1857 का भारतीय संग्राम जिसे प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, सिपाही विद्रोह, और क्रांति के नाम से भी जाना जाता है, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक सशक्त सशस्त्र प्रतिरोध था। इस क्रांति का आरंभ छावनी क्षेत्रों में छोटी-छोटी झड़पों तथा आगजनी से हुआ, परंतु जनवरी मास तक उसने एक बड़ा रूप ले लिया। ब्रिटिश सरकार की औपनिवेशिक साम्राज्यवादी नीतियों के कारण उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में एक विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई थी। जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन कार्यरत भारतीय सैनिकों ने हथियार उठाए और शीघ्र ही यह संघर्ष संपूर्ण भारत में फैल गया। इन क्रांतिकारियों को असंतुष्ट भारतीय शासकों, जागीरदारों, किसानो और जनमानस का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। इस क्रांति में हज़ारों देशभक्तों ने अपना बलिदान दिया, इनमें कई ऐसे अनाम शहीद भी हैं जिनके संबंध में जानकारियाँ अप्राप्त हैं और देश के लिए उनका योगदान प्रकाश में नहीं आ सका। सन् 1857 की क्रांति स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किए जाने वाले राष्ट्रीय संघर्ष का प्रथम चरण था जो आगे आने वाली पीढ़ी में क्रांतिकारी विचारों को पनपने और आज़ादी के लिए एकजुट होकर प्रयत्न करने के लिए एक पथ प्रदर्शक साबित हुआ। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में महात्मा गाँधी ने इन प्रयासों को अपने प्रेरक नेतृत्व और मार्गदर्शन से एक नई दिशा दी, जिसकी परिणिति देश के स्वाधीन होने के रूप में हुई।
स्वतंत्रता के इस महासमर में देश के अन्य भागों की तरह बघेलखंड क्षेत्र की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। यहाँ के अनेक देशभक्तों ने देश के लिए तन-मन-धन से सहयोग देकर स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व अर्पण किया और अपने प्राणों की आहूति दी।
बघेलखंड में क्रांति का स्वरूप भारत के विभिन्न भागों से कुछ पृथक था। इसका प्रमुख कारण यहाँ राजशाही का होना था जिसके कारण जनता का अंग्रेजों से प्रत्यक्ष रूप से कोई संबंध नहीं था तथा अशिक्षा व जनजागरण की कमी के चलते यहाँ की स्थानीय जनता ने कभी भी राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक ढाँचे में परिवर्तन की बात नहीं सोची। परंतु जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद से जनता को मुक्त करने का संघर्ष भारतवर्ष के अनेक भागों में आरंभ हो गया और सन् 1857 की क्रांति प्रारंभ हुई तब, बघेलखंड की जनता भी प्रारंभ में अप्रत्यक्ष रूप से इससे जुड़ती चली गई। वस्तुतः रीवा, सीधी सिंगरौली क्षेत्र की रियासतों में उस समय प्रशासन की प्रमुख इकाई इलाकेदार, पवाईदार एवं जमींदार थे। जब उनके अधिकारों को आघात लगा तो वे जाग्रत हुए। अंतः सन् 1857 की क्रांति इस क्षेत्र में इन इलाकेदारों, पवाईदारों तथा जमींदारों के संघर्ष के रूप में उभरी। ठाकुर रणमतसिंह, श्यामशाह, पंजाबसिंह एवं धीरसिंह जैसे क्रांतिकारियों ने यहाँ क्रांति की शुरुआत की। यह सभी क्रांतिकारी तात्याटोपे, नाना फड़नवीस आदि से निरंतर संपर्क बनाये रहते थे। रीवा के तत्कालीन महाराजा रघुराजसिंह का भी अप्रत्यक्ष सहयोग इन क्रांतिकारियों को प्राप्त होता रहा था।
जैसा कि पूर्व में लिखा गया है कि सीधी-सिंगरौली क्षेत्र में जन जागरुकता की कमी रही, लेकिन बीसवीं सदी में जब इस क्षेत्र के नवयुवक इलाहाबाद लखनऊ, बनारस आदि स्थानों पर शिक्षा ग्रहण करने हेतु गए तथा वहाँ संचालित हो रही राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियों एवं क्रांतिकारियों के संपर्क में आए तब सीधी-सिंगरौली में भी राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियाँ तेज़ हुई। इन नवयुवकों में अवधेश प्रताप सिंह, लाल यादवेन्द्र सिंह, बृजराज सिंह तिवारी, कुँवर साहब गांगेव और चंद्रमौली प्रसाद पंडारिया आदि प्रमुख थे। इन्होंने धीरे-धीरे बघेलखंड क्षेत्र में स्वाधीनता आंदोलन की गतिविधियों को गति प्रदान की और लंबे समय से राष्ट्रीय भावनाएँ जो सुप्तावस्था में थी, उद्धेलित होने लगी और आगे चलकर सन् 1942 के आंदोलन में अपने पूरे अस्तित्व के साथ दिखाई दीं। सीधी सिंगरौली क्षेत्र से कई नवयुवक इन गतिविधियों में सक्रिय योगदान देते रहे और अपने क्षेत्र के लोगों को जागरुक करने का कार्य करते रहे। इस जागरूकता के परिणामस्वरूप आगे चलकर सीधी सिंगरौली क्षेत्र प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार से राष्ट्रीय गतिविधियों में अपनी भागीदारी को सुनिश्चित करने में सफल रहा।
बघेलखंड क्षेत्र में हुई स्वाधीनता संग्राम की घटनाओं, गतिविधियों, महत्वपूर्ण तथ्यों और स्वतंत्रता सेनानियों के बहुमूल्य योगदान को रेखांकित करने के लिए सीधी सिंगरौली जिले के स्वाधीनता संग्राम के लेखन का दायित्व स्वराज संस्थान संचालनालय द्वारा मुझे प्रदान किया गया इसके लिए मैं स्वराज संस्थान का आभार व्यक्त करती हूँ। इस लेखन कार्य में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग प्रदान करने के लिए सभी का धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ।
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