डॉ. सुषमा सेकसरिया का जन्म सन् 1937 में प्रयागराज के प्रसिद्ध जमींदार परिवार में हुआ था। उनका पूरा बचपन देश की आजादी के लिए जूझते स्वतन्त्रता सेनानियों को देखते गुजरा, जिसकी गहरी छाप उनके मन पर पड़ गई, व उन्होंने अपने देश को सर्वोपरि मान लिया। संभ्रान्त जमींदार परिवार की बालिका होने पर भी उन्हें जीवन जीने की पूरी आजादी थी।
उनका विवाह नबलगढ़ (राजस्थान) के धनी व्यापारी परिवार, जो मुम्बई में बस गया था, में हो गया। दोनों परिवारों की जीवन शैली भिन्न होने पर भी उन्होंने सन्तुलन बनाये रखा।
हिन्दी साहित्य में रुचि होने के कारण उन्होंने अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि नन्ददास पर डॉ. रमाशंकर शुक्ल के निर्देशन में ""नन्द दास और काव्य"" पर शोध कार्य किया व आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। उनकी थीसिस ""नन्द दास और काव्य"" भारत के अधिकतर विश्वविद्यालयों में उपलब्ध है।
गौर करने की बात है कि मात्र 17 वर्ष की अवस्था में विवाह होने के कारण स्नातक की परीक्षा भी विवाह के बाद दी गई। Ph.D. की उपाधि मिलने तक उनको दो सन्तानों का मातृ-पद भी प्राप्त हो चुका था। उन्होंने अपना प्रयास जारी रखा और सफल भी हुई।
पढ़ाई के साथ-साथ उनकी रुचि सामाजिक कार्यों में भी अधिक थी। घर-परिवार की जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाते हुए वे मुम्बई की कई सामाजिक संस्थाओं से जुड़ गई व जो काम उन्होंने लिया, उसे पूरा भी किया। देश के स्त्री-वर्ग से सम्बन्धित समस्याओं को दूर करनें में उनकी बहुत रुचि रही। बिहार के झारखण्ड इलाके में जाकर वहाँ की आदिवासी महिलाओं व विशेषकर उनकी लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा करने में उन्होंने बहुत सहयोग दिया। अपनी समस्याओं से लड़ने पढ़ाई के साथ-साथ उनकी रुचि सामाजिक कार्यों में भी अधिक थी। घर-परिवार की जिम्मेदारियों को अच्छी तरह निभाते हुए वे मुम्बई की कई सामाजिक संस्थाओं से जुड़ गई व जो काम उन्होंने लिया, उसे पूरा भी किया। देश के स्त्री-वर्ग से सम्बन्धित समस्याओं को दूर करनें में उनकी बहुत रुचि रही। बिहार के झारखण्ड इलाके में जाकर वहाँ की आदिवासी महिलाओं व विशेषकर उनकी लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा करने में उन्होंने बहुत सहयोग दिया। अपनी समस्याओं से लड़ने व उससे निकलने का मार्ग सुझाया।
उनको बचपन से पढ़ने और जो अच्छा लगे उसे गद्य-पद्य या कहानी में लिखना रुचिकर लगता रहा। पर अपना लेख एवं कहानी आदि कभी किसी को नहीं दिखाया। इस पुस्तक में उनकी कुछ कहानियाँ जो समय-समय पर भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखी गई प्रस्तुत हैं।
सुषमा जी का कथा संग्रह पढ़ने का मौका मिला। प्रायः व्यक्ति अपने अनुभवों एवं विचारों को साहित्य की विभिन्न विधाओं, कथा, उपन्यास, कविता, किस्सागोई या आख्यान के माध्यम से अभिव्यक्ति देता है। कई बार इन विधाओं का मिश्रण तथा कल्पना का सहारा लेकर, लेखक अपने व्यक्तिगत भाव, समष्टि तक पहुँचाने का प्रयास करता है।
