य नहीं ठहरा सकते। डॉ. सुमन चौरे के अनुसार 'ग्रामगीत प्रकृति की पहली उपज है।..... मानव-मानव से मिला, मिलन से सृष्टिराग उपजा।"
जनजाति का वाचिक लोकसाहित्य शिक्षा के अभाव में भी सुरक्षित रहा। शिक्षा के नकली मुखौटे से दूर जनजाति अपने परिवेशों में ही संस्कारों से सुसम्पन्न थी। उनके वक्तव्य एवं कार्यकलाप में सत्य, सौहार्द्र एवं स्पष्टवादिता का गुण बचपन से ही कूट-कूट कर भर दिया जाता है। नगर एवं ग्राम्य जीवन की झलक वहाँ दृष्टिगत नहीं होती। उदाहरण के तौर पर 'कोरकू' जनजाति का एक लोकगीत देना चाहूँगा जिसमें उनकी मूकपीड़ा को स्पर्श किया गया है
डा रुना-रुना हो डानी गमागे सकोम साली डलकी वा, जरा साली डलकी वा सोना मूसना काकू दो पाडी भू सागे। गागंड़ा कोने डोकी माका चेगेय विगेयवा, डोला कोने डोकी माका डानी गाभावा ।'
बरसात हो रही है। नदी में पाल बाँध दी गयी है। पानी रोकने के लिये पाल में सागौन के पत्ते लगा दिये। मछली पकड़ने वाले मछली पकड़ रहे हैं। 'मूसना' और 'काकू' मछली पकड़ी जा रही है। बारिश हो रही है। चारों तरफ बिजली भी चमक रही है। पानी मटमैला है और बरसात लगातार हो रही है।
सम्मान्य 'डॉ. धर्मेन्द्र पारे' जी ने अक्षरशः सत्य कहा है- 'तथाकथित शिक्षा का दम्भनगरीय लोगों में देखने में आता है।" शिक्षा के नाम पर लोग लोक संस्कृति के ज्ञान से हीन हो रहे हैं। यह संक्रमण नगर से गाँव में भी पनप रहा है, गर्वेई लोग शिक्षित कहाने के चक्कर में लोकभाषा में बात करना स्वयं को निम्नतर समझते हैं। आञ्चलिक भाषा के बहुतेरे शब्द प्रयोग से गायब होते जा रहे हैं, अर्थात् गाँव के लोग अपने बच्चों को गाँव की भाषा में बात करने से रोकते हैं। गाँव की दुल्हनें अब पारम्परिक गीतों में विशेष अभिरुचि नहीं रखती; टी.वी., मोबाइल एवं डी.जे. ने ग्रामगीतों को ग्रसित कर रखा है। जन्मदिवस, विवाह, जनेऊ आदि के अवसर पर अब डी.जे. बजता है। विशेष दबाव पर नारियाँ स्वयं बेसुरा गीत गढ़कर काम चला लेती हैं, यथा-ललन मुख देखकर जिया भयो ठण्डा। आईं सासु रानी देवता मनन को, हाथ पकड़ कर बाहर कर दो, मारो चार डण्डा। ललन मुख देखकर.........
यह आधुनिक गीत है। पुत्र जन्म के अवसर पर देवता-पितर मनाये जाते हैं, फिर इसमें सास की अवहेलना क्यों की गयी? यह व्यंग्य क्यों किया गया कि 'मारो चार डण्डा'? जबकि लोकसाहित्य एक विशिष्ट शिष्टाचार को इंगित करता है। एक गीत में पुत्र-वधू बिना सास की अनुमति पाये अपने भाई से भी मिलना उचित नहीं समझती, वह कहती है-
सासु गोसाईं पैयाँ तोर लागौं, कहौ सासू भैया भेंटन हम जाब।
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