प्रस्तुत ग्रन्थ महर्षि कात्यायन द्वारा प्रणित आठ अध्यायों में विभक्त है। इस पर संस्कृतभाष्य उव्वट एवं अनन्त भट्ट का है। इसका हिन्दी अनुवाद के साथ प्रथम संस्करण वर्ष १९८५ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रकाशन से हुई थी। सम्प्रति यह द्वितीय संस्करण वैदिक विज्ञान केन्द्र की ओर से वर्ष २०२१ में प्रकाशित हो रही है।
प्रस्तुत ""शुक्लयजुर्वेदीय प्रातिशाख्यम्' आठ अध्यायों में विभक्त है। इस ग्रन्थ की रचना सूत्रों में हुई है। ग्रन्थ की शैली, विषय-वस्तु का विन्यास आदि इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि यह उत्तर-सूत्रकाल की रचना है। किंतु निरुक्तकार द्वारा स्मृत होने से ई० अष्ट-शतक से प्राचीन होना चाहिये। इस ग्रन्थ में आठ अध्यायों के सूत्रों में क्रमशः १६७,६५, १५२, १९७, ४६, ३१, १२, तथा ५५ सूत्र हैं। आठवें अध्याय में १३ पंक्तियाँ हैं, जो अनुष्टप् छन्द से अभिन्न हैं। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही वर्णित है- ""स्वरसंस्कार-योश्छन्दसि नियमः"" छन्दोभाषा के स्वर (उदात्त, अनुदात्त, स्वरित एवं प्रचय) तथा संस्कार (लोप, आगम, वर्ण-विकार एवं प्रकृतिभाव) का नियम (इस शास्त्र का प्रतिपाद्य है।) इस ग्रन्थ में अनेक स्थलों पर विषयों को ग्राफिकलन माध्यम से विषय स्पष्टता के लिए किया गया है।
कात्यायन प्रातिशाख्य के आठवें अध्याय में वर्ण-समाम्नाय का प्रतिपादन किया गया है, जिसमें ध्वनियों की पूर्ण-संख्या ६५ है। जिसमें २३ स्वर और ४२ व्यञ्जन हैं (२३ स्वर, २५ स्पर्श, ४ अन्तस्थ, ४ ऊष्म तथा ९ अयोगवाह) कुल मिलाकर ६५ वर्णों की परिपूर्ण वर्णमाला का वर्णन अन्यत्र कहीं नहीं उपलब्ध होता। अनन्तर स्वाध्याय (८/२७/३७) की विधि एवं फल का वर्णन है। तदनन्तर वर्णदेवता (८/४०-७) का व्याख्यान है। अक्षर, वर्ण, पद की परिभाषा देते हुए अन्त में शब्दचतुष्टय अर्थात् नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात के लक्षणों के साथ पद के गोत्र एवं देवता का वर्णन प्रस्तुत कर ग्रन्थ का उपसंहार हो जाता है।
ग्रन्थ के अन्त में इस प्रातिशाख्य से सम्बन्धित शिक्षा ग्रन्थ (याज्ञवल्क्य-शिक्षा), मूल एवं सूत्रों का अकारादि क्रम से अनुक्रमणिका प्रस्तुत किया गया है।
काशी की पाण्डित्य परम्परा के एक अविस्मरणीय नाम है आचार्य जगन्नाथ त्रिपाठी। आपका जन्म यद्यपि प्रमाण-पत्र में 01 मार्च 1920 अंकित है, किन्तु यथार्थ रूप में विक्रम संवत् 1962 तद्नुसार 1905 ई० में जगन्नाय रथयात्रा के दिन ही बिहार के छपरा मण्डलान्तर्गत देववाँ ग्राम में सरयूपारिण ब्राह्मण पं० श्रीकृष्ण देव त्रिपाठी के घर में हुआ था। जगन्नाथ यात्रा के दिन ही जन्म होने के कारण आपके पूज्य पिताजी ने आपका नाम जगन्नाथ रख दिया। सन् 1934 में आप अपने गाँव ढेबवों से काशी पैदल ही आये। काशी में आने के पश्चात् बाबा विश्वनाथ जी की कृपा से विश्वविश्रुत विद्वान् महामहोपाध्याय पं० विद्याधर शास्त्री गौड़ जी ने आपको अपने पास रखकर दीक्षित किया।