प्रस्तुत कथा संग्रह में लेखिका ने कथा, किस्सागोई आख्यान के साथ मिश्रित रूप दिया है। समाज के विभिन्न पहलुओं और आपसी सम्बन्धों से जुड़ी ये कहानियाँ, कोई न कोई नैतिक संदेश भी देती हैं।
कथा के लम्बे विवरण में तत्कालीन समाज की भोगौलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक पृष्ठभूमि के साथ लेखिका न्याय करती नजर आती हैं। कई कहानियाँ किस्सागोई जैसी लगती हैं। मानो सामने बैठे दर्शकों को वे कोई किस्सा सुना रही हैं।
कुछ कहानियों में बाल मन की जिज्ञासा और भोलेपन के मनोविज्ञान का अच्छा चित्रण हुआ है। भाषा पर अच्छी पकड़ है।
इस वरीय उम्र में लेखिका ने सराहनीय प्रयास किया है. और उनके पास अपने लम्बे जीवन के अनुभवों का विशाल खजाना है।
पाठकों को लेखिका का प्रथम प्रयास, कुछेक कमियों के बावजूद रोचक लगेगा।
सर्वप्रथम पाठकों से मेरा विनम्र निवेदन है कि इस पुस्तक में उन्हें कुछ अनुचित लगे तो मुझे क्षमा करें। मैं कथाकार नहीं हूँ। मैंने जीवन में अपनी सोच, भावनाओं, आदशों को कलमबद्ध करने का प्रथम प्रयास किया है। प्रत्येक व्यक्ति के स्वतन्त्र विचार होते हैं जो पारिवारिक जीवन में, मित्रों के समक्ष बहस में, सभागृहों में या कदाचित भाषण देने का मौका मिले तो उसमें प्रकट करते हैं, मुझे लिखने का अवसर मिला।
प्रस्तुत ज्यादातर सभी कहानियों में नारी पात्रों की प्रधानता है। पुरुष चरित्र प्रधान भी हैं। मैं स्वयं नारी हैं, अतः नारी की भावनाओं, मन में उठने वाले ऊहापोह, कोमलता के साथ कठोर निर्णय लेना, समाज में स्वाभिमान के साथ जीना, अपने व्यवहार और सद्विचार से पूरे परिवार को ही नहीं समाज को भी दिशा देना व चित्रित करने की चेष्टा की है।
हमारा देश पुरुष प्रधान बन गया है पर हमारी माता भारत माता है। स्त्री की इज्जत करना, माँ को सर्वोपरि मानना हमारी संस्कृति है। किसी भी समाज, देश का उत्थान तभी संभव है, जब उस देश के समाज के परिवार की नारी का उत्थान होगा। इन्हीं विचारों को लेकर मैंने यह छोटा-सा प्रयास किया है। स्त्री और पुरुष जीवन की गाड़ी के दो पहिये हैं, दोनों को समानान्तर बनाये रखोगे तो गाड़ी अबाध गति से बढ़ती जाएगी।
कुछ कहानियाँ थोड़ी लम्बी हो गई हैं। मुझे लगा कि यदि पात्रों के मन की बातें संक्षेप में कह दूँगी तो उनका सही आंकलन न हो पायेगा। भाषा बोलचाल की होती है, ताकि अपनी बात अपने ढंग से कह सकें। चित्रपटों में प्रत्येक पात्र अपनी पात्रतानुसार भाषा बोलते हैं. तभी दर्शकों के हृदय पर उसका सीधा प्रभाव पड़ता है। कथायें भी पाठकगणों को हँसाती रुलाती हैं। उत्सुकता बढ़ाती हैं। यह तो नहीं जानती कि कितनी सफल हो पाई हूँ पर मैंने कोशिश पूरी की है। आप सबका आर्शीवाद ही मुझे भविष्य की राह दिखाएगा।
"
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist