गुप्तवंश के इतिहास पर विद्वानों ने अनेक ग्रन्थ और लेख प्रकाशित किये। समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय पर रचनाएँ प्रस्तुत की गई हैं। परन्तु गुप्तकाल के इतिहास के पृष्ठों में सर्वांगीण अभ्युत्थान हेतु गौरवान्वित स्थान विलक्षण योग्यता वाले स्कन्दगुप्त ने न केवल युद्धों में विजय पताका फहरायी अपितु सांस्कृतिक पल्लवन किया। वह अपने वंश का अंतिम महान शासक था जिसने अपनी आशयमयी उपलब्धियों द्वारा समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय जैसे प्रतिभाशाली पूर्वजों की याद की पुनर्जीवित कर दिया।
स्कन्दगुप्त की उपलब्धियां और देदीप्यमान हो जाती हैं जब उनका मूल्यांकन और अवलोकन उसके सम्मुख कठिनाइयों की चुनौतियों की पृष्ठभूमि में करते हैं। स्कन्दगुप्त 'क्रमादित्य' प्रतिभा संपन्न, गुप्त नरेश ने अपनी दिग्विजय एवं व्यवहारिक जीवन की विशेषताओं द्वारा नूतन आदर्शों को प्रस्तुत किया जो कालान्तर की पीढ़ियों के लिए अनुकरण के विषय थे। जव कुमारगुप्त प्रथम, निर्वल वृद्धावस्था में, शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य की अपमानजनक पराजय को करुणामयी मूक दृष्टि से देखता रहा तभी स्कन्दगुप्त ने अपने शीर्य से साम्राज्य की रक्षा की।
पूर्व मध्यकालीन यशस्वी नरेश पृथ्वीराज तृतीय ने भारत की पश्चिमोत्तर सीमा की सुरक्षा में अदूरदर्शिता व्यक्त की, जिसके कारण उसे अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। परन्तु स्कन्दगुप्त की दूर दृष्टि और पैनी निगाहों ने पश्चिमोत्तर सीमा नीति की कभी भी अनदेखी नहीं की।
स्कन्दगुप्त कालीन राज्य व्यवस्था, आर्थिक, धार्मिक तथा कलात्मक पहलुओं पर अभी भी सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन की आवश्यकता है। अतः प्रस्तुत ग्रंथ में इनकी सूक्ष्म विवेचना की गई है। भारतीय इतिहास के प्राचीन युग में कुछ नरेश सौभाग्यशाली थे जिन्होंने कौटिल्य, मेगस्थनीज, बाण तथा हेनसांग की सेवाएँ प्राप्त की। उन्होंने अपने समकालीन नरेशों की छवि की एक रुपरेखा को एक रंग प्रदान किया। परन्तु अनेक राजाओं की भांति स्कन्दगुप्त ऐसा सौभाग्यशाली नहीं था। वास्तव में यह दुर्भाग्य है कि उसके शासन काल सभी अभिलेख दरबारी संरक्षण में नहीं तैयार किये गए थे। फिर भी इन अभिलेखों के आधार पर स्कन्दगुप्त को राजन्य आदर्श, राज्य व्यवस्था, सामाजिक, आर्थिक पहलू, धार्मिक सहिष्णुता एवं कला के कतिपय पक्षों की विवेचना की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ में उत्तराधिकार प्राप्त करने की कठिनाइयों, पुष्पमित्रों और हूणों के साथ संघर्ष तथा अन्य विजयों के अतिरिक्त, सांस्कृतिक पक्षों की समीक्षा की गई है। इतिहासकारों के इस मत की आलोचनात्मक समीक्षा की गई है कि क्या स्कन्दगुप्त के शासन काल के उत्तरार्द्ध में आर्थिक ह्रास हुआ
डॉ. ओ.पी. सिंह (जन्म 1945), लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्त्व में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। स्व. प्रोफेसर उपेन्द्र ठाकुर, मगध विश्वविद्यालय, बोधगया के निर्देशन में "A Cultural Study of Early Indian Coins (From Earliest Times Up To Gupta Period)" पी.एच.डी. उपाधि (1975) में प्राप्त की। वह तिलकधारी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, जौनपुर के प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग के अवकाश प्राप्त रीडर एवं अध्यक्ष रहे। आपने ' Religion and Iconography of early Indian Coins,' 'Iconography of Gaja Lakshmi' तथा 'प्राचीन भारतीय समाज एवं शासन' कृतियों का लेखन किया। भारतीय मुद्रा परिषद्,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी की पत्रिका का सम्पादन 1976 से 1985 तक किया. 2009 में भारतीय मुद्रा परिषद् द्वारा अल्तेकर पदक प्रदान किया गया। भारतीय मुद्रा परिषद् द्वारा प्रदत्त शिक्षा मंत्रालय प्रोजेक्ट 'Coins of India' को पूर्ण किया। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स एवं पत्रिकाओं में मुद्राशास्त्र, बौद्ध धर्म तथा क्षेत्रीय इतिहास से सम्बंधित 75 शोध लेख प्रकाशित । आपके निर्देशन में 25 शोधार्थियों को पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त हुई।
