बड़े खेद की बात है कि हिन्दी का सामान्य विद्यार्थी आज भाषा की शुद्धता पर ध्यान नहीं देता। अध्यापक भी इसकी बहुत चिन्ता नहीं करता। इधर शिक्षाशास्त्री चिल्लाते हैं कि भाषा का स्तर ऊँचा न होने के कारण ज्ञान का स्तर गिरता ही जा रहा है। स्कूल का विद्यार्थी ही नहीं, विश्वविद्यालय में बी.ए. और एम.ए. तक का विद्यार्थी एक पन्ना शुद्ध हिन्दी में नहीं लिख सकता। हिन्दी के विद्यार्थी की अपेक्षा अंग्रेजी का विद्यार्थी अधिक सावधान रहता है, क्योंकि वह जानता है कि अंग्रेजी कठिन है, सीखने और अभ्यास करने से आयेगी। किन्तु भारत के बहुत बड़े भाग के हिन्दी-भाषी विद्यार्थी समझते हैं कि हिन्दी तो हमारी मातृभाषा है, हम इसे वर्षों से बोलते आ रहे हैं, इसलिए हमें कुछ सीखना ही नहीं है। जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है, वे कुछ अधिक सावधान रहते हैं अवश्य, किन्तु वे अपनी-अपनी मातृभाषा के प्रयोगों से पल्ला नहीं छुड़ा पाते। वे हिन्दी की प्रकृति को प्रायः ठीक-ठीक नहीं समझते। 'हिन्दीवाले' भी अपने-अपने स्थांनीय, क्षेत्रीय या बोलीगत प्रयोगों और संस्कारों से जान नहीं छुड़ां पाते। इन लोगों को अपने मन से यह मिथ्या धारण हटा देनी होगी कि हिन्दी हमारी मातृभाषा है, हमें इसमें दिक्कत नहीं है। भाई, हिन्दी तो सामान्य भाषा है, यह कोई क्षेत्रीय बोली नहीं है। यह अब देवभाषा या विद्वानों की भाषा है शिक्षित वर्ग की भाषा है।
प्रायः देखा गया है कि पंजाब के लोग अपना पंजाबीपन, बंगाल के बंगालीपन, बिहार के पूर्वीपन, गुजरात के गुजरातीपन और दूसरे लोग अपने-अपने व्यवहार हिन्दी में ले आते हैं। ऐसा स्वाभाविक तो है, किन्तु वांछनीय नहीं है। इस तरह प्रादेशिकता के प्रभाव से हिन्दी का कोई एक आदर्श, परिनिष्ठित और मान्य रूप नहीं रह जायगा। तब यह सामान्य भाषा नहीं बन पायगी।
यदि 8-8, 10-10, 14-14 बरस हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़ते रहने के बाद भी कोई व्यक्ति शाशन, बिद्या, जयार्य, शब्द, अरमूद आदि ग्राम्य उच्चारण छोड़ नहीं पाता अथवा हम जाता है, पहिया अच्छी है, आप जाओगे, मैंने जाना है, हम उसको बताये, उसने बात किया आदि का प्रयोग करता है, तो उसे अनपढ़ आदमी के समान ही समझना चाहिए। भाषा से ही आदमी की शिक्षा, सभ्यता और कुलीनता का परिचय मिलता है।
खेद तो इस बात का है कि हिन्दी के विद्यार्थी के पास प्रायः न तो अच्छा-सा कोश रहता है न ही कोई व्याकरण-अन्य। वह न शब्द-भण्डार बढ़ाते रहने की चिन्ता करता है और न अपने शब्दों के शुद्ध प्रयोग पर विशेष ध्यान देता है। उसे न तो अच्छे-अच्छे वक्ताओं के उच्चारण का अनुकरण करने की आदत है और न आप्त लेखकों की कृतियों को पढ़कर अपनी भाषा को सामान्य और मानक रूप देने का शौक है। याद रहे कि शुद्ध भाषा के लिए शुद्ध दर्शन और शुद्ध श्रवण होगा तो शुद्ध उच्चारण और शुद्ध लेखन आप-से-आप आने लगेगा।
यह पुस्तक इन सभी दिशाओं में शुद्ध हिन्दी सीखनेवालों की सहायता करेगी।
इस पुस्तक की लगभग सारी सामग्री विद्यार्थियों की कापियों से ही ली गयी है। पिछले 35 वर्ष से उनकी भूलों को अपने पास जमा करता रहा हूँ। उन भूलों का यहाँ वर्गीकरण भर करके मैंने शुद्ध हिन्दी सिखाने का प्रयत्न किया है। शुद्ध हिन्दी सिखाने के उद्देश्य से कई पुस्तकें लिखी गयी हैं; किन्तु प्रायः उनमें व्याख्यानात्मक सामग्री अधिक है, व्यावहारिक और उपयोगी सामग्री कम है। मैंने वर्गीकरण ही इस ढंग का किया है कि व्याख्यानात्मक टिप्पणियों की आवश्यकता नहीं रही। मेरे पास जो सामग्री जुट गयी है उस सब का उपयोग यहाँ नहीं कर पाया हूँ। सभी अशुद्धियों की सूचियाँ देना वांछनीय भी नहीं है। उनकी सहोदरा अशुद्धियों का संकेत यथास्थान कर ही दिया है। इन नमूनों से दूसरी भूलों को समझ लिया जाय।
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