स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाट्य-साहित्य में डॉ. शंकर शेष का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सन 1955 से 1981 तक वे हिंदी रंगमंच को स्थापित करने की लंबी प्रक्रिया में अनवरत रूप से लगे रहे। इस दौरान उन्होंने हिंदी नाट्य जगत को कई नाटक दिए, जिनमें 'पोस्टर', 'एक और द्रोणाचार्य', 'कोमल गांधार', 'रक्तबीज' आदि प्रमुख हैं। इन नाटकों ने रंगमंच पर जो कीर्तिमान स्थापित किए हैं, वे शंकर शेष को हिंदी नाट्य रंग-जगत में विशिष्ट स्थान का अधिकारी बना देते हैं। उनकी इस सफलता के पीछे यह कारण था कि वे एक ओर नाट्य लेखन के दौरान स्वयं को काल्पनिक दर्शक की भूमिका रखते थे, तो दूसरी ओर नाट्य मंचन के समय रंगमंच पर एक कुशल रंगकर्मी की भूमिका में सक्रिय रहते थे। डॉ. सिद्धनाथ कुमार हिंदी नाटक के विकास में डॉ. शंकर शेष के योगदान के संदर्भ में कहते हैं- "जहाँ भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी की नाट्य-कला को छोड़ा था वहाँ से जयशंकर प्रसाद ने शुरू किया और जहाँ से जयशंकर प्रसाद ने छोड़ा था वहाँ से जगदीश चंद्र माथुर और मोहन राकेश उसे लेके आगे बढ़े। यह कहना असंगत न होगा कि जिस रंग परंपरा को इन्होंने स्थापित किया उसे डॉ. शेष ने यहीं थाम लिया और निरुदेश होने तक इसी साधना में लगे रहे।
डॉ. शेष ने अपने अधिकांश नाटकों की कथावस्तु के लिए इतिहास, पुराण, मिथकों से सामाग्री ली और उन्हें वर्तमान जीवन के अनुरूप ढालकर प्रस्तुत किया। बचपन से ही वे पौराणिक और मिथकीय नाटको में अधिक रूचि लेते थे, इसलिए उन्होंने पौराणिक और मिथकों को अपने नाटकों का आधार बनाया। 'रक्तबीज' भी उनका इसी प्रकार का नाटक है। पुराणों के अनुसार इस नाम का एक असुर था, जिसको यह वर प्राप्त था कि यदि किसी ने उसे मारने का प्रयत्न किया तो जमीन पर पड़ी उसकी रक्तबूंदों से हजारों रक्तबीज और पैदा हो जाएंगे और यह सिलसिला चलता रहेगा। ठीक इसी प्रकार हमारी सामाजिक व्यवस्था में प्रतिष्ठा, बड़प्पन, महत्वाकांक्षा आदि के रक्तबीजों का अनुभव किया जा सकता है, जिसको जड़ से उखाड़ फेंकने की आवश्यकता है।
'रक्तबीज' नाटक के प्रारम्भ में दो पुरुष एक स्त्री मंच पर बैठे हैं दोनों पुरुष हत्या-आत्महत्या पर बहस कर रहे हैं, इस बीच स्त्री कहती है-"फिर लड़ने लगे आप लोग। हत्या और आत्महत्या तो परिणाम है। असली है वे कारण जिनके कारण ये होती हैं। मेरे खयाल में हम सतही बातें छोड़कर बुनियादी सवालों पर बहस क्यों नहीं करते। असली है वह रक्तबीज। हमारी व्यवस्था की साँस-साँस में बैठा वह रक्तबीज। जानते हो, पुराणों में एक राक्षस था इस नाम का। उसे मारने की हर कोशिश नाकामयाब होती थी क्योंकि उसकी टपकती रक्त-बूंदों से फिर हजारों रक्तबीज पैदा हो जाते थे। अगर हम उस देवी की तरह उसे नही मार सकते... तो यह व्यवस्था चलती रहेगी।
हमारे समाज की विसंगतियुक्त रक्तबीजों की यह व्यवस्था आखिर कब तक चलती रहेगी? हमें इसके लिए संवेदनशील और जागरूक रहना होगा, क्योंकि व्यक्ति जिस समाज से व्यक्तित्व अर्जित करता है, उस समाज की संरचना और विकास में उस व्यक्ति का क्या और कितना योगदान है यह विषय भी सोचनीय है। आज हर व्यक्ति यदि इन विसंगतियों से लड़ने का दृढ़ निश्चय कर लें, तो हम एक खुशहाल समाज की कल्पना कर सकते हैं।
नाट्य-विधा जन-सामान्य के अधिक निकट होती है, हम इसे रंगमंच पर होते हुए देख भी सकते हैं और समझ भी सकते हैं। यही कारण है कि मेरा झुकाव नाट्य साहित्य की ओर अधिक रहा है। डॉ. शेष के नाटकों के प्रति मेरी जिज्ञासा कॉलेज के दौरान होने वाली नाटक की कक्षाओं से बढ़ी। उनके नाटक कथ्य और शिल्प की दृष्टि से रंगमंच के अनुकूल हैं साथ ही डॉ. शेष के नाटकों में व्यक्त समाजिक चेतना भी वर्तमान में प्रासंगिक बनी हुई है, इसीलिए मैंने पहले लघु शोध के लिए डॉ. शेष के नाटक 'रक्तबीज' को अपने अध्ययन का विषय बनाया, परन्तु अब यह लघु शोध थोडे बहुत बदलाव के साथ पुस्ताकाकार रूप में प्रकाशित हो रही है। जिसमें मैने डॉ. शेष के नाटक 'रक्तबीज' के विभिन्न सामाजिक पक्षों को समझने-समझाने का प्रयास किया है।
प्रस्तुत पुस्तक तीन खण्डों में विभाजित है। जिसका प्रथम खण्ड-शंकर शेष के समकालीन हिन्दी नाटकों में सामाजिक चेतना से सम्बन्धित है, इसमें पहले समाज की अवधारणा, उसकी विशेषताओं तथा समाज के विभिन्न अंगो की चर्चा की गई है। फिर समाज को चेतना से जोड़ते हुए यह दिखाया गया है कि वह विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में कैसे क्रिया-प्रतिक्रिया करती है। अन्त में डॉ. शेष के समकालीन नाटकों में व्यक्त सामाजिक चेतना को समझने का प्रयास किया गया है, क्योंकि समकालीन सामाजिक चेतना को समझे बिना डॉ. शेष को समझने में असुविधा होगी।
द्वितीय खण्ड का विषय डॉ. शंकर शेष की नाट्य दृष्टि से सम्बन्धित है, जिसमें उनकी साहित्यिक वैचारिकी और रचना प्रक्रिया का विवेचन किया गया है। साथ ही इस खण्ड में डॉ. शेष के नाटकों में व्यक्त सामाजिक वस्तु से परिचित होने का भी प्रयास किया गया है।
तृतीय खण्ड 'रक्तबीज' नाटक में व्यक्त सामाजिक चेतना से सम्बन्धित है। यहाँ इस नाटक के विभिन्न सामाजिक पक्षों-आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक पारिवारिक आदि को विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा इस खंड में 'रक्तबीज' के कथ्य और शिल्प की तुलना 'एक और द्रोणाचार्य' और 'पोस्टर नाटकों से की गई है। तीसरे खंड के पश्चात अन्त में उपसंहार के रूप में सभी अध्यायों का निष्कर्ष दिया गया है। आशा है कि यह पुस्तक नाटककार शंकर शेष को समझने में पाठकों के लिए उपयोगी होगी।
इस पुस्तक की पूर्णता में सहयोग करने वाले परिवारजनों और मित्रों के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ। और अन्त में प्रकाशक लिटिल बर्ड पब्लिकेशन और कुसुमलता सिंह जी का भी आभारी हूँ जिन्होंने इसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।
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