डॉ. स्वस्तिक सिंह (जन्म 1979), वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर से स्नातक (स्वर्ण पदक प्राप्त) तथा स्नातकोत्तर (प्राचीन इतिहास) में प्रथम श्रेणी से प्राप्त की। 2002 में वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर से पी. एच. डी. उपाधि 'प्राचीन भारतीय अभिलेखों का सांस्कृतिक अध्ययन' विषय पर प्राप्त की। उच्च शिक्षा आयोग, उत्तर प्रदेश द्वारा असिस्टेंट प्रोफेसर के पद के लिए चयनित। गाँधी शताब्दी स्मारक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, कोयलसा, आजमगढ़ में प्राचीन इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में एसोसियेट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के पद पर कार्यरत। आपके तीन दर्जन शोध लेख राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स / पत्रिकाओं में प्रकाशित ।
आर०डी० बनर्जी, आर०के० मुकर्जी, बी०ए० सालेटोर, ए०एस० अल्लेकर, आर०सी० मजूमदार, आर०एन० दण्डेकर, बी०एस० उपाध्याय. वी०एस० अग्रवाल, अश्विनी अग्रवाल, बी०पी० सिन्हा, एस०के० मैती, पी०एल० गुप्ता, श्री राम गोयल, अश्विनी अग्रवाल आदि प्रभूत विद्वानों ने अपने ग्रंथों एवं शोध लेखों द्वारा गुप्त वंश के इतिहास एवं संस्कृति के विभिन्न रोचक तथ्यों पर प्रकाश डाला है। निसार अहमद, जे०पी० सिंह, पी०एल० गुप्त, ए०एस० अल्तेकर, एस०के० मैती, जान एलन, आदि विद्वानों ने गुप्त सिक्कों की गहराई से छानबीन कर अनेक समस्याओं को आलोकित कर रोचक तथ्यों को उद्घाटित किया है।
परन्तु गुप्तकाल के इतिहास के पृष्ठों में सर्वांगीण अभ्युत्थान हेतु गौरवान्वित स्थान विलक्षण योग्यता वाले नरेशों की लम्बी श्रृंखला ने प्रदान किया। इनमें से स्कन्दगुप्त ने न केवल युद्धों में विजय पताका फहरायी, अपितु सांस्कृतिक पल्लवन किया। अनवरत प्रयासों द्वारा अर्जित उसका सुविशाल साम्राज्य 'सागर पर्यन्त', 'हिमवद्विन्ध्य कुण्डला' एवं 'एकांतसंत्राका' मही की पुरातन अवधारणा का ज्वलन्त ऐतिहासिक दृष्यन्त था। मथुरा से माहिष्मती तथा भृगुकच्छ से ताम्रलिप्ति तक विस्तीर्ण उसके अधिकार क्षेत्र में नाना लब्ध प्रतिष्ठ सांस्कृतिक केन्द्र, गगन-मण्डल में जगमगाते हुए नक्षत्रों की भाँति देदीप्यमान थे। अतः उसके शासन काल के सूक्ष्म अध्ययन प्रस्तुत करने के प्रयास की आवश्यकता है। विश्वविख्यात कुषाणों को आत्म-निवेदन हेतु बाध्य करने वाले तथा भयावह शकों के उन्मूलनकर्ता समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय सदृश प्रतिभा सम्पन्न गुप्त नरेश, 'सर्वराजोच्छेत्ता', 'विक्रमाङ्क', 'विक्रमादित्य', 'कृतान्तपरशुः' एवं 'अप्रतिरथ' जैसी उच्च उपाधियों को चिरस्मरणीय उपलब्धियों द्वारा सर्वथा चरितार्थ करते थे।
समस्त मापदण्डों के आलोक में इन नरेशों की तुलना अन्य युगों तथा भू-भागों से सम्बन्धित विशिष्ट राजाओं के व्यक्तित्वों से की जा सकती है। गुप्त युग के उत्तरार्द्ध में स्कन्दगुप्त अपनी प्रतिभा के कारण वंश के देदीप्यमान नरेशों के मध्य अपनी शूरता का न केवल परिचय दिया अपितु बसुन्धरा के शौर्य पुत्र्ञ्ज से आलोकित किया। उसने साम्राज्य की प्रतिष्ठा को पुनस्र्थापित किया और अलौकिक साम्राज्य के महल का निर्माण किया। वह अपने वंश का अंतिम महान शासक था जिसने अपनी आश्चर्यमयी उपलब्धियों द्वारा समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय जैसे प्रतिभाशाली पूर्वजों की याद को पुनर्जीवित कर दिया।
स्कन्दगुप्त की उपलब्धियाँ और देदीप्यमान हो जाती हैं जब उनका मूल्यांकन और अवलोकन उसके सम्मुख कठिनाइयों की चुनौतियों की पृष्ठभूमि में करते हैं। यद्यपि कुछ साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त को भी राज्यारोहण के समय कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। परन्तु स्कन्दगुप्त के समय वंश की प्रतिष्ठा अत्यन्त धूमिल पड़ गई थी और इसका अस्तित्व खतरे में पड़ गया था। निःसन्देह, स्कन्दगुप्त ने उत्तराधिकार में एक समृद्ध धरोहर प्राप्त की थी परन्तु उसके पिता ने उसे जो सिंहासन सौंपा वह पूर्णतः कण्टक युक्त था। शासन के अरुणोदय के समय, गुप्त वंश का भविष्य विध्वंसकारी बादलों की छाया में अंधकारमय हो गया जिसे स्कन्दगुप्त ने अपनी प्रतिभा और शौर्य से नष्ट कर दिया तथा उसके नेतृत्व में वंश-प्रतिष्ठा पुनः गगनचुम्बी हो गई। जहाँ प्रारम्भिक गुप्त नरेशों ने साम्राज्य का विस्तार और विकास किया वहीं स्कन्दगुप्त को शत्रुओं की उन कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ा जो साम्राज्य को रसातल में लगभग ढकेल चुकी थीं। स्कन्दगुप्त ने गुप्त शक्ति को पुनर्जीवन प्रदान कर एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की।
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