आपने मध्यमा से लेकर आचार्य तक सम्पूर्ण परीक्षाएँ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण किया। आचार्य श्री त्रिपाठी जी ने वेद एवं कर्मकाण्ड की शिक्षा महामहोपाध्याय पं० विद्याधर शास्त्री गौड़ से, मीमांसा की शिक्षा महामहोपाध्याय पं० चिन्तन स्वामी से, दर्शन एवं साहित्य की शिक्षा 1008 श्री ब्रह्मलीन सुमेरू पीठाधीश्वर स्वामी माहेश्वरनन्द जी से से एवं 1008 श्री ब्रह्मलीन ज्योतिष पीठाधीश्वर कृष्णबोधाश्रम जी महाराज से तथा संस्कृत साहित्य की शिक्षा 1008 श्री ब्रह्मलीन स्वामी करपात्री जी महाराज जैसे श्रेष्ठ गुरुजनों से प्राप्त की। आचार्य त्रिपाठी जी का अध्यापनकाल 1944 में प्रारम्भ हुआ। आप नेपाल के मौनीय संस्कृत महाविद्यालय, जनकपुर धाम में प्रवक्ता पद पर चयनित हुए। काशी के प्रति विशेष अनुरागवश आपने वहाँ त्यागपत्र दे दिया और काशी में आकर मारवाड़ी संस्कृत विद्यालय में प्रवक्ता के रूप में अध्यापन करने लगे। सन् 1967 से 1980 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय के वेद विभाग में प्रवक्ता एवं अध्यक्ष पद को भी अलंकृत करते हुए सेवानिवृत्त हुए। आपको छात्र जीवन में सन् 1936 से 1946 तक महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी का सान्निध्य प्राप्त हुआ था तथा उसी काल में आप मालवीय भवन में मालवीय जी के साथ रहे है।
सेवानिवृत्ति के पश्चात् आप अपने निवास स्थान पर वेद वेदांग स्वाध्यायपीठ की स्थापना कर अन्तकाल तक वेद-वेदांग शिक्षा देते रहे हैं। विश्वविद्यालय से अवकाश प्राप्ति के पश्चात् श्री त्रिपाठी जी ने शुक्लयजुर्वेद प्रातिशाख्य के हिन्दी व्याख्या लिखी, जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1985 ई० में प्रकाशित हुई। इसी क्रम में आप द्वारा लिखित अनेक लेख, शोध निबन्ध विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हुए है। आपने देश के अनेक भागों में सफलतम यज्ञों का अपने आचार्यात्व में सम्पादन किया है। आपके जीवन में अनेक विपरीत परिस्थितियाँ आयी, परन्तु आप विषम मार्ग पर चलते हुए कहीं च्युत नहीं हुए, ऐसा संकल्प एवं आचार रखने वाले व्यक्ति को धर्मवीर कहते हैं।
न जातु कामान्न भयान्न लोभाद्। धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।।
ऐसा जिसका आदर्श है वह धर्मवीर है। स्व० आचार्य श्री जगन्नाथ त्रिपाठी जी इसी तरह के धर्मवीर थे। आपका निर्वाणकाल आषाढशुक्ल चतुर्थी वि०सं० 2058, वर्ष 2001 में लगभग 97 साल की अवस्था में हुआ।
'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्' वेद समस्त ज्ञान-विज्ञान तथा समस्त धर्म का मूल शास्त्र है। इसी से समस्त ज्ञान-विज्ञान के चिन्तन का स्फुरण एवं पल्लवन हुआ है। ""मंत्रब्राह्मणर्योवेदनामधेयम्"" मंत्र एवं ब्राह्मण साहित्य वेद पद से जाना जाता है। छः वेदाङ्गों में शिक्षा वेदाङ्ग वेद पुरुष के नासिका के रूप में परिगणित होता है। इस वेदाङ्ग के अन्तर्गत वेदों के समस्त शिक्षा जिसमें स्वर संस्कार तथा वेद अध्ययन के कुछ विशिष्ट नियमों का प्रतिपादन किया गया है। प्रस्तुत 'शुक्लयजुर्वेदीय प्रातिशाख्यम्"" आठ अध्यायों में विभक्त है। इस ग्रन्थ की रचना सूत्रों में हुई है। ग्रन्थ की शैली, विषय-वस्तु का विन्यास आदि इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि यह उत्तर-सूत्रकाल की रचना है, किन्तु निरुक्तकार द्वारा स्मृत होने से ईस्वी अष्ट-शतक से प्राचीन होना चाहिये। इस ग्रन्थ में आठ अध्यायों के सूत्रों में क्रमशः १६९,६५, १५१, १९८, ४६, ३१, १२, तथा ६२ सूत्र हैं। आठवें अध्याय में १३ पंक्तियाँ हैं, जो अनुष्टप् छन्द से अभिन्न हैं। ग्रन्थ का प्रतिपाद्य प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही वर्णित है- ""स्वरसंस्कारयोश्छन्दसि नियमः"" छन्दोभाषा के स्वर (उदात्त, अनुदात्त, स्वरित एवं प्रचय) तथा संस्कार (लोप, आगम, वर्ण-विकार एवं प्रकृतिभाव) का नियम (इस शास्त्र का प्रतिपाद्य है।)
उव्वट-भाष्य के मूल प्रातिशाख्य का प्रथम संस्करण जर्मन विद्वान् आल्ब्रेक्ट वेबर द्वारा ई० १८५८ में किया गया। इसमें जर्मन भाषा में सूत्रों के साथ अनुवाद तथा टिप्पणियाँ दी गई हैं।
कात्यायन-प्रातिशाख्य का प्रकाशन ई० १८८८ में वाराणसी से तथा ई० १८९३ में कलकत्ता से भी प्रकाशित हुआ। वाराणसी का यह संस्करण पं० युगलकिशोर शर्मा द्वारा संपादित है, जो बनारस-संस्कृत कालेज के एक सुप्रतिष्ठित वैदिक थे। इस संस्करण के अन्त में उन्होंने अनेक परिशिष्टों को जोड़ा है। प्रतिज्ञा, भाषिक, ऋग्यजूंषि, अनुवाक् और चरणव्यूह आदि जो प्रातिशाख्य के विद्यार्थी के लिए आवश्यक ग्रन्थ हैं। कलकत्ता से प्रकाशित दूसरा संस्करण बनारस के संस्करण का प्रतिरूप है, जो पं० कुलपति ""जीवानन्द विद्यासागर भट्टाचार्य"" द्वारा प्रस्तुत है, जो तत्कालीन फ्री-संस्कृत कालेज कलकत्ता के प्राचार्य थे। इन संस्करणों में ग्रन्थ से सम्बद्ध परिशिष्ट, सूत्रसूची जैसे उपयोगी प्रयास उपलब्ध नहीं होते हैं, जो आधुनिक कृतियों में आवश्यक माने जाते हैं। अतः आधुनिक समय में उपलब्ध समस्त शोध आदि तथा परिशिष्ट आदि के साथ प्रातिशाख्य के संस्करण की नितान्त आवश्यकता रही है।
प्रस्तुत ग्रन्थ का अनुवाद एवं प्रथम संस्करण मेरे गुरु एवं पितामह वेदमूर्ति आचार्य जगन्नाथ त्रिपाठी जी (पूर्व आचार्य, वेद विभाग, का.हि.वि.वि.) द्वारा विक्रम संवत् २०४१, ०३ मार्च, १९८५ में संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुई थी, परन्तु किन्हीं कारणों से अल्प प्रतियाँ ही प्रकाशित होकर लोगों के समक्ष ही पहुँच पाई थी। यह पुस्तक वेदाध्ययन एवं अध्यापन हेतु परम उपादेय है। इसलिए इस पुस्तक का द्वितीय मुद्रण-प्रकाशन करना छात्रों एवं अध्येताओं के लिए परम आवश्यक था। प्रस्तुत ग्रन्थ पर कुछ एक विद्वानों के अनुवाद प्राप्त होते हैं, परन्तु यह प्रकाशन अनेक दृष्टियों से शोध अध्येताओं के गूढ़तम गुत्थियों को सुलझानें की दृष्टि से सहायक सिद्ध होगा।